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आईने वाली राजकुमारी: भाग IV


चेतक हवा से बातें कर रहा और राजकुमारी स्वयं से. उनका मन उलझनों से घिर रहा था और वो उड़कर महल तक पहुँचना चाहती हैं. महल में पहुँचते ही सर्वप्रथम रानी माँ के गले लग जाएँगी और उन्हें विस्तार से बताएँगी कि उनके साथ क्या-क्या घटित हुआ. जीवन के अठारह वर्ष यही तो करती आयीं हैं. माँ के अंक में शिशु की भाँति समा जाना. विह्वल सी होकर चेतक को एड़ पर एड़ लगाए जा रहीं थीं. सहसा ही चेतक की धीमी होती गति ने संकेत दिया, महल समीप ही है. मुख्य द्वार के सामने पहुँचते ही राजकुमारी चेतक को सैनिक के हवाले कर भीतर की ओर भागीं.
"तुम चेतक के साथ दौड़ की स्पर्धा करने गयीं थी क्या?"
"क्यों माँ सा, आपने ये प्रश्न क्यों किया? हम तो चेतक की लगाम थामकर उड़ते चले आए"
"तुम्हारी बढ़ी हुई श्वांस को देखकर कहा. कहीं कुछ अघटित तो नहीं घटित हुआ?"
"कैसा अघटित माँ सा? वैसे भी जो होता है वो पूर्व निर्धारित ही होता है फिर उसे अघटित क्यों कहें?"
"आज अपनी प्रथम यात्रा में ही ऐसा प्रतीत हो रहा कि तुम बहुत कुछ सीखकर आयी हो" रानी माँ ने विस्मय से राजकुमारी के नेत्रों में देखकर कहा. इस पर राजकुमारी मौन होकर दूसरी ओर देखने लगीं…'लग रहा माँ सा ने हमारा चेहरा पढ़ लिया' आगे कुछ भी बोलना उन्होंने उपयुक्त नहीं समझा. नन्हा सा मन इसी क्षण बड़ा हो गया कि उसने पलों में समस्या सुलझाती माँ सा के सामने असत्य का सहारा लिया. उन्हें भान हो गया यदि माँ सा को सारी बात पता चली तो अकेले नहीं जाने देंगी. राजकुमारी को अभी इसका आभास कहाँ कि अपनों के सामने बोला गया पहला असत्य उन्हें कठिनाइयों के हाथ को कठपुतली भी बना सकता है.
"माँ सा हमें थकान हो रही"
"जाओ विश्राम करो" इतना सुनते ही राजकुमारी अपने कक्ष की ओर बढ़ी. उन्हें विश्राम से अधिक एकांत की आवश्यकता थी. जल- प्रक्षालन कर अपने शयनगृह में आ गयीं. न चाहते हुए भी आँख बंद करने पर "वो" राजकुमारी की यादों में आ गया. उन्होंने झट से आँखें खोल दीं. सिरहाने जल रहे दीये की बाती पर तर्जनी रख दी. शयनगृह अंधेरे की आभा से आलोकित हो उठा और वो उन स्मृतियों से…'किसी चेहरे में इतना आकर्षण कैसे हो सकता है'...उनके मन का एक भाग उस ओर खिंच रहा था जिसे वापस लाने का निरर्थक प्रयास वो करती रहीं. कभी उजाले से भागकर तो कभी अंधेरों में स्वयं को समेटकर. स्नेह की एक अनदेखी डोर पर मन बावरा हो चला. शब्द तो नकारे जा सकते थे पर मन के भाव नहीं. उनकी सोच में तो यह तक आ गया कि...उसने कुछ देर और रुकने को उन्हें विवश क्यों नहीं किया!

आईने वाली राजकुमारी: भाग III


गतांक से आगे--


"तो आप द्वैत गढ़ की राजकुमारी हैं?" उन अपरिचित ने प्रश्न कर राजकुमारी का ध्यान भंग करने की चेष्टा की.
"हम किन शब्दों में अपना परिचय दें तो आप समझेंगे?" राजकुमारी ने भी पलटवार किया.
"आप अपनी जिह्वा को अधिक विश्राम नहीं देती हैं?"
"आप प्रश्न अधिक नहीं करते हैं?"
"हमें आपके प्रत्युत्तर भाते हैं"
राजकुमारी के नेत्रों में न परन्तु हृदय पर हाँ की छाप लग चुकी थी.
"आप यहाँ आती रहती हैं क्या?"
"हम क्यों बताएँ?"
"हम पूछ रहे क्या ये कारण पर्याप्त नहीं?"
"आप तो हमसे ऐसे कह रहे जैसे हमारे सखा हों!"
"आप हमारी सखी तो हैं"
"हमने कब ऐसा कहा? हम तो आपसे बात भी नहीं कर रहे"
"बात तो आप अब भी कर रहीं और तो और हमें अंजुरि में जल भरकर दिया"
"बात करने का तो कुछ और ही प्रयोजन है और जल देकर तृष्णा बुझायी"
"आपको देखते ही रेत का एक जलजला हमारे भीतर ठहर गया और आप कहती हैं तृष्णा बुझ गयी"
"आप हमें बातों के जाल में उलझा रहे हैं"
"आपके नेत्रों ने हमारा आखेट किया है"
"यह कैसा आरोप है?"
"क्या प्रमाण नहीं चाहेंगी?"
"---"
"हमें अनुमति दीजिए कि हम आपके हृदय के स्पंदन की अनुभूति कर आपको प्रमाण दे सकें!"
"हमारा हृदय...स्पंदन...प्रमाण...बेसिरपैर की बात कर रहे हैं आप"
"विवाद नहीं सुंदरी अनुभव कीजिए"
इतना सुनते ही राजकुमारी के हृदय का स्पंदन गति पकड़ने लगा. स्वयं को बचाने के प्रयास से वहाँ से वापस जाना ही उपयुक्त लगा.
"कहाँ चली सुंदरी...सुनिए तो...हम पूर्णिमा की संध्या यहीं झील के किनारे आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आपको आना ही होगा अगर हमारे चन्द्रमा से मिलना को प्रतीक्षारत हैं आप..."
राजकुमारी ने जाते हुए इतना सुन लिया था. तेज गति से चेतक की ओर भागी. बैठते ही एड़ लगायी और चैन की साँस ली.
अगला भाग पढ़ने के लिए कल तक की प्रतीक्षा...

आईने वाली राजकुमारी: II


राजकुमारी इठलाती हुई महल से बाहर आ गयी. कुछ हो क्षणों में उनका चेतक हवा से बातें करने लगा. पालकी और चेतक दोनों एक-दूसरे के विपरीत पर उनमें से किसी को भी एक-दूसरे के साथ की आवश्यकता ही कब थी. वो तो रानी के आदेश का पालन करना था. राजकुमारी आज अपने प्रथम भ्रमण में इतनी उन्मुक्त होकर विचरण कर रहीं थीं. कभी उड़तीं तो कभी रुककर सुरम्यता को अपलक निहारतीं. आज का भरपूर आनंद ले रही थीं. ठीक मयूरी विहार के सामने पहुँचकर चेतक को एड़ लगायी. उतरते हुए उसकी पीठ पर थपकियां दीं जो कि आभार है इस प्रथम सैर के लिए. सामने झील से कल-कल करते हुए पानी ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और वो मंत्रमुग्ध हो उसी ओर भागीं. ऊपर से गिरते हुए स्वच्छ जल से अठखेलियाँ करने लगीं. तभी विपरीत दिशा से आई आवाज ने उनका ध्यान खींचा…
"पीने को जल मिलेगा सुंदरी?" अनजानी आवाज ने उन्हें चौंका दिया. पीछे मुड़ते ही एक छबीला, गहरे नयन-नक्श वाला युवक सामने था. जिसके चेहरे पर अप्रतिम आभा थी...जल भूलकर वो राजकुमारी के सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया.
"बड़े निर्लज्ज प्रतीत होते हो!" राजकुमारी के इतना कहने पर भी उसने पलकें नहीं झपकायीं. राजकुमारी ने अपनी म्यान पर हाथ रखा ही था तभी चेतक की हिनहिनाहट ने दोनों का ध्यान खींचा.
"सुंदरी...जलपान करना है"
"यह क्या आप सुंदरी-सुंदरी कह रहे हैं. हम द्वैतगढ़ की राजकुमारी हैं. यह झील अथवा झरना हमारी सम्पत्ति नहीं. आप स्वयं जाकर जल लीजिए"
"हम निर्लज्ज तो नहीं आप निर्मोहिनी अवश्य प्रतीत होती हैं. एक भटकते हुए पथिक पर तनिक भी दया नहीं"
"दया या निर्दयता का कोई प्रश्न ही नहीं. आइये हमने चश्मे का स्थान रिक्त कर दिया. जल ग्रहण कीजिए"
"ऐसे नहीं राजकुमारी हम तो आपकी अंजुरि से ग्रहण करेंगे"
"आप तो बहुत हठी प्रतीत होते हैं"
"हठी नहीं राजकुमारी हम एक श्राप के भय से ऐसा कह रहे हैं. अगर हमने यह बहता हुआ पानी अपनी अंजुरि में लिया तो हम पत्थर के हो जाएंगे" यह सुनकर राजकुमारी का मन पिघल गया और वो उन अपरिचित युवा को अंजुरि में भरकर जल पिलाने लगीं. दोनों एक-दूजे को स्नेहमयी होकर तकने लगे.
वेश भूषा और वार्तालाप से पूरा संकेत मिल रहा था कि वो एक साधारण व्यक्ति न होकर राजकुमार हैं.

कल पढ़िए इसका अगला भाग

आईने वाली राजकुमारी


बात यही कोई एक सौ साल पुरानी है द्वैतगढ़ में एक राजकुमारी रहा करती थी जो अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती थी. उनके अधरों पर प्रशंसा के कितने ही गीत लिखे गए जो यदाकदा उनके कत्थई नेत्रों के सामने से आए गए परन्तु उनके गुलाबी गालों को सम्मोहित न कर सके. अपने भाई सा से उन्होंने तलवार चलाना बस इसलिए सीखा कि उनकी ओर उठने वाली लालसा भारी निगाह को वो सबक सिखा सकें. प्रतिभा और सौंदर्य से पूर्ण होने के बाद भी गर्व किंचित उन्हें स्पर्श तक न करता था. महाराज, महारानी और युवराज की लाडली राजकुमारी को बस इसी बात का दुःख था कि उन्हें कहीं भी अकेले जाने की अनुमति नहीं मिलती थी.
एक दिन राजकुमारी अपने भवन में उदास बैठी थी. दासी ने इसकी सूचना महारानी को दी. महारानी उस समय अपना शृंगार करवा रही थीं परन्तु सब छोड़कर भागीं. माँ को आया देख राजकुमारी ने उनकी ओर अपनी पीठ घुमा दी.
"पुत्री, ऐसा मत करो. पीठ तो शत्रु को दिखाने का रिवाज है"
"तो आप आज ये प्रमाणित कीजिए कि आप हमारी मित्र हैं"
"तो इसके लिए क्या करना होगा हमें?"
"हम आज मयूरी विहार जाना चाहते हैं, आप अनुमति दीजिए"
"बस कुछ क्षण प्रतीक्षा कर लो. तुम्हारे भाई सा आ रहे होंगे"
"नहीं, हम अभी इसी क्षण और अपने चेतक पर अकेले जाना चाहते हैं"
"यह इच्छा हम पूरी नहीं कर सकते"
"तो आप हमारी मित्र नहीं. हम अठारह बरस के हो गए. समझदार हैं. निडरता और चतुराई के कौशल से पूर्ण हैं परंतु इस महल में ही बंद होने को विवश हैं"
"यह मत भूलो कि तुम सौंदर्य कला से पूर्ण एक युवती भी हो"
"परन्तु अपनी सुरक्षा तो कर सकते हैं"
"कुछ भी हो… ममहाराज के आने तक तुम्हें ठहरना ही होगा"
"ठीक है हम भी अब अन्न जल तब तक नहीं ग्रहण करेंगे, जब तक महाराज नहीं आते"
"पुत्री तुम नाहक ही वाद कर रही हो"
"माँ सा… हमारा चेतक बाहर प्रतीक्षा कर रहा"
बहुत अनुनय विनय के पश्चात महारानी इस शर्त पर मानी कि राजकुमारी के घोड़े के साथ उनकी पालकी भी जाएगी और उसमें दासियाँ होंगी. माँ सा का हाथ चूमकर राजकुमारी ने हामी भर दी.

अगला भाग जल्दी ही...

मेरी पहली पुस्तक

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