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बोलो न!

 


तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही

हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है

जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ

परिणय का सुख पा लेती हैं


फिर हर बार तुम अपने परिचय में

क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे

और बुझे बुझे से?

तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं

जो स्वयं महकता है

किसी के स्पर्श का आदी नहीं?

बस एक बार नहला दो

अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से

चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!

15 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर सृजन

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत सुन्दर ।

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

सुन्दर लेखन

पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा ने कहा…

हृदयस्पर्शी रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएं। ।।।

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

बेहतरीन रचना...

Shantanu Sanyal शांतनु सान्याल ने कहा…

सुन्दर सृजन।

Roli Abhilasha ने कहा…

बहुत आभार आपका!

Roli Abhilasha ने कहा…

बहुत आभार आपका!

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार महोदय!

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार आपका!

Roli Abhilasha ने कहा…

बहुत आभार आपका मान्यवर!

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार आपका

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार आपका!

Roli Abhilasha ने कहा…

बहुत आभार!

Swapan priya ने कहा…

बहुत सुंदर लिखते हैं आप👏👏💞💞

मेरी पहली पुस्तक

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