एक पिता की चुपचाप मौत

मूक हो जाते हैं उस पिता के शब्द
और पाषाण हो जाती है देह
जो अभी-अभी लौटा हो
अपने युवा पुत्र को मुखाग्नि देकर.
न बचपन याद रह जाता है
न अतीत की बहँगी में लटके सपने
आँखें शून्य हो जाती हैं
ब्रह्मांड निर्वात,
बूँद-बूँद रिसता है दर्द का अम्ल
हृदय की धमनियों से,
सब कुछ तो है
और कुछ भी नहीं है,
फफक पड़ती है मेरु रज्जु
किस पर झुकेगी बुढ़ापे में,
रिस जाती है फेफड़ों की नमी
किन हाथों में थमाएगा दवा का पर्चा,
सहसा ही निकाल फेंकता है
आँखों पर लगा चश्मा
कि बचा ही क्या दुनिया में देखने को;
अंत्येष्टि कर लौटा पिता
मरघट हो जाता है स्वयं में
हर आग चिता की तरह डराती है उसे,
चुकी हुई रोटी की भूख
चिपका देती है उसकी अंतड़ियाँ,
पल भर में लाश बने उस देह की आग ठंडी होने तक
मर चुका होता है पिता भी;
बची-खुची देह भी समा जाना चाहती है
किसी कूप में
जब जमाना करने लगता है
पाप और पुण्य का हिसाब-किताब.

5 टिप्‍पणियां:

kuldeep thakur ने कहा…


जय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
13/10/2019 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......

अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
http s://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद

अपर्णा वाजपेयी ने कहा…

दारुण दुःख जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता....
एक पिता के लिए बेटे की मृत्यु से बड़ा इस संसार में कोई दुख़ नहीं...
द्रवित कर देने वाली रचना
सादर

अपर्णा वाजपेयी ने कहा…

दारुण दुःख जिसे शब्दों में बांधा नहीं जा सकता....
एक पिता के लिए बेटे की मृत्यु से बड़ा इस संसार में कोई दुख़ नहीं...
द्रवित कर देने वाली रचना
सादर

Roli Abhilasha ने कहा…

देर से पढ़ने के लिए क्षमा चाहती हूँ.
बहुत आभार आपका 🙏

Roli Abhilasha ने कहा…

सही कहा सखी!

मेरी पहली पुस्तक

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