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गुनाहों का देवता: एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

 










"गुनाहों का देवता" में चंदर एक जटिल और विरोधाभासी चरित्र है, जिसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह बताता है कि उसका अनाथ होना उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालता है. इससे उसे सुरक्षा और प्यार की कमी महसूस होती है, और वह दूसरों पर निर्भरता से बचने की कोशिश करता है. डॉ. शुक्ला चंदर के लिए एक पिता तुल्य व्यक्ति हैं, जिनका मार्गदर्शन और स्नेह चंदर के जीवन को आकार देता है. चंदर सुधा से गहराई से प्रेम करता है, लेकिन अपने आदर्शों और डॉ. शुक्ला के प्रति कृतज्ञता के कारण अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता. चंदर में आत्म-बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है. वह सुधा की खुशी के लिए खुद को कुर्बान करने को तैयार रहता है. चंदर नैतिक द्वंद्व से जूझता रहता है. वह अपने आदर्शों और भावनाओं के बीच फंसा रहता है. इस क़दर उलझता है कि उससे गलतियाँ होती हैं. चंदर एक अंतर्मुखी व्यक्ति है, जो अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में संकोच करता है. चंदर एक आदर्शवादी व्यक्ति है, जो जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों को महत्व देता है. चंदर के मन में असुरक्षा की भावना भी है, जो उसके अनाथ होने और सुधा को खोने के डर से उपजी है.


चंदर का चरित्र मनोवैज्ञानिक रूप से समृद्ध है, जो पाठकों को उसकी आंतरिक संघर्षों और भावनाओं से जोड़ता है. उसका चरित्र प्रेम, त्याग, और नैतिक द्वंद्व जैसी मानवीय भावनाओं का एक जटिल चित्रण प्रस्तुत करता है. भारती जी ने इस किरदार के साथ बहुत इंसाफ किया. एक अच्छे व्यक्तित्व का धनी दिखाया. मगर यही पूरी कहानी भर चलता तो कहानी का नाम “गुनाहों का देवता” क्यों होता? क्या बेहतरीन नक्काशी उकेरी मनोविज्ञान की, एक आदर्शवादी युवक की अति नैतिकता ही उसके भीतर कुंठा का कारण बन गयी. वह गलतियों पर गलतियाँ करने लगा.


भारती जी ने समय के सापेक्ष एक अजर अमर साहित्य रचा है. उन्होंने चंदर को महानायक बनाकर नहीं प्रस्तुत किया वरन सामान्य दिखाने का प्रयास किया. हम जिस माहौल में रहते हैं वहाँ अति आदर्श का क्या हश्र होता है…जरा सा मानसिक असंतुलन होने पर भयंकर कुंठा के रुप में किस तरह निकलता है, यह सब दिखाता है यह किरदार. मध्याह्न के पहले से बाद तक कहानी बिल्कुल ही बदल जाती है. 


अभिलाषा

क़तरब्योंत

 •मैं प्रेम में हूँ

इस एक बात की कतरब्योत

वाज़िब-गैर वाज़िब तरीके से

बाज़ द‌फ़ा की गयी

बातों के दरमियाने पकड़ते

एक दिन तुम कह बैठे थे मुझसे

आज ही करें त्योहारों की शॉपिंग: लूट ऑफर

“देखो जो कुछ भी हुआ

नहीं होना चाहिए था”

मेरे पास दो जवाब थे

पहला “तो रोका क्यों नहीं तुमने?"

पर तुम तो मुनाफ़े में रहते

कि ग़लत भी बोल गये मुझे

और मैं तुम्हारी भी हुई,

दूसरा जवाब, “हाँ मैं प्रेम में हूँ”

इस जवाब में भी

मुनाफ़ा तुम्हारा ही था

छाती चौड़ी कर लेते तुम

जैसे कहा था कभी, “लो अब तुम भी”

इसी एक बात से

दाँव पर लगी इश्क़ की शख्सियत

कि आते-जाते हर अहसास को

तुमने समझा भी क्या इश्क़?

मैं गिड़गिड़ाती तुमसे

90 प्रतिशत महालूट! शानदार ऑफर

“माना कि मैं बहुतेरों में हूँ

पर अब आख्रिरी कर दो”

मैं तुम्हें इस तरह छूती

कि सारे बाँध भरभरा कर बह जाते

तुम्हें पहली दफ़ा वाला सुकून मिलता

और मुझे आखिरी मर्तबा वाला 'यकीन'

लेकिन ये सब होता कैसे

मैने तो सारे जायज़-नाजायज़ जवाब

महफूज़ रखे हैं खुद में ही

मैं जवाब दूँ भी तो कैसे

तुमने सवाल मेरी जानिब किये ही कहाँ

तुम लम्हा पकड़ते रहे

वक़्त पकड़ते रहे

बातें पकड़ते रहे

लोग पकड़ते रहे

और इन्हीं में ढूँढते रहे कुछ

जैसे कभी पसंद की होगी

माल में लटकती बुशर्टों में से

एक बुशर्ट अपने लिए

वह भी थोडे दिनों की

…है ना?

ऐसे बेग़ैरत नज़रों से मत देखो मुझे

मैं तो आज भी टाँग लेती हूँ

अपनी देह पर कुछ भी

तुम्हारी तरह नहीं देखती,

आउटफिट का रंग, रूप और माप,

बस देह की चौहद्दी को रख सके ढककर

वो मुझ पर भले न फबे

मैं भी तो तुम पर बिल्कुल नहीं फबती

फिर क्यों अख़्तियार है

मेरे मन की चौहद्दी पर बस तुम्हारा ही

क्यों इस इंतजार में हूँ

कि तुम हाथ रखो मेरी नब्ज पर

और मैं पिघलकर समा जाऊँ तुम्हारे सीने में

तुम मुझसे अपना मैं,

क्यों नहीं ले जाते

तुम्हें पता है औरत हूँ मैं आख़िर

इश्क़ भी करुँगी और सलीब पर भी लटकूँगी

इस एक बात को ग़लत साबित कर

अपना ईगो, अपनी जेलसी अपनी घृणा

सब कुछ लेकर जैसे हो बस वैसे ही

आओ ना एक बार लगा लो गले से

और खोल लो मन

हम दोनों ही बन जाते हैं बहती नदी



मिनिमल लाइफ गारंटी

 











हम जी रहे हैं

कार्पोरेट लव

कार्पोरेट फीलिंग्स

कार्पोरेट रिलेशनशिप

कार्पोरेट एथिक्स

कार्पोरेट लाॅ

कार्पोरेट थियरी

कार्पोरेट ब्ला ब्ला ब्ला...

हम केवल सोशल साइट्स में ही नहीं

लाइफ में भी हैक हो चुके हैं

जस्ट चिल

ये सोशल एनेस्थीसिया का दौर है

हम मिनिमल लाइफ गारंटी में जी रहे हैं

इस त्यौहार शापिंग का लुत्फ़ उठायें "बिग बिग डील ऑफर"

Picture Credit: Elin Cibian

अमर प्रेम












इस प्रेम कहानी से प्रेरित मेरी कविता "प्रेमी की पत्नी के नाम" ९०,००० से अधिक हिट्स के साथ पहले पायदान पर आ गयी है. जो "ओ लड़कियों" के ९९,२०० हिट्स का रिकॉर्ड तोड़ने वाली है.


"भारतेन्दु समग्र' में चित्रावली के अंतर्गत पृष्ठ १११८ पर मल्लिका के साथ भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जो चित्र छपा है, उस पर चित्र परिचय लगा है भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनकी प्रेयसी मल्लिका. (चित्र संकलन स्रोत)


मेवाड़ यात्रा पर निकले भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने अपने भाई को मल्लिका की चिंता करते हुए जो पत्र लिखा है, उससे यह बात तो साबित ही होती है कि मल्लिका से उनके संबंधों की बात उनके घरवालों की जानकारी में रही है. भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के चरित्र पर उँगलियाँ उठती रही होंगी लेकिन उन्होंने उसे भी छुपाया नहीं है. 


जहाँ कहीं माधवी और मल्लिका आमने-सामने हई हैं, वहाँ कुछ डाह और ईर्ष्या भी दिखाई देती है लेकिन क्योंकि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की नज़र में मल्लिका का स्थान सदैव ऊँचा रहा है लगभग उनकी दूसरी पत्नी जैसा इसलिए मल्लिका सब कुछ सहने को तैयार दिखाई गई हैं. कुछ ऐसा ही तनाव मल्लिका को लेकर भारतेन्दु हरिश्चंद्र की धर्मपत्नी मन्नो देवी के मन में रहा है क्योंकि उन्हें भी लगता रहा है कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र एक बंगालन विधवा के जादू में पड़े रहते हैं लेकिन अंत तक जाते-जाते मन्नो देवी का मन भी कुछ बदला हुआ-सा दिखता है. भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के देहावसान के तेरहवें दिन पूरे परिवार के समक्ष भरे मन से मल्लिका को संबोधित करते हुए मन्नो देवी कहती हैं "ये मल्लिका एक बहुत ही सीधी-सच्ची, समझदार और भलीमानस है. मैंने आज तक अपने स्वामी के आस पास बहुत स्त्रियों को देखा समाज में रिश्तेदारी में बहुत से ढंग की स्त्रियाँ देखीं पर मल्लिका जैसी मुझको देखने में नहीं आई. भैया गोकुल, इनकी जो अंतिम इच्छा थी सो थी, मेरी भी यही चाह है, इनकी कंपनी, पांडुलिपियाँ, पुस्तकों का अधिकार और हर माह पचास रूपए की रकम मल्लिका के पास जाये. परिवार में इनका आवागमन और सम्मान उनकी दूसरी पत्नी की तरह हो.


बावजूद इसके मल्लिका को लगता है जब हरिश्चंद्र जी ही नहीं रहे, फिर काशी में क्या रुकना और वह जैसे विधवा होकर काशी आई थी, वैसे ही दुबारा विधवा होकर वृन्दावन चली गयीं.


यह सच है, कि मल्लिका अपने पीछे स्थायी महत्त्व की साहित्यिक थाती छोड़ गयीं. उनकी मौलिकता का विस्तार या सीमाएं जो भी हों, वे निश्चित रूप से आधुनिक हिंदी की पहली स्त्री उपन्यासकार के सम्मान की हक़दार हैं और ऐसी पहली लेखिका होने के सम्मान की भी, जिन्होंने स्त्री के भाग्य को, उसके भावनात्मक अस्तित्व को, उसके नज़रिये को अपने लेखन का केंद्र बनाया और शायद ऐसी पहली लेखिका होने के सम्मान की भी, जिसने स्त्रियों के दुर्भाग्य के चित्रण में चुनौती और अवज्ञा का एक सुर जोड़ा. मल्लिका को अपने जीवन में विधिपूर्वक अपनाया था. वे चंद्रिका के नाम से लिखती थीं, जो कि हरिश्चंद्र के नाम के आख़िरी हिस्से से ही व्युत्पन्न था. उनके नाम पर ही हरिश्चंद्र ने अपनी पहली पत्रिका का नाम हरिश्चंद्र मैगजीन से बदलकर ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ कर दिया था. लिहाज़ा, यह अनुमान लगाना शायद ग़लत न होगा कि वे इस उद्यम में, और साथ ही अनेक ऐसे उद्यमों में भारतेन्दु की सहयोगी थीं. भारतेन्दु की अनेक साहित्यिक रचनाओं में उनके नाम को लेकर शब्द-क्रीड़ा की गई है. अपनी कविताओं के संग्रह प्रेम तरंग (1877) में भारतेन्दु ने छियालीस बंगाली पदों को शामिल किया जो मल्लिका द्वारा रचे गए थे. ये प्रेम कविताएं हैं, जिनमें से कुछ कविताएं कृष्ण को संबोधित हैं और अक्सर रचनाकार के नाम के तौर पर इनमें ‘चंद्रिका’ का उल्लेख है हालांकि कहीं-कहीं हरिश्चंद्र का नाम भी है.


औरतों के प्रति जब कभी पुरानी धारणा की मुठभेड़ आधुनिकता से होती है, तो भारतीय मन-मनुष्य और समाज को पुरुषार्थ के उजाले में देखने-दिखाने के लिए मुड़ जाता है. पर हमारी परंपरा में पुरुषार्थ की साधना वही कर सकता है, जो स्वतंत्र हो. हिंदी साहित्य के शेक्सपीयर कहे जाने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की ज़िंदगी में मल्लिका अकेली स्त्री नहीं थीं, जिनके साथ उनके संबंध थे, लेकिन मल्लिका का उनके जीवन में विशेष स्थान था. 


यह सच है कि एक लेखिका की जीवन-कथा उसके लेखन के बराबर महत्त्वपूर्ण हो जाती है. उसका अपना वजूद, चाहे वह कितना भी धुँधला क्यों न हो. एक तरह से उसके लेखन का ही हिस्सा बन जाता है. उसकी अपनी ख़ुद की कहानी उसके कथा-लेखन में कहीं न कहीं आकर बैठ ही जाती है और उसकी कृतियों के विषय सामाजिक व्यवस्था की कगार पर उसके अपने संकटपूर्ण अस्तित्व को मार्मिक तरीके से गौरतलब बना देते हैं. जब हम हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की ज़िंदगी के बारे में बात करते हैं, तो उनकी प्रेमिका मल्लिका के नाम के पन्ने अपने आप खुलते चले जाते हैं.


हरिश्चंद्र की मृत्यु से पहले मल्लिका ठठेर बाज़ार के भिखारीदास लेन में हरिश्चंद्र परिवार के मुख्य घर के दक्षिण में बने हुए एक घर में आराम से रहती थीं. वह घर हरिश्चंद्र के अपने भव्य भवन से एक पुल द्वारा जुड़ा हुआ था. हरिश्चंद्र की मृत्यु के समय वे उनकी मृत्यु-शय्या के पास मौजूद थीं और आगे के कुछ वर्ष बनारस में भी रहीं. लेकिन उसके बाद वह ओझल हो जाती हैं और यह संभव है कि उन्होंने जल्द ही लिखना छोड़ दिया होगा… मुमकिन है, उन्होंने हरिश्चंद्र के गुज़रने के बाद विधवा का जीवन जिया हो, और मुमकिन है, वे वृंदावन चली गई हों… जो कि परित्यक्ता और अभागी विधवाओं का अंतिम शरण माना जाता है. मल्लिका का अपना दुर्भाग्य संभवत: उसी व्यथा को प्रतिबिंबित करता है जिसका दर्दनाक चित्रण उन्होंने ‘सौन्दर्यमयी’ जैसों के सन्दर्भ में किया था.


मल्लिका का अपना अपेक्षाकृत आश्रित जीवन 3 जनवरी, 1885 को हरिश्चंद्र के गुज़रने के साथ ही समाप्त हो गया. हरिश्चंद्र ने अपनी वसीयत में कहा था कि माधवी (उनकी एक और रक्षिता) और मल्लिका को हरिश्चंद्र के हिस्से की संपत्ति बेचकर वित्तीय मदद की जाए. हरिश्चंद्र को मल्लिका से ‘यथार्थ स्नेह’ था.


*अधिक जानकारी के लिए मनीषा कुलश्रेष्ठ जी की उपन्यास "मल्लिका" पढ़ी जा सकती है. 

भाषा ने लिपि से कहा




मैं आँखों की मधुर ध्वनि

तुम अधरों से झरती हो

घट घट में मैं डूबी हूँ

तुम कूप कूप में रहती हो


संकुचित स्वयं में हूँ

और तुमसे विस्तारित हूँ

मैं आविर्भाव जगत का,

मुझे संरक्षित तुम करती हो


ईश्वरेच्छा बलियसी











अक्सर

कहाँ मिलता ईश्वर?

ईश्वर, तुम मत सिमट जाना

श्रावण की पार्थी में

या मंदिर के किसी लिंग में

तुम रहना इन निम में!


पूजा को समर्पित मेरी आँखें चिरायु हों!


मेरा विचित्र प्रेमी

 


फूल मेरा प्रतिबद्ध प्रेमी

भेजता रहता है कितनी ही खुश्बुएँ

हवा के लिफाफे में लपेटकर


मौसम मेरा सामयिक प्रेमी

आता है ऋतुओं में लिपट

कभी वसंत बनकर कभी शीत

तो कभी उष्ण के नाम से


दीया मेरा अबूझा प्रेमी

तकता ही रहे मुझको

और चाहे कि सब तकें मुझे

उसकी लौ में बैठकर


अंधेरा मेरा धुर प्रेमी

लील जाता है दिन को हर रोज

मुझे आलिंगन करने को


गगन मेरा दूरस्थ प्रेमी

देखता रहता है मुझे अपलक तब तक

जब तक मैं छुपा न लूँ ख़ुद को उससे

किसी छत की ओट में


लेखक मेरा विचित्र प्रेमी

मुझे…हाँ मुझे

गढ़कर अपने शब्दों में

नाम ज़िंदा रखेगा मेरा

तब, जब जा चुका होगा इनमें से

हर एक प्रेमी मुझसे दूर

तब, जब मैं भी नहीं रहूँगी

तब, जब कोई भी न रहेगा

तब भी जब सृजन

प्रलय में बदल जायेगा

बस प्रेम रह जायेगा


याद बहुत आते हो ना

 


अपनी आँखों में

नक्शा बाँधकर सोने लगी हूँ अब

सपनों में आ जाती हूँ

तुम्हारे पास


चले आने की आहट किये बिना ही

तुम्हारे सिरहाने बैठे बैठे

पूछ लेती हूँ, मे आई कम इन

और जब तुम कहते हो ना,

धत पगली और कितना अंदर आयेगी

तब माँ कमरे के बाहर तक आकर

लौट रही होती है...

नींद में बड़बड़ाने की बीमारी

ब्याह के बाद ही जायेगी बुद्धू की

मैं, मेरा बुद्धू, कहकर

अनंत प्रेम पाश में

समेट लेती हूँ तुम्हें

मैं वीगन क्यों हूँ

 "वह दिन कभी तो आयेगा. मनुष्य कभी तो सभ्य होगा. मेरा पूरा जीवन उसी दिन का लंबा इंतजार है..."


सुशोभित जी की यह पुस्तक शब्दों में न लिखी होकर भाव में ढ़ली है. लेखक के मन की व्यथा, सब कुछ सही न कर पा सकने की ग्लानि, करुण पुकार बनकर उभरती है. पशुओं के लिए एक पुकार है तो पढ़ने वालों के लिए पुरस्कार.


पुस्तक को छः भागों में बाँटा गया है. “पाश में पशु” इस व्यथा को चित्रित करती है कि सच को नजरअंदाज कर एनिमल फार्मिंग को सोशल एक्सेपटेंस कैसे मिलती रही है. क़त्लखानों की बर्बरता लिखते हुए लेखक भावुक हो उठता है, “मैं नहीं चाहता कल्वीनो की फ़ंतासी की तरह पशु मनुष्यों को शहरों से बाहर खदेड़ दे…मैं चाहता हूँ कि काफ़्का की तरह हम उन अभिशप्त कल्पनाओं के भीतर पैठ बनायें जो सामूहिक अवचेतन का हिस्सा है…”. वीगन होना कोई ट्रेंड नहीं बल्कि हमारी नैतिक जिम्मेदारी है. दूध के लिए दुधारू पशुओं को दी जाने वाली यातनाएँ और जो दूध नहीं देते उन्हें वेस्ट प्रोडक्ट की तरह कसाई खाने में भेज दिए जाने के विरोध में स्वर तो उठने ही चाहिए. तथ्यों को वैज्ञानिक आधारों पर पुष्ट करते हुए हर एक बात इस तरह से कही गयी है कि आप उसे समझ सकें और जाँच सकें. वैश्विक स्तर पर किन-किन लेखकों ने यहाँ तक कि अभिनेताओं ने पशुओं पर हो रहे अत्याचार को कलमबद्ध एवं भावबद्ध किया है, इस भाग में आप पढ़ सकते हैं. 


“कितने कुतर्क” के अंतर्गत नौ कुतर्कों का बिंदुवार बहुत ही सहज माध्यम से उत्तर दिया गया है. न केवल प्रबुद्ध पाठक वर्ग बल्कि बच्चे-बच्चे को समझ में आ जायेगा. जैविकी में प्राणियों के विभाजन में लेखक ने एक सूक्ष्म जानकारी रखी है जो कि बहुत लोगों को ज्ञात नहीं होगी कि हम मनुष्य भी एनिमल किंगडम का ही हिस्सा है. ‘सब शाकाहारी हो जायेंगे तो खायेंगे क्या’ के अंतर्गत लेखक ने आँकड़ों के साथ एक बहुत दमदार बात प्रस्तुत की है कि आज जितनी कैलरी फार्म एनिमल्स को खिलायी जा रही है उसके बदले में बहुत थोड़ा ही प्रतिशत मांस के रूप में प्राप्त होता है. स्वच्छ जल का एक तिहाई हिस्सा एनिमल फार्मिंग पर व्यय किया जा रहा है. वगैरा-वगैरा…धार्मिक आस्था की बात हो अथवा भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर लेखक ने बहुत ही शालीन ढंग से अपने तर्क रखे हैं. भ्राँतियों की काट निकाली है.


भ्राँति- पुस्तक “माँसाहार बनाम शाकाहार” है

तथ्य- यह बहस “जीवहत्या बनाम जीवदया” है


“जीवदया का धर्म” सात अध्याय में संकलित है. इसमें विभिन्न धर्मों में जीव दया के बारे में बताया गया है. कथाओं के माध्यम से उदाहरण भी प्रस्तुत है. पशु बलि पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है.


पुस्तक का मस्तिष्क “भारत में मांसाहार” पुनः सात अध्यायों में नीतियों का एक कच्चा चिट्ठा है. ब्योरेवार एक-एक बात बतायी गयी है. पशुओं को कमोडिटी कहने पर एक आपत्ति दर्ज है.


अगले आठ अध्यायों का संकलन अगले भाग “पक्षियों की नींद” के अंतर्गत है. इस भाग की हर बात को अपना स्नेह दूँगी. यह पुस्तक का दिल है. लेखक ने पक्षियों-पशुओं के जीवन के सच इतने मर्म से उकेरे हैं कि एक समानुभूति की मिठास हर शब्द से आती है चाहे वह सी एनिमल्स हों, रेप्टाइल्स हों अथवा चौपाये. सोन चिड़िया के गिरने और उसकी पहचान करने से एक मुस्लिम परिवार का लड़का सलीम अली किस तरह पक्षी शास्त्री हो गया, यह इसमें बताया गया है और हाँ मुस्लिम शब्द इस पूरी पुस्तक में मात्र यहीं पर आया है.


पुस्तक का अंतिम भाग “पशुओं का जीवन” जिसमें डोमेस्टिक एनिमल्स, जूनोटिक बीमारियाँ और क़त्ल के नैतिक पहलुओं पर बात के साथ पशुओं के जीवन उनके चेतना और साथ ही काफ़्का की ग्लानि पर भी एक अध्याय है जिसने उन्हें वीगन बनने को प्रेरित किया.


“आख़िरी पन्ना” जो कि मैंने सबसे पहले पढ़ा. इस पन्ने का एक-एक शब्द अपील करता है. हमारी चेतना को सुदृढ़ करता है. हमें पशुओं के क़रीब लाता है.


चेतना के इस स्तर तक पहुँचने के लिए अवश्य पढ़ें. 


मैं वीगन क्यों हूँ

(पशुओं के लिए एक पुकार)


लेखक- सुशोभित

हिन्द युग्म प्रकाशन

प्रथम संस्करण २०२४



मेरे बदलने की उम्र बहुत लम्बी है

 मैं बदल गयी हूँ पहले से

हाँ मैं बदल गयी हूँ

खोटे सिक्के सी उछाले जाने पर

रोती नहीं हूँ

जश्न मनाती हूँ

फेंक दिये जाने की स्वतंत्रता का

घंटों छत ताकते हुए

छेद नहीं करती उसकी मजबूती में

यह नहीं सोचती

कि तुम मुझसे घृणा करते हो

हाँ अब बदल गयी हूँ

उन ग्रहों में नहीं उलझती

जो कमज़ोर हैं जन्मांक में

जुगाड़ चलाती हूँ

अच्छे ग्रहों की अनुकूलता का

इतनी बदली हूँ मैं

कि कोई भी खाये मेरी मौत का भात

मैं नहीं जानने आऊँगी उनके मन की बात 

लौट जाऊँगी यमघंटा से

फटते हैं तो फट जायें बादल

किसी पर भी दुखों के

तुरपाई नहीं करुँगी

मुग्ध नहीं रही अपने इच्छाशव पर

इतनी विरत हूँ कि मरी माछ की तरह

बहाव का आलिंगन नहीं करती

तलहटी को सौंप देती हूँ अपना संघर्ष

और हाँ…

मेरे बदलने की उम्र बहुत लम्बी है




योग के बहाने



 पहिला योग

जादू की झप्पी

दुसरा योग है

लिप ऑन लिप

तिसरा योग

छुवमछुवाई

एक नारियल

टू टू सिप

चौथा योग

बिरवा के नीचे

बदन कर रहे

घिस घिस

पंचम योग है

राहु काल में

अम्मा की

फ्लाइंग चप्पल

छठो योग

पिता का

निशाना रह्ये

सबते अव्वल

सप्तम योग

इसक है रोग

ज्ञान की दाढ़ी

चेहरा लागी

मन को भाये

लौकी, मूँग दाल का भोग


#योगदिवस 

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php