तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही
हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है
जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ
परिणय का सुख पा लेती हैं
फिर हर बार तुम अपने परिचय में
क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे
और बुझे बुझे से?
तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं
जो स्वयं महकता है
किसी के स्पर्श का आदी नहीं?
बस एक बार नहला दो
अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से
चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!
15 टिप्पणियां:
सुन्दर सृजन
बहुत सुन्दर ।
सुन्दर लेखन
हृदयस्पर्शी रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएं। ।।।
बेहतरीन रचना...
सुन्दर सृजन।
बहुत आभार आपका!
बहुत आभार आपका!
आभार महोदय!
आभार आपका!
बहुत आभार आपका मान्यवर!
आभार आपका
आभार आपका!
बहुत आभार!
बहुत सुंदर लिखते हैं आप👏👏💞💞
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