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एक पिता की चुपचाप मौत

मूक हो जाते हैं उस पिता के शब्द
और पाषाण हो जाती है देह
जो अभी-अभी लौटा हो
अपने युवा पुत्र को मुखाग्नि देकर.
न बचपन याद रह जाता है
न अतीत की बहँगी में लटके सपने
आँखें शून्य हो जाती हैं
ब्रह्मांड निर्वात,
बूँद-बूँद रिसता है दर्द का अम्ल
हृदय की धमनियों से,
सब कुछ तो है
और कुछ भी नहीं है,
फफक पड़ती है मेरु रज्जु
किस पर झुकेगी बुढ़ापे में,
रिस जाती है फेफड़ों की नमी
किन हाथों में थमाएगा दवा का पर्चा,
सहसा ही निकाल फेंकता है
आँखों पर लगा चश्मा
कि बचा ही क्या दुनिया में देखने को;
अंत्येष्टि कर लौटा पिता
मरघट हो जाता है स्वयं में
हर आग चिता की तरह डराती है उसे,
चुकी हुई रोटी की भूख
चिपका देती है उसकी अंतड़ियाँ,
पल भर में लाश बने उस देह की आग ठंडी होने तक
मर चुका होता है पिता भी;
बची-खुची देह भी समा जाना चाहती है
किसी कूप में
जब जमाना करने लगता है
पाप और पुण्य का हिसाब-किताब.

तब भी हम होंगे...


PICTURE CREDIT:SHUTTERSTOCK

हमारे बाद हम...
क्या कहा
कहीं नहीं होंगे????
धत्त्तत..
तभी तो हम होंगे
जब भी खोलोगे यादों को
जंग लगी चूलें चरमराएँगी,
तुम उस बहँगी में लटके मुस्कराओगे,
न्यूटन की बातों में कितने टन का वजन था
हमें क्या पता
मगर बात पते की और वज़नी थी,
वो जो गुरुत्व होता है न
सारा का सारा आत्मा में होता है
ये तो धरती की छाती है
जो हमें रोके रखती है अपने ऊपर;
मन को भी न, समझो इसी तरह
चेहरे तो बहुतेरे देखे जीवन भर
हमसे अच्छे और सुंदर भी
पर आकर्षण तो मन का था,
और तब तुम
समझौते की तुला में
हमारा अपनापन न तोल पाओगे
कि हर आत्मा एक दिन निःश्वास होती है;
तुम्हारी चीखें घुट रही होंगी,
तुम तो विलाप भी न कर पाओगे
हमारी मृतप्राय काया पर,
जब हमें नहलाया जा रहा होगा
कफ़नाने को
तुम चिल्लाओगे...
'बहुत डरती है वो ठंडे पानी से..'
फिर हमारी स्थूल सी देह
बांस की डोली में लिटाओगे
शोक कम करने को
राम-नाम....बोलते जाओगे,
करने से पहले हमको अग्नि में समर्पित
तुम वो कड़वाहटें जलाओगे
जो हमको अक्सर रुलाती थीं,
कुछ हमारी गलतियाँ थीं
बाकी तुम्हारी ज़िद
जो आज बोल रही हैं,
हम कल तक एक हस्ताक्षर थे
आज दस्तावेज हो गए,
काश, कि साँसें रहते 
जीवन जी लिया होता!

मेरी पहली पुस्तक

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