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"खरी-खोटी" पुस्तक के लिए


नयी-नयी पुस्तकों की प्रतीक्षा करना मेरे लिए कुछ ऐसा है जैसे मानसून की बारिश की प्रतीक्षा. इसी कड़ी में एक बार पुनः प्रतीक्षा को विराम लगा पुस्तक "खरी-खोटी" प्राप्त करने के साथ. इसे पूरा पढ़ने के साथ ही ये मेरे जीवन का दूसरा ऐसा 'व्यंग्य संग्रह' बन गया जिसे मैंने पूरा पढ़ा. 


लघुकथा, मिनी कथा, कहानी और लम्बी कहानी इन चार विधाओं से सुसज्जित हैं व्यंग्य, सामाजिक व्यंग्य और पारलौकिक व्यंग्य. जैसा कि नाम से स्पष्ट है पारलौकिक तो इसे पढ़कर नाम के अनुरुप ही आनन्द आता है. पृष्ठ संख्या ५ से प्र० सं० ३८ तक आपको कैलाश पर्वत, क्षीर सागर, ब्रह्म लोक के दर्शन होंगे और इस पावन कार्य में गाइड नारद आपका साथ देंगे. इनमें विवाह, वाहन और सुख के प्रसंग ऐसे हैं जो अमिट छाप छोड़ते हैं मस्तिष्क पर. यदि पूरा पढ़ लिया आपने तो दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं कि कौन सा वाहन किसका. पढ़ते ही ये भ्रम भी मिट जाता है कि हम पृथ्वी वासी ही दुःखी नहीं अपितु किसी प्रभु के पास भी कोई सुख नहीं.

सामाजिक व्यंग्य में पहला व्यंग्य "ब-दस्तूर" मानव बनाने की प्रक्रिया समझाने के साथ प्रारम्भ हुआ कि किस तरह सभी आकार, रंग एवं रुप के मानवों को गढ़ा गया. पूरा पढ़ते हुए एक मुस्कान तिरछे होंठों पर पसरी ही रहती है. "वीज़ा-पासपोर्ट" के माध्यम से आम लोगों को होने वाली परेशानियों और मिलने वाली सुविधाओं पर कटाक्ष है. आगे बढ़ते हुए "अंत भला तो सब भला" सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार है. गाँधी जी की यात्रा और माया का ठग ब्रह्मांड अत्यंत रोचकता समेटे हैं. "बिकाऊ" के माध्यम से स्त्री की वस्तु-स्थिति को परोसा है. कुल मिलाकर १६ सामाजिक-व्यंग्यों के जरिए समाज के प्रत्येक कोने पर प्रहार करने के प्रयास में लेखक सफ़ल दिखाई पड़ते हैं. 

पृष्ठ संख्या ७७ से ८६ तक लिखे हुए सभी व्यंग्य एक से बढ़कर एक हैं. "निरामिष-सामिष" हमारे उपभोक्ता वाद पर चांटा है कि हमें पौष्टिकता के नाम पर क्या मिल रहा! "धान बोना" मुहावरे को पूर्णतया सार्थक करता है. "दिल का मसला" और "हार्ट रिपेयरिंग सेंटर" के माध्यम से आधुनिक समय के लव, लव ट्राइएंगल और विवाहेत्तर सम्बन्धों की एक झलक मिलती है. "हॉट पैंट" उन विद्यार्थियों के लिए है जो हिंदी माध्यम से पढ़कर अँग्रेजी के छात्रों के मध्य पहुँच जाते हैं और इसका खामियाजा शर्मिंदगी के रुप में उठाना पड़ जाता है. "समीक्षा" के लिए कुछ भी कहना सही नहीं होगा.

कुल मिलाकर लेखक ने अधिकांश विषयों को समाविष्ट करने की चेष्टा की है. जहाँ ये विषय हास्य के साथ रोचकता परोसते हैं वहीं ज्ञान वर्द्धन भी करते हैं. पुस्तक त्रुटि रहित है. शब्दों की सघनता एकाग्रता के साथ पढ़ने से मन को थोड़ा भटकाती है. कहीं-कहीं चलन वाले शब्दों का प्रयोग अखरता है.


उपरोक्त संग्रह माननीय अमरनाथ जी ने लिखा है. इसके पहले भी आपके छः संग्रह (दो खण्ड-काव्य, दो कहानी-संग्रह, एक भजन-संग्रह एवम एक द्विपदी व्यंग्य-संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं. लगभग २० से अधिक संग्रह में सहयोगी रचनाकार की भूमिका निभायी. इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र सम्पादन अथवा सम्पादन कार्य किया. आने वाले समय में प्रकाशन हेतु अनेकों मोती कलम से निकलने को आतुर हैं. पुस्तक का प्रकाशन 'अभियान' अभियंता साहित्यकार एवं सांस्कृतिक संस्थान, लखनऊ से हुआ. पुस्तक का मूल्य एक सौ रुपये मात्र है.


माननीय लेखक महोदय एवं मित्र माननीय अनूप कमल अग्रवाल "आग" जी को पुस्तक प्रेषित करने हेतु अशेषाभार! आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए कामनारत!


शुभाकांक्षी

 

ये किस्से भी न...


झूठ के पांव से चलते हैं किस्से
बहुत लंबी होती है इनकी उमर
हर मुसाफिरखाने पर रुकते हैं
करते ही हैं थोड़ी सी सरगोशी हवाओं में
फिर बांधकर पोटली निकल पड़ते हैं;

ये किस्से भी बड़े अजीब होते हैं
महसूस सच के बेहद करीब होते हैं
किसी के लिए शहद भरे हों जैसे
तो कहीं कड़वे करेले नसीब होते हैं,
तितलियों के पंखों में बँध जाते हैं
पक्षियों के ठौर पर इतराते हैं
विदेशी बन ठाठ से जाते हैं कभी
तो प्रवासी बन मन को लुभाते हैं कभी
उम्मीदों की गिरह से निकलते हैं
दुआ-ताबीज के बेहद करीब होते हैं
ये किस्से भी न..

ये चलने का मुहूरत नहीं देखते
और न ठहरने का ही समय
दबे पाँव महफ़िल की शान बनते हैं
ये मुखारबिन्दु से तभी निकलेंगे
जब होंठ हो हाथों से छुपे
एक मुंह से दूसरे कान का सफर तय करते हुए
न-न में भी महफ़िल की रौनकें बन जाते हैं
सच के कंधे पे अपनी मैराथन पूरी करके
उसे पार्थिव बना मुस्कराते हैं
अमीर होकर भी कितने गरीब होते हैं
ये किस्से तो बस....

राजा-रानी के किस्से
नाना-नानी के किस्से
दम तोड़ते रिश्तों के
हर घर की कहानी के किस्से
घर से गलियों से निकले
संसद के गलियारों के किस्से
हीरेजड़ित अमीरों के हो कभी या
टाट की पैबन्द से निकले गरीबों के हिस्से
ये किस्से अगर मर भी जाएं तो क्या हो?
मग़र ये बड़े बदनसीब होते हैं
ये किस्से तो उफ्फ्फ....

वेज तड़का मसालेदार होते हैं कभी
तो नॉनवेज भी निकलते हैं
साधारण शुरुआत होती है इनकी
परोसने तक गार्निश होकर मिलते हैं
पचते नहीं हैं किसी पेट में ये
तभी तो कानों से होकर मुँह से निकलते हैं
होतेे ही रहते मकानों के अंदर
गूँगी ये दीवारें बोलती कब हैं इनको
मग़र कान फैला ही देते हैं जग में
हे प्रभु, किस्से पच सकें वो ऑर्गन बना दो
या इंसानी नियत को हीलियम से भारी बना दो,
औरो की गिराने की चाहत में नंगा हुआ जा रहा
मुफ़लिसी, दर्द के ये सबसे करीब होते हैं
ये किस्से भी छि ...बड़े अजीब होते हैं

जीजी को ताई से लड़वा दें
आंखों के पहरे को नीम्बू मिर्च लटका दें
सच के गर्दन पे तलवार रखकर
पड़ोसी की बीवी को लुगाई बना दें
बेटी के ब्याह का न्योता पिता को भेजकर
आहों की भी जगहंसाई करा दें,
अपनी न किसी और की सही
श्वसुर के दामाद को ओलम्पिक में मेडल दिला दें
कहीं हो न जाए उलटफेर इतनी
काश कि शोक सभा में खुद को स्वर्गीय बना दें,
पर कहाँ सच के इतने नसीब होते हैं
ये किस्से भी न इतने ही अजीब होते हैं।

चचा लखनऊ उवाच 1


GOOGLE JI FOTU DIHIN

हमरे चचा केरे चचा केर पिताजी
अपने ग्यारा साल केर लरिकवा 
खातिर बिटेवा देखे गए रहे
तो कहिन
.....देखौ, तुम्हार नौ साल केर
छुई-मुई जैस बिटेवा हमका
नीक लाग।
बस यू बताओ
कि कनकैया मा कन्नी तो
बांध लेत है,
....फिर हमरे
चचा केर पिताजी 
इक्कीस बरस के
चचा खातिर अट्ठारा बरस केरी
चाची पसन्द 
करे गए
....सुनौ, तुमार बिटिया
तनू दूबर है
मुला ठीक है
बस उइका टाई मैहा
गांठ बाँधब आवत है,
अब हम उनतिस
केर हुई चलेन 
नाक, कान गला केर डॉक्टर हन
हमरे पिताजी का
गर्दन बांधे वाली नाई मिल रही


चचा लखनऊ

A letter to those who write ingrezi

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हमारे deer मित्रों
एक अनुभव से गुजरे हम
बीते दिनों,
फ़ेसबुक की timeline पर
अचानक एक फोटू आया
हार पहने हुए व्यक्ति
हमसे टकराया;
हमने आँखे बंद कर
दो मिनट तो नहीं
पूरे दो सेकण्ड का ध्यान लगाया
इस तसल्ली पे आँखे खोली
जब वो बोले अब मैं शान्ति पाया,
नीचे लिखे कमेंट बॉक्स को पढ़कर
सर चकराया
तब समझ आया
क्यों अब वो शांति पाया;
कमेंट बॉक्स में कुछ यूँ लिखा था
Rest in piece
क्या dye आत्मा को
शांति टुकड़ों में मिलेगी?
हे मित्रों
हिंदी बुरी नही है
अँग्रेजी आने से ज़्यादा जरूरी है
अच्छा इंसान होना
हो सुख बांटने को अपना
और ग़मों में पहचान होना,
भाषा से बड़ा भाव होता है
गर व्यक्त न कर सको खुद को सही
तो अपनेपन का अभाव होता है,
ये कविता तो बस हमारे
Deer मित्रों के लिए है,
दिल पे मत लेना जानी
हिंदी तो हमें भी नहीं आती
अंग्रेजी समझने को तरसते हैं।

कैसे पहुँचे 10,000 पाठकों तक 1 घण्टे में!!!


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बहुत दिमाग घुमाया
सर चकराया
गुस्सा भी आया,
क्या मेरी बातें हैं
जलेबी की तरह गोल-गोल
समझ नहीं आते लोगों को
मेरे सीधे बोल
जो मेरे संग नहीं बिताते
दो मिनट अनमोल,
2017 तो गया बीत
कहाँ बदली उनकी रीत
मैं हारी नहीं तो क्या
कहाँ हुई जीत,
लिखने से पहले 
अब पूछती हूँ खुद से
कि मेरी बेजान लेखनी
अब कौन पढ़ेगा
फिर दिमाग कैसे
कोई सृजन गढ़ेगा,
इस व्यंग्य को पढ़ने वालों
मेरे प्रिय मित्रों
मेरा सवाल सुलझा दो
कहीं मिलता हो गर
दस हजार का आँकड़ा
मुझे भी दिला दो,
कमेंट बॉक्स में उत्तर लिखे बिना मत जाना
पहली बार मंगल ग्रह पर पार्टी रखी है
आप सब जरूर आना,
2018 दस्तक पर है
मुस्कराते हुए बुलाना
वर्ष का हर दिन मंगलमय हो
बस गुनगुनाते हुए बिताना।

तलाश है अच्छी लड़की की...

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तलाश है मुझे
एक अच्छी लड़की की
अच्छा लड़का तो
पहले ही मिल चुका है;
दिमाग के घोड़े दौड़ाइये
न टेंशन में आइये,
ये कोई मैरिज ब्यूरो का आफिस नहीं
न ही बच्चों को गोद लेने-देने वाली संस्था
ये तो बस एक समतल सी जगह है
मैदानी इलाके की
जहाँ मन विश्राम पे है,
सो मन में
एक अहमक सा ख़याल आ गया
सुषुप्त आरजू में उबाल आ गया
थक गयी हूँ अपने आस-पास
सौंदर्य-प्रसाधन का बेजा प्रचार देखकर
अब हिरनी सी आँखे हवा हो गयीं
आई-लाइनर मस्कारा के आगे,
होंठों की गुलाबी रंगत कहाँ खो गयी
कहाँ गुम गए झुर्रियों के धागे,
अब चेहरे उम्र नहीं बोलते
कंपनी का ट्रेड मार्क उगलते हैं,
गाय दरवाजे पर गोबर कर जाए
तो चौबीस घंटे महकता है
मगर स्कूटी पर बैठी दीदी का
चेहरा दमकता है,
फिगर जीरो, कपड़ों का साइज छोटा
अच्छे होने की बस
इतनी सी निपुणता है,
सेल्फी का ट्रेंड है जी:
ब्यूटी प्लस की पोल
एक बार अच्छे लड़के ने मुझसे खोली थी
जो बात मेरे दिल में थी
उसने मुँह खोलकर बोली थी,
वो अच्छा लड़का है
मैं कहती हूँ,
उसमें दुनियादारी की बनावट नहीं है
वो जैसा भी है
उसके शब्दों में मिलावट नहीं है;
तलाश बाकी है अभी
एक अच्छी लड़की की
अब ये मत कहना
कि मैं आईना देख लूँ।

कुछ तो करो!

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उ कहे
भगवान जी से
बढ़ा दो, बढ़ा दो
भगवान जी भी
बढ़ावत नहीं रहे
फिर का
एक दिन
उ हिमालय चले गए
लगे तपस्या करन
भगवान जी सो के उठे ही थे
दातुन करी
हिमालय से आवाज आई
वहाँ चले गए
जो कुछ समझे आवा
बढ़ा दिहिन
सैलरी जस की तस
मुसीबतें ठूंस ठूंस के
जी एस टी समेत
तब से आज तक
उ हिमालय पर हैं।

ऑटो अपडेट वर्जन

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लोग कहते हैं
समय के साथ
प्यार पुराना हो जाता है,
मगर जान
तुम तो हमारा
ऑटो अपडेट वर्जन हो,

न पुराने होगे
न बदलने पड़ोगे;
हो भी तो वायरस फ्री,
विश्वास और मोह के
दो पायों पर टिकी
शीत, ताप, बारिश की छत हो जैसे:

जब 25 अप्रैल को
लोग कहते हैं....
धरती हिली थी,
हम तो
जैसे तुम्हारी लहर की गोद में थे,
भूकम्प
हमारा पता जाने बगैर ही गुजर गया;
अच्छा है जो अपना इश्क़ हार्डवेयर नहीं है
 
छुप जाते हो,
कलम की स्याही,
शब्दों की खुशबुएँ बनकर;
ये न जताना
कि तुम इस अनारकली के
शहजादा सलीम हो,
कहीं जहाँपनाह की शमसीर
सौ बार हमें जिबह न कर दे,
किसी ने छुप-छुपकर
मिलते-मिलाते देखा भी तो
सौ बार गंगा मइया से बोला
बस इस बार बचा लो,
कल ही हरिद्वार आते हैं
पिछले हर कसम की डुबकी लगाने:

खण्डहर की छत पे
हो एक टूटी खाट
स्याह नभ के तले
तुम्हारी कलाई थामे हो हमारा हाथ
और हमें क्या चाहिए,
ए सी कमरों में
बनावटी सामानों के बीच
पहाड़नुमा चीड़-सागौन के
नक्काशीदार बेड की नरम बिछावन पर
तुम स्लो सिस्टम लगते हो हमें:

हम प्यार बेशुमार करते है,
  इस प्यार में
नहीं कोई इतवार करते हैं,
और ऐतबार से कहते हैं
अगर प्रेम जैसे खौफनाक
मगर यूनिवर्सल ट्रूथ को आगे बढ़ाया जाए,
तुम्हारे जैसे आशिक़ को
हमारे जैसी महबूबा से मिलाया जाए,
तो थर्ड वर्ल्ड वार खयालों में भी न होगा।

अब मोमोज़ हो गई है।



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पहले रिश्तों को
धुला, सुखाया और फिर
तला जाता था,
अब सेंकने का भी
समय नहीं मिलता है;
तब जो
कुरमुरे से हुआ करते थे,
अब विद्युत यन्त्र में
मरे से पड़े हैं:
वो वक़्त नहीं रहा
जब जायका था
अब तो दिखावे की तस्करी है,
जिसका जितना महंगा चूल्हा
उसकी उतनी दाल गली है:
तब स्वादानुसार थे
अब सेहतानुसार हैं,
तबियत की कहाँ रही थाली
आँखों की सोज हो गयी है;
क्या खाया गिनते-गिनते
टेंशन की डबल डोज़ हो गयी है;
वक़्त की आंच पर
मद्धिम-मद्धिम सी तली
पहले समोसा सी थी ज़िंदगी
और अब
मोमोज़ हो गई है।

मेरी पहली पुस्तक

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