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एक पोशीदा मौत




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मैं मर रही हूँ

मैं मर रही हूँ हौले हौले
एक पोशीदा मौत
इस बार जब मैं लौटी
वियतनाम से
छोड़ आयी अपनी आँखें वहाँ
जैसे छोड़ दिए थे
जापान में अपने कान
और सारनाथ में जिह्वा
क्या करुँगी इन सबका
जब बोलना ही नहीं
ग़लत को ग़लत
सुननी नहीं चीखें
एक गांधारी है न मेरे भीतर भी
यहाँ सब
एक बेचैन यात्रा में हैं
सभी को जल्दी है कहीं पहुँचने की
मैं रोक लेती हूँ सहसा
अपने चलते हुए कदमों को
हर बार यात्रा करते हुए,
मुझे रास आये
रास्ते
मंजिलों से अधिक
ज़्यादा चलना चाहा रास्तों पर
माँ के चेहरे की ज्यामिति
कितनी बदल जाती है
मेरे देर से पहुँचने पर
पापा का स्वर
अचानक ही सप्तम हो जाता है
मैं अपने ऊबड़ खाबड़ दाँतों के बीच
हल्का सा जीभ को काटते हुए
कल्टी मार जाती हूँ
कोई बहाना नहीं मेरे पास
देर तो कल भी होनी है
कल भी तो होनी है
एक और यात्रा
तुम बताना जरा
मंजिल पर पहुँच कर
कम होती रही तुम्हारी बेचैनी?
और लूट न सके यात्राओं का सुख भी
बंद न्यायालयों का भार सह सकने वालों को
आती होगी मौत यूँ ही
रोज थोड़ा-थोड़ा मरते हुए
जैसे मर रही हूँ मैं

शून्य से पहले

दायरारहित सोच के
बाहर का दायरा,
कल्पनारहित उड़ान के
बाद की कल्पना,
दर्दरहित जीवन के
अंत का दर्द,
प्रेमरहित मन के
पतझड़ का प्रेम,
गतिरहित आशा के
स्थिरता की आशा,
पड़ावरहित सफर के
दूरन्त का पड़ाव,
....महज कोरी कल्पनाएं नहीं
ये तो एक विराम है
शून्य है
इसके बाद स्थान लेती है
ऋणात्मकता....
मत जाइए शून्य तक
मत खोजिए नकारात्मकता
जीवन अंटार्कटिका नहीं यूरेशिया है
क्योंकि हर जीव पोलर बियर नहीं
कुछ मानव भी हैं।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php