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मेरी प्यारी मेट्रो



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ए मेट्रो, तूने कितना कमज़र्फ
इंसान बना दिया
हज़रतगंज को हल्दीघाटी का
मैदान बना दिया


जब तेरी बनाई भूलभुलैया सी
गलियों से गुजरते हैं
तब अपने ये आलाकमान हमें
बिल्कुल औरंगज़ेब से लगते हैं
दिलकश तहज़ीब के शहर को
बेजान बना दिया।

तू सुबह की नींद ले गयी
हर रोज़ जाम का झाम देकर
खुद आकाश-पाताल की सैर करे
हमें वादे तमाम देकर
मगर ऐ महज़बीं, तूने झूठ बोलना
कुछ और आसान बना दिया।

क्या करूँ आहट भी तेरी
सबको बहुत लगे खूबसूरत
लोग कहते हैं शहर को थी
एक तेरी बहुत जरूरत
ज़मीं की है तू, ज़मीं पे ही रहना
दिल को तेरा अरमान बना दिया।

अब तो आ ही गयी हो तुम
दिल से इस्तक़बाल है तुम्हारा
हम तो तुमपे दिल हारे हैं
बोलो क्या ख़याल है तुम्हारा
अपने भाव ज़रा कम ही रखना
एंटीक नहीं तुमको साजो-सामान बना दिया।


मेरी पहली पुस्तक

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