तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही
हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है
जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ
परिणय का सुख पा लेती हैं
फिर हर बार तुम अपने परिचय में
क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे
और बुझे बुझे से?
तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं
जो स्वयं महकता है
किसी के स्पर्श का आदी नहीं?
बस एक बार नहला दो
अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से
चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका!
हटाएंबहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंआभार महोदय!
हटाएंसुन्दर लेखन
जवाब देंहटाएंआभार आपका!
हटाएंहृदयस्पर्शी रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएं। ।।।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका मान्यवर!
हटाएंबेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंआभार आपका!
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार!
हटाएंबहुत आभार आपका!
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखते हैं आप👏👏💞💞
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