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बेटी: किलकारी से महावर तक



क्षितिज पर ललछौं आभा से भी पहले पसरी

मेरे जीवन पर सलिल हृदय रक्ताभ ललाट

स्वेद को मेरी पीड़ा को किलकारियों में भुलाती

बूँद-बूँद समेटती रही मेरे मन का उचाट

वर्तिका, तितली, परागकण तो कभी छुई मुई

सदुपाय, आलम्बन तो कभी स्वत्त्व बन मिली

मैं अरण्य, वन, कानन घूमा वो तोतली मिश्री की डली

कितने दिन के मैं भँवर चला उसे देख मेरी हर शाम ढ़ली

उसका प्रदीप्य और वो मुख मशाल

बना कभी मेरा गांडीव तो कभी शंखनाद

उसके चित्रों में मिलते सुपरमैन मूँछों वाले

उसके कल्पनाओं की सिम्फ़नी दिखाती मेरे रुप मतवाले

उसकी तरुणाई की छम छम का असर बढ़ा

मेरे कन्धे पर सर रख, गोदी के झूले में

सोने वाली का हाथ, मुझे अपने कंधे पर मिला

माँ, दादी माँ, नानी माँ तो कभी परनानी

मेरी अल्फ़ा, बीटा और अनसुलझी प्रमेय की दीवानी


ठुनक जाती है जब भी कहता हूँ, कोई और ठौर है तेरा

बिठाना है तुझे नाव सपनों जिस संग, सिरमौर है तेरा

छाप तेरे महावर की होगी, लगे जब अंग प्रियवर

खोज नहीं पाऊँ मैं भी, नाम मुझ सा अनल अक्षर

कैसे कहूँ बेटी हृदय में हूक सी समा जाती है

आँगन घर का हो या मन का बस तू ही सुहाती है.

लड़की की इच्छा



मैंने बो दी है अपनी इच्छा
'इस समाज में न जीने की'
किसी गहरी मिट्टी के नीचे
क्योंकि ये समाज सुधरने से रहा
और मैं ख़ुद को मार नहीं सकती.
कैसे जियूँ यहाँ तिल-तिल मरकर
हंसने-बोलने पर पाबंदी लगी
पढ़ने जाने पर लगी
बाहर निकलने पर लगी.
जब भी समझाती हूं
बाबा अब सब सही हो गया
फ़िर कोई नई बात हो जाती है;
समझ नहीं आता ये रातें भी
क्यों होती हैं एक लड़की के हिस्से
कभी सूरज वाली रात
कभी भावनाओं वाली
तो कभी दर्द वाली;
यकीन है मुझे
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा
तब लौट कर आऊँगी पूरी मैं
मेरी रोपी हुई इच्छा का
पेड़ मजबूत हो चुका होगा तब तक
और सबने उतार लिया होगा उससे
अपनी-अपनी इच्छा का फ़ूल
...तब तक, मैं भटकती रहूँगी
इच्छा रहित आत्मा में
एक ज़िस्म बनकर
हैवानों को बोटी चाहिए
बेटी नहीं.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php