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लड़की की इच्छा



मैंने बो दी है अपनी इच्छा
'इस समाज में न जीने की'
किसी गहरी मिट्टी के नीचे
क्योंकि ये समाज सुधरने से रहा
और मैं ख़ुद को मार नहीं सकती.
कैसे जियूँ यहाँ तिल-तिल मरकर
हंसने-बोलने पर पाबंदी लगी
पढ़ने जाने पर लगी
बाहर निकलने पर लगी.
जब भी समझाती हूं
बाबा अब सब सही हो गया
फ़िर कोई नई बात हो जाती है;
समझ नहीं आता ये रातें भी
क्यों होती हैं एक लड़की के हिस्से
कभी सूरज वाली रात
कभी भावनाओं वाली
तो कभी दर्द वाली;
यकीन है मुझे
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा
तब लौट कर आऊँगी पूरी मैं
मेरी रोपी हुई इच्छा का
पेड़ मजबूत हो चुका होगा तब तक
और सबने उतार लिया होगा उससे
अपनी-अपनी इच्छा का फ़ूल
...तब तक, मैं भटकती रहूँगी
इच्छा रहित आत्मा में
एक ज़िस्म बनकर
हैवानों को बोटी चाहिए
बेटी नहीं.

...ओ लड़कियों

ओस की बूंद से भीगने वाली लड़कियों
कैसे सीखोगी तुम दर्द का ककहरा,
आटा गूंधते हुए
नेल पेंट बचाती हुई लड़कियों
ज़िन्दगी मिलती नहीं दोबारा,
फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होकर
बेवजह की नुमाइश करती लड़कियों
क्यों बचाती हो खुद को
पायल, बिछुए से
महावर के रंग से
अगर लिपिस्टिक का रंग ही
महज टैग है तुम्हारे लड़की होने का
तो आजीवन आवारापन भोगो,
मत करो समझौता विवाह जैसे रिश्ते के नाम पर
मत बाँधो आत्मा के मोहपाश में खुद को
आजीवन देह बनाकर रहो;
दोयम दर्जे की लगती है न तुम्हें
घर की चारदीवारी में सजी
सम्मान के साथ जीती हुई लड़कियाँ,
क्यों उलझाओ उनकी तुलना में खुद को
वो तो नींव हैं घर की
सम्मान हैं रिश्तों की
उनके लिए चूल्हा-चौका कुंठा का विषय नहीं,
जीन्स, शर्ट पहनकर बाइक चलाने वाली
लड़कों की बराबरी करती लड़कियों
बेवजह दम्भ में ये क्यों भूल जाती हो
क्या लड़कों ने कभी बराबरी का प्रश्न उठाया?
क्या तुम छुपा सकती हो देह के भूगोल को?
क्या तुम प्रणय और समर्पण के बदले मिले
भाव और प्रेम का अंतिम बून्द तक
रसास्वादन नहीं करना चाहती?
क्या तुम्हें अपने प्रिय के आलिंगन से
वो अनुभव नहीं होता
जो लड़की होकर होना चाहिए?
क्या तुम श्रष्टि की वाहक बनने से
खुद को पदच्युत करना चाहती हो?
तुम्हीं से तो दुनिया खूबसूरत है,
बेहतर है कि तुम अपनी गरिमा बनाए रखो
बजाय बराबरी के फेर में पड़ने के,
अगर बराबरी करनी है तो निकलो मैदान में
बलात्कार नाम के जहर का कड़वा घूंट
उन्हीं को पिलाकर आओ,
बदला लेकर आओ अपनी बहनों की अस्मत का;
ये सच है कि कानून पेचीदा गणित में उलझायेगा
खोखले वादों से इज्जत न बचा पाएगा
तो जागो देवियों
एक, दो, तीन, चार और एक दिन हजार
इतनी ही संख्या में जाओ
हवस के दरिंदो को वीरांगना का अर्थ बताओ,
नहीं कर सकती न बलात्कार किसी लड़के का तुम
फिर स्वीकार लो लड़की होना,
लड़की होकर तुम अक्षम तो नहीं,
लड़कों से किसी मायने में कम तो नहीं,
बराबरी तो वो तुम्हारी भी नहीं कर सकते,
अगर तुम्हें मुखाग्नि देने का हक़ नहीं दिया गया
तो उन्हें भी चूड़ियां पहनने के हक़ से
वंचित रखा गया,
फिर कौन सा समीकरण बनाना है?
मनु ने किसी की बराबरी का
परचम नहीं लहराया था
पर मणिकर्णिका और झांसी की रानी के नाम से
अपना लोहा मनवाया था,
पाश्चात्य सभ्यता का
नगाड़ा बजाने वाली ओ लड़कियों
भारत का इतिहास उठाकर देखो,
सीता वन को गयीं थी
राधा प्रेममयी थी
गार्गी, अपाला को याद करो
रज़िया सुल्तान सा इतिहास रचो
कल्पना, इंदिरा, अरुणिमा को पहचानो,
और तहे-दिल से ये बात मानो
समंदर समंदर ही होता है
नदी नदी ही रहती है
कौन कहता कि नदी समंदर में विलय होकर
अपना अस्तित्व खोती है,
नदी तो अपनी रवानी में बहती है,
गंगा का प्रादुर्भाव धरा पर
भागीरथ के तप से ही हुआ था
और समंदर लंका विजय में
राम के रोष का विषय बना था;
सनस्क्रीन लगाकर खुद को
सन से छुपाती ओ लड़कियों
तुम तो स्तम्भ हो
नाजायज बदलाव की मांग को
आवाज़ मत उठाओ
तुम तो अनन्तिम वेतन आयोग की
खामोश चीत्कार हो
जो बदलता तो महज
एक महकमे की गड्डियों की मोटाई है
पर हर वर्ग पर भारी पड़ती
उसकी अंगड़ाई है।

मेरी पहली पुस्तक

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