Wikipedia

खोज नतीजे

प्रेम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्रेम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

हमारे रास्ते


यूँ ही अलग अलग रास्तों से
फिर कभी मिल जायेंगे

तुम जम्हाई बोना मेरे चेहरे पर
अपने पास बिठा लेना
हम ख़्वाब में भी बस तुम्हें
हाँ तुम्हें गुनगुनायेंगे

वो जो कविता गायी थी
तुमने एक रोज मेरे लिए,
उसके सुरों से एक सड़क बनायी है
उसके इर्द-गिर्द तन्हाई बिछायी है
हम चलेंगे एक दिन उस सड़क पर
साथ-साथ

यूँ ही अलग अलग रास्तों से
फिर कभी हम मिल जायेंगे

संगीत के सादा नोट की तरह

प्रेम में मैं

तुम्हें पढ़ा ही कितना है मैंने अमृता
मग़र कहीं होतीं तुम मेरे आसपास
तो यक़ीनन तुम्हें प्रेम कर बैठता
इतना प्रेम जितना इमरोज भी न कर पाया हो
मेरी माँ की कोख ने मुझे कहाँ
प्रेम को जन्म दिया था
चढ़ते घाम का हर घूँट
ढ़ुलकती चाँदनी का रूप
उदरस्थ किया मैंने
प्रेम का नाम लेकर
सर्द पहाड़ों पर फहरायी है पताका
प्रेम की हवा गुजारने को मैदानों में,
मेरे भीतर का मैं नामालूम सा हूँ
तुम चाहो तो खोज लो मुझे
देवदारों से चिनारों तक
शीत, उष्ण, बयारों तक

चंद क्षणिकाएँ

 



•प्रेम

ऐश्वर्य के पाँव में पड़े

छालों का नाम है


•नदियाँ धरा का सौंदर्य हैं

और पड़ाड़ो तक पहुँचने का

सुगम मार्ग


•दर्द के मार्ग पर

चलते हुए

प्रिय का प्राकट्य होता है


•कोई तो है

जो इस सृष्टि पर

दृष्टि रखे है


•प्रेम में

तुम्हें याद करना ही

मेरे प्रेम की अधिकतम सामर्थ्य है


तिल वाला लड़का

उसके दायें कंधे पर तिल नहीं था मगर ये तो बस उसे पता था. मुझे इतना मालूम है कि आज लिखने की मेज पर जब बैठी तभी अचानक मेरे मन में एक रुमान उभरा...अगर प्रेमी के दायें कंधे पर तिल हो, प्रेमिका अपने होंठ उस पर रखे तो प्रेमी के मन की सिहरन मेरी कविता के पन्नों को कितना गुलाबी कर सकेगी...
फिर क्या लोगों ने आँखों के खंजर से कुरेदना शुरु किया अब उसके दायें कंधे पर तिल होने से कौन रोक सकता है. तिल काला हो, भूरा हो या लाल क्या फर्क पड़ता, गुलाबी मोहब्बत ने तो जन्म ले लिया.
वो मोहब्बत नहीं जो दिल से आँखों में उतरकर स्याही बनी बल्कि वो मोहब्बत जो क़ागज़ पर बिन आग के धुएँ सी जली. हाँ, ये और और बात है कि तुम अपनी गर्दन पर हाथ फेरकर सोच रहे होगे कि कहानियों के रुमान में भीगी पागल सी लड़की कहीं इसी तिल की बात तो नहीं कर रही!

चाय के बहाने प्यार

आओ उफानते हैं
केतली भर प्यार आज
कविता दिवस के दिन
तुम मेरी बाहों में सोना
मैं सर रख लूँगी अपना
तुम्हारे सीने पर,
उबलते रहेंगे
हम दोनों के मन देर तक
पका लेंगे उसमें
प्यार, नोकझोंक,
तकरार की मीठी बातें
और छान लेंगे
एक दूसरे के मन में;
कड़वाहटें अलग करके

प्रेम का संत्रास

*****

तुम्हारी चुप्पियों का विस्तारित आकाश

भर देता है मुझे दर्द के नक्षत्रों से

आकाश गंगा की समग्रता

भंग करती है मेरी एकाग्रता और

पैदा करती है मुझमें एक नयी चौंक

बात-बात पर इतनी सजग तो कभी न हुई मैं

मैंने देवदार के पत्तों पर भी

अपना मन भर आहार जिया है

मैं रखना चाहती हूँ उस पर अपना बड़बोलापन

कितनी भी प्रेम की गागर भर लूँ मन में

थाह गहरी तो तुम्हारे मौन की रही है सदैव

भुला दी हैं तुमने मुझे वायुमंडल की समस्त भाषाएँ

रात्रि की मेरुदंड पर अधाधुंध दर्द लिखती हूँ

क्यों देखते हो तुम उसे कलंक

मैं सोना चाहती हूँ मृत्यु की एक पूरी नींद

तुम जागकर भटकते रहते हो मुझमें

इतना कि बन जाते हो मेरी सुबहों का मंगल

मैं औषधि का प्याला बढ़ाती हूँ तुम्हारी ओर

तृप्त होऊँ तुम्हें पीते देखकर और

ले लूँ चुम्बन तुम्हारे अधरों का

अमरत्व चखना है मुझे सृष्टि का

तुम्हारे होने तक उत्सव मना सकूँ मैं भी.

तुम्हारे मन का गृहस्थ मौन है न

और मेरे मन का सन्यास, मोह भर उपजी पीड़ा.

प्रेम में जोगिया

 न मिले सात सुर

न सप्तपदी हुई

साँस प्रेम की

हर साँस ठहरी रही


सुमिरन करुँ

प्रेम में मैं प्रवासी

मन को पाषाण

कर देह सन्यासी


जोगिया मुझसे मिलना

जब मिले देह काशी

घाट मणिकर्णिका

क्लांत पथ कोस चौरासी

प्रेम में एकलव्य

 मैंने कभी नहीं सोचा था

मेरे भीतर प्रेम का एकलव्य सर उठायेगा

और मैं तुम्हें सौंपती रहूँगी अपना वादा

फिर एक दिन तुमने कुछ नहीं कहा

और तमाम दिन बीतते रहे

तुमने देने बन्द कर दिए शब्दों के शर

प्रेम में पूर्णता को आहुत होने

मैं तुम्हारे प्रेम की मूर्ति पूजती रही

तुम्हें अपना गुरु मानकर;

नियति ने तुम्हारे मौन को खण्डित किया

"प्रेम में उर्ध्वगामी बनना होगा तुम्हें

तुम मुझसे भी आगे बढ़ो" तुम्हारे आशीर्वचन

मेरा छिन्न-भिन्न 'मैं' आज तक न समझा

कि प्रेम में पुरस्कृत हूँ या तिरस्कृत!

एक बार फिर लोगों ने मुझमें एक नए

एकलव्य को जन्म दिया, ये कहकर

कि गुरु ने दक्षिणा में प्रेम ही ले लिया...

सिगरेट चुम्बन है

 हर रात वो

लाइटर की आग से

जलाती है

कागज़ के चंद टुकड़े

और अपने मन को

समझाती है अक्सर

कि उसने जला दी अपनी

अंतिम प्रेम कविता भी;

देर तक काले टुकड़े

हवा में तैरते हैं

और उसे टीसते हैं

सिगरेट से भीगे होंठ.

तितिक्षु प्रेमी

मैंने इमरोज़ नहीं चाहा

न ही उसकी पीठ

तुम्हारा नाम उकेरने को,

तुम साहिर भी मत बनना

शायद ही कभी मैं

चूल्हे पर चढ़ा सकूँ

तुम्हारे नाम की चाय

बस यूँ ही बने रहना

मेरी सुबह, मेरी शाम और रात

मेरी आत्मा के साथी.

श्वेत से लाल गुलाब तक का सफ़र

उँगली पर गिनने भर को ही दिन हुए थे शादी को हमारी. मेरा जीवन उसकी ख़ुश्बू से महकता इससे पहले ही मेरे जीवन की सुहागरात हो गयी थी. एक-दूसरे को स्पर्श करना तो दूर हमने आँख भी नहीं मिलायी. सात फेरों के साथ उसे अपना बनाकर लाया था. मेरा ध्येय उसकी देह नहीं था. अपनी भावनाएँ मार चुका था. अब कर्तव्य की बारी थी.

बहुत हिम्मत जुटाई मैंने उसकी तरफ श्वेत ग़ुलाब बढ़ाया ये कहकर कि इसमें जो चाहे रंग भर ले.

उसने साड़ी का पल्लू आगे बढ़ाया, "इसे श्वेत ही रहने देते हैं."

स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी. मेरे चेहरे पर पसरी थकान ने देह को निढ़ाल कर दिया. रात लगभग दो बजे नींद खुली तो बिस्तर का वो स्थान रिक्त मिला. कमरे का पूरा सामान अपनी जगह था बस वो श्वेत ग़ुलाब छोड़कर.

मुझे चंद रात दीं पर उसी चाँद रात वो उठकर चली गयी थी.



तीन महीने की अनुभूति और तीन रातों की देखा-देखी बस जब संग इतना सा ही था तो मन शीघ्र ही उचाट होने लगा. घर पर भी मैं कम समय रुकने लगा. दीदी बात-बात पर परेशान हो उठती. पापा मुझसे कुछ नहीं कह पाते तो मेरे हिस्से का भी वो ही सुनती. सौभाग्या के साथ शेष समय बीतता रहता. कभी टी वी तो कभी उसकी तोतले स्वर में कहानियाँ बस यही चलता. खाने की मेज पर पसरा सन्नाटा और अधिक है अब. आँखों में पनपी अपेक्षा ने इसे बढ़ाने का काम किया. पहले से ही मैं कोई बहुत अधिक उत्सुक नहीं रहा विवाह को लेकर. काम के स्थान से लेकर मित्रों तक यही शिकायत रही कि सब कुछ अकेले ही कर लिया. वो तो अच्छा हुआ कि सब कुछ अकेले ही हुआ. अनुमेहा कहानी बनने से बच गयी.


खाने के बाद सौभाग्या से कुछ वार्तालाप और सोने की बारी. सौभाग्या रोज की तरह अपनी मामी का सामान देखने लगी. कितने मन से पापा ने हर उस सामान से कमरा भर दिया था जिसकी आवश्यकता अनुमेहा को होती. उसके पापा को स्पष्ट बोल दिया था कि वो अपनी बेटी को बस उन कपड़ों में विदा करें जिन्हें पहनकर वो हमारे घर में अपने शुभ क़दम रखेगी. आज भी सौभाग्या मुझसे कह कर सोने गयी कि सुबह होते ही मैं उसकी मामी को लेकर आऊँ.


एक अनचीन्हा सा स्पर्श मेरे पास क्यों रहता है अब तक. तीन महीने हो गये. न तो कोई उसका कोई साथ न ही मुड़कर आने की सूरत. पापाओं की वार्तालाप भी इस बात पर आकर समाप्त हो गयी कि ईश्वर ऐसी बेटी किसी को न दे.


मैं स्मृतियों में था तभी व्हाट्सएप संदेश की बीप हुई. रात १० बजे कौन ही याद करता तो कौतूहल वश उठाकर देखा. अपरिचित नम्बर से आये 'हेलो' का उत्तर दिया तो उधर से पुनः सन्देश आया…*कल समय हो तो हम मिलते हैं.

मेरी आँखों में विस्मय तैर गया. मेरे 'न' कहने पर उधर से कई संदेशे एक साथ आये पर कोई गुत्थी न सुलझी तो मैंने फोन बंद कर किनारे रख दिया. सुबह देखा तो अंतिम संदेश…*तुम्हारा दिया हुआ उपहार 'श्वेत ग़ुलाब' तुम्हें लौटाना है. नीचे पता लिखा था.


बहुत कुछ याद आ गया मुझे. जैसे समय आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा झकझोर देता है और मैं चुपचाप समर्पण कर देता हूँ. सर्दियों की कड़कती हवा मेरे आसपास दर्द का मफ़लर… बस यही रह गया जीवन. अनमना सा मैं मिलने चला गया. शिफॉन की ग़ुलाबी खुले पल्लू में साड़ी के अंदर जैसे दूध और हल्दी मिश्रित कोई प्रतिमा रख दी गयी हो. अनु...मेह...मेरे स्वर को वाक तंतु ने उच्चारित होने के पहले ही अंदर खींच लिया. चेहरे पर भाव नदारद थे और शृंगार भी. माथे पर कुमकुम की बिंदी. अधर तो स्वयं ही लाल इनको लाली की जरुरत कहाँ! गर्दन की लंबाई की परिधि में लटकता हुआ मंगलसूत्र नाम का धागा अब भी है. साहस जुटाकर पैर भी देख लिए. तसल्ली की कुछ बूँदें मन को तर कर गयीं कि दोनों पैरों की उँगलियों में बिछिया भी. उसकी चंचल सी आँखें यहाँ-वहाँ जाने क्या देख रही थीं, एक बार तो मेरी आँखों में देखते ही हट गयीं. झुकी तो नहीं पर कहीं और ही घूमती रहीं.


हाय-हेलो की औपचारिक सी अनौपचारिक बात हुई. मेरे पास बोलने को कुछ नहीं था.


"जानते हो मैंने सोचा था जब हम मिलेंगे तो कोई और बात नहीं करेंगे." उसने चुप्पी तोड़ी.


"जब नहीं मिले तब भी कोई बात हुई क्या हमारे बीच?" मेरे इतना कहते ही वो चुप हो गयी.



"हमारे बीच कोई और बात न होने का कोई मतलब भी है." जाने क्यों वो घुमाना चाह रही थी.


"कोई बात होती तो क्या कोई फ़र्क पड़ने वाला था?" मैंने पूछ ही लिया.


"तुम ऐसा क्यों सोचते हो?"


"बिकॉज़ यू नो इट वुडन्ट हेल्प." मैं बाहर आकाश में छितरे बादलों को देखने लगा. शीशे की खिड़की से बाहर दिख रहे बादलों का रंग और मेरे सामने बैठी औरत का रंग मुझे एक समान लग रहा था. समझ नहीं पा रहा हूँ नीला कहूँ या स्याह. होटल पैराडाइज इन जितना अपनी भीतरी साज-सज्जा के लिए प्रसिद्ध है उतना ही बाहर दिखते मनोरम दृश्य के लिए भी. मुझे घुटन सी हो रही है. उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दे पाया.


"क्या हमें अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए?" उसने पुनः मौन तरंगों पर प्रहार किया.


"हाँ हाँ क्यों नहीं!" मैं तो जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था.


"तुमने मुझसे नहीं पूछा तो मैं ही बता देती हूँ."


"क्या?"


"यही कि मैं किसी से प्रेम करती हूँ." ठंडी हवा का झोंका मेरे कानों को चीरता हुआ निकल गया. क्या यही बकवास करने के लिए मुझे बुलाया था! अपने मन से ही पूछ बैठा मैं.



"अब अगर किसी और से प्रेम करती हो और अपने वैवाहिक जीवन को प्रयोग की वेदी पर रख ही चुकी हो तो चली क्यों नहीं जाती उसके पास? क्या लेने आयी हो मेरे पास? क्यों बुलाया मुझे? क्या यही सब सुनाने के लिए? बोलो...है कोई उत्तर तुम्हारे पास?" मेरा स्वर तीब्र और तेज भी हो गया था. गुस्से से मेरा चेहरा तमतमा गया. ये सच है कि उसकी ओर से ऐसा ही कुछ प्रत्याशित था परंतु सच को इस तरह सुनकर मैं स्वयं को सम्हाल नहीं पाया. मेरे कहने के दो मिनट बाद भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो मैंने उसके चेहरे की ओर देखा.


यह क्या! उसके चेहरे पर तो सादगी पसरी है जैसे मेरी बात का कोई प्रभाव ही नहीं. मेरे पीछे के खुले आसमान को देखकर पढ़ने का प्रयास करती सी लग रही थीं उसकी आँखें. मेरी आँखों के लगभग २० डिग्री के अंतर पर होने के कारण मैं अब अच्छे से उसका चेहरा देख पाया. आँखों के नीचे गहरे काले घेरे उभरे हुए, उसने इन पर शृंगार की कोई परत भी नहीं चढ़ायी है. एक बार मेरा मन बोला भी कि प्रेम करने वालों का तो ये चेहरा नहीं होता पर मैं गलत भी हो सकता था इस बात से सहानुभूति की एक लहर दौड़ गयी मेरे अंदर. उसका नितांत मौन हो जाना अखर गया. मैं पुनः बोल पड़ा.


"कुछ और या कहानी ख़त्म?"


"कैसे ख़त्म हो जाने दूँ अपने प्रेम की कहानी?"


"तो जाओ न उसी के पास. क्यों आयी हो यहाँ?"


"इसके लिए मुझे तुम्हारी मदद चाहिए होगी."


"कैसी मदद?"


"मैं जिसके साथ प्रेम संबंध में हूँ वो शादीशुदा है."


"अच्छा...और तुम यहाँ मेरी मदद माँगने आयी हो? क्या समझा है तुमने मुझे...तुम्हें क्या लगता है मैं एक साथ इतनी ज़िन्दगी ख़राब करुँगा?"


"तुम मुझे ग़लत समझ रहे. हम लोग बहुत दिनों से प्रेम में हैं. ऐसे कैसे छोड़ दूँ?"


"फिर तुमने मुझसे शादी क्यों की?"


"मेरे पास कोई रास्ता नहीं था. मुझे पता था कि मैं तुम्हें मना लूँगी पर…"


"पर क्या?...बोलो? और ये बातें तो तुम घर छोड़े बग़ैर भी कह सकती थीं."


"जब उसने ख़ुद शादी की तो उसे मेरी इतनी याद नहीं आयी जितनी मेरी शादी होने के बाद आयी. शायद मेरा तुम्हारी बाहों में सोना उसे अखर जाता तभी उसने मेरी शादी की रात ही मुझे अपने प्यार का वास्ता देकर समझाया और मैं ख़ुद को रोक नहीं पायी." उसकी बात सुनकर मेरे पैरों के तलवों में सुइयां सी चुभने लगीं जैसे किसी ने दोनों पाँव बाँध दिए हैं. ठण्ड कानों को सुन्न कर चुकी है. अपनी कुर्सी से उठकर किसी तरह शीशे तक गया. छूकर देखा सब कुछ ठीक है.


"तुम्हें शारीरिक रुप से कुछ नहीं हुआ है. तुम स्वस्थ हो. जब हम कोई अप्रत्याशित बात सुन लेते हैं तो सभी के साथ ऐसा ही होता है. कुछ बातों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक उद्दीप्त होता है." ज्ञान की प्रयोगशाला बोलती हुई मेरे पीछे आ गयी.


'ये जिसे शॉक समझ रही ये तो एक तरह से शॉक थेरेपी है मेरे लिए पर इसे क्या पता' मैं अपने आप से बड़बड़ाया. उसकी बातों का मेरे पास न तो कोई उत्तर था न ही समाधान. मैं बाय कहकर तेजी से दरवाज़े तक आया.


"इस श्वेत ग़ुलाब का क्या करुँ मैं?" उसकी आवाज़ पर पीछे मुड़ा.


"काले रंग से रंग लेना." सहसा ही मेरे मुँह से निकल पड़ा. दस मिनट पहले का चेहरा अपनी आभा खोता दिखा. पहली बार आँखें मिलीं. बहुत से प्रश्न-उत्तर थे दोनों के बीच. मन में आया एक बार उसे अपनी अनु कहकर पुकारुँ. पूछूँ कि इस तरह किसी के पीछे लगकर अपना जीवन क्यों मिटा रही. जिसे छोड़ना था वो छोड़ गया पर मैं हिम्मत न जुटा पाया.


"पूछोगे नहीं कुछ?" शायद उसने मन की सुन ली.


"...न...नहीं." अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए मैंने सधा सा उत्तर दिया. सामने ग़ुलाबी सूत में लिपटी 'स्त्री' कोई और नहीं मेरी अर्धांगिनी है. बहुत सी भावनाएँ मचल उठी. भागकर उसे सीने से लगा लेने का मन हुआ पर अहम ने रोक लिया. आज पहली बार मेरे हृदय में रिश्ते की आग भड़की थी. उसने अपना बायाँ हाथ आगे किया और मैंने दाहिने हाथ से उसे थामकर गले से लगा लिया. आज पहली बार पब्लिक प्लेस में मैंने किसी स्त्री का चुम्बन लिया. मेरे मन की दृढ़ता साक्ष्य है इस बात की कि परिणय प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है.


सहसा ही एक झिझक ने आ घेरा मुझे. ये तो वही है जिसने मुझे धोखा दिया. मैं ऐसा कैसे कर सकती है.


"व्हाट हैपेंड?" मेरे अलग होती ही वो बोली.


"हमारे बीच कुछ हो भी सकता है क्या?" मैं बड़बड़ाया.


"वो हो चुका जो होना था. अब तुम उस फीलिंग से इनकार नहीं कर सकते जो हमारे बीच अभी पनपी." मैं कौतूहल से उसका चेहरा देखने लगा. सच का दृढ़ भाव दिखा वहाँ. वो सच जो मैं न बोल पाता और शायद डिज़र्व भी नहीं करता.


"मैं यहाँ एक पल भी नहीं रुक सकता. बहुत घुटन हो रही है."


"चलो कहीं खुले में चलते हैं."


चहलकदमी करते हुए हम बाहर निकल आये. दोनों ही शाँत हैं सम्भवतः पानी में जो पत्थर कुछ देर पहले उछला था वो नीचे बैठते ही पानी को स्थिर कर गया. चलते-चलते कई बार अनु मेरे बहुत पास आ जाती और उसकी साड़ी लहराती हुई मुझे छू जाती. मैं बिना किसी झिझक कदमताल कर रहा. कुछ दूरी पर एक नेवला देखते ही वो डर गई. उसने मेरी कुहनी के भीतर से अपनी कुहनी का घेरा बना लिया. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं इतना सहज कैसे हो सकता हूँ.


"मुझे पीला रंग बहुत पसंद है और तुम्हें?" उसने मेरी तरफ प्रश्न उछाला. मैं समझ गया अब ग़ुलाब अपनी रंगत बदलने वाला है.


"जो तुम्हें पसंद." वो खिलखिलाकर हँसी. मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया कि आज मैं कितने दिनों के बाद किसी के मुस्कुराने का कारण बना हूँ. अगले ही पल सीने में कुछ कचोटता सा लगा.


"कुछ देर बैठते हैं." वो बेंच देखते हुए बोली.


"तो क्या आज ऑफिस न जाऊँ?" मैंने घड़ी पर नज़र डाली.


"अब कैसे जाओगे?" उसके प्रश्न को ही मैं उत्तर मान बैठा. बेंच पर वो मेरे पास ही बैठ गयी. मैंने सिर टिकाकर आँखों को बंद कर लिया. उसके और मेरे बीच हवा आने भर का फासला है पर उसके अहसासों से एक छुअन मिल रही है. आज वो साथ है तो अच्छा लग रहा...क्या मुझे पत्नी का ही सामीप्य चाहिए? अपने आप से ही कई प्रश्न कर रहा है मन. अपने माथे पर किसी स्पर्श के अनुभव के साथ आँख खोल दी तो देखा वो अपने रुमाल से कुछ साफ कर रही.


"देखो न चिड़िया की बीट…"


"और तुमने अपना रुमाल ख़राब कर दिया."


"तो क्या उसके लिए कोई दूसरी लाओगे?"


"दूसरा गंतव्य तो तुमने देखा है."


"हम्म…"


"अनु...तुमने क्या सोचा?"


"यही कि जब तुम भी मेरा साथ नहीं दोगे तो मैं ही उस पर प्रेशर करुँगी कि डाइवोर्स देकर मुझे अपना ले."


"तुम्हें क्या लगता ये सब इतना आसान है? वो मान जायेगा तुम्हारी बात? उसकी शादी हो गयी. वो अपनी लाइफ में सेट हो गया. किसी के चले जाने से एक समय के बाद वो स्पेस ऑटोफिल हो जाता है और वो अपना एनवायरनमेंट ओक्यूपाई कर लेता है....और ख़ुद ही सोचो जब वो प्लेस फिल हो गया तो एडजस्टमेंट करना पड़ेगा. क्या प्रेम में ये पॉसिबल है?"


"शायद तुम सही हो!" अनु ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा. मैंने अपनी बात जारी रखी.


"अनु प्रेम में प्रेम किया जा सकता है. किसी के आने और चले जाने के बाद भी पर प्रेम में वापसी की सूरत को बस समझौता कहते हैं. क्या किसी रिश्ते की बुनियाद समझौता हो सकती है?"


"हम्म!" अनु अब भी शांत है.


"मान लो उसने तुम्हें न अपनाया या अपनाए जाने के बाद तुम्हारे बीच वो प्यार न रहा…?"


मेरा मन जाने क्यों उद्विग्न होकर बहा जा रहा. मैं अनु को गुमराह तो नहीं कर रहा? कहीं मैं उससे प्यार तो नहीं करने लगा? लेकिन एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर से रोकना ग़लत भी तो नहीं. मैं उधेड़बुन में था.


"सुनो, अगर यही सब बातें मैं तुमसे कहूँ? तो क्या तुम उसे भूल जाओगे? क्या हम एक नया जीवन शुरु कर सकेंगे?"अनु ने मेरे पैरों के नीचे ठीक सामने बैठकर मेरी आँखों में आँखें डालते हुए कहा.


"ये क्या कह रही हो तुम?" मैं आवेश में बोल पड़ा.


"वही जो तुम सुन रहे हो."


"लेकिन मैंने कब कहा कि मेरे साथ ऐसा कुछ है?"


"उस रात जैसे ही मैं कमरे में पहुँची थी तुम्हारी एक्स का व्हाट्स एप मेसेज आ गया. मेसेज पढते ही मेरे होश उड़ गए. सारे सपने एक साथ ख़त्म दिखे. मैंने चेक किया तो पाया कि तुमने अपना फोन 24 घण्टे पहले ही फॉर्मेट किया था. यहाँ तक कि व्हाट्स एप एकाउंट डिलीट भी किया था. उस मेसेज के सहारे मैं ब्लू डायरी तक पहुँची जिसके हर पेज पर खून से कुछ न कुछ लिखा था. बहुत बड़े सदमे की रात थी वो मेरे लिए." मैं अपराधी की तरह अनु की बात सुन रहा था तभी ख़याल आया.


"तुम्हें मेरे मोबाइल का पासवर्ड कैसे पता चला?"


"सौभाग्या उसमें गेम खेल रही थी वो पहले से ही फ्री था. ये सब देखकर मुझे तुमसे नफ़रत हो गयी कि मेरा क्या क़ुसूर था? मुझसे शादी ही क्यों की? तुम्हें किसी के साथ शेयर कैसे कर सकती थी?"


"ओह्ह शिट."


"वो अतीत है तुम्हारा. अब तुम्हें सब कुछ भूलना होगा. वो सब बातें याद करो जो मुझसे कहीं हैं अभी."


"अनु...मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं क्या करुँ, कहाँ जाऊँ?"


"क्या अब भी तुम्हें ये सोचना शेष रह गया? क्या मैं बस इसलिए त्याग करुँ कि स्त्री हूँ और तुम पुरुष हो तो कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो?"


"शायद तुम सही हो."


"शायद नहीं सौ फीसदी."


"ये बताओ जब तुम मुझसे इतनी नाराज़ थीं तो यहाँ तक कैसे पहुँची?"


"मुझे पिछले हफ्ते दीदी ने फ़ोन किया. उन्होंने बस इतना ही कहा कि मैं उनका अतीत जानती ही हूँ अब अगर भाई के साथ कुछ बुरा हुआ तो…"


"ह्म्म्म… बहुत बुरा हुआ उसके साथ. सौभाग्या एक साल की भी नहीं थी जब जीजाजी चल बसे."


"वो तुम्हें इस तरह नहीं देख सकतीं"


"और तुम?"


"मैं भी." बेंच से उठकर हम रास्ते पर आ गए. शायद यही मेरी भटक को मिला सही रास्ता है. उस रात अगर वो अँधेरे में उठकर न जाती तो मेरे जीवन में उजाला कभी न आ पाता.


"आज हमारे प्रेम को लाल गुलाब मिल गया." इतना कहते ही उसने मुझे कसकर छाती से भींच लिया. उसकी गर्म साँसें मेरे हर ज़ख़्म पर मरहम सी लग रही हैं.



आ जाए अगर गुस्सा मुझ पर

अब आ जाये अगर गुस्सा मुझ पर

तो दूर न कर देना ख़ुद से

तो पहले ही जता देना मुझसे

मैं चूम ललाट मना लूँगी

रख अधरों पर तुम्हारे तर्जनी अपनी

अंगुष्ठ से ठोढ़ी सहला दूँगी.


अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर

जो चाहे मुझको तुम कह लेना

दिल हल्का अपना कर लेना

आवाज़ जो तुमको देती रहूँ

कुछ मत कहना गुस्सा रहना

मैं रात धरा के शानों पर 

रोते हुए बिता दूँगी

जब आऊँ अगली सुबह तुम तक

तुम चाय का प्याला उठा लेना

कुछ मत कहना चुप ही रहना

बस लिखते जाना, पढ़ने देना.


अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर

मेरे हक़ की स्याही और को तुम

न देना, इतना सुन लेना

दो-चार रोज को मौन भला

महीनों मातम में न बदल देना

गले लगा लेना हमको

या गला दबा देना मेरा

पर दर्द से अपने न जुदा करना

मुझे कभी-कभी तो मिला करना

अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझपे

बस गुस्सा ही किया करना

प्रेम का एंटासिड

 


तुम शब्दों में इज़ाफ़ा भी तो न लिख गए...

एक वैराग से होते जा रहे हो

जैसे ख़ुद में ही एक बड़ा सा शून्य

कहते तो हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता

मग़र जो दिख रहा वो क्या है?

अपने दाल चावल में थोड़ा सलाद क्या बढ़ा

तुम उँगलियाँ चाटने लगे थे

और अब....

एंटासिड तकिए के नीचे रख कर सोना

ये जो तुम्हारा सर दर्द है न

ये ज़्यादा सोचने का नतीजा है बस

उठते ही खा लेना एक गोली

हम जी रहे हैं न अपने हिस्से का माइग्रेन

बुरे जो ठहरे...

तुम...तुम तो प्यार हो बस

धड़कन से पढ़ा गया

आँखों में सहेजा गया,

रोज़ तुम्हारी कविता की ख़ुराक लेकर

ऐसे सोते हैं

मानो ज़मींदोज़ भी हो जाएं

तो जन्नत मिले

तुम्हारे शब्दों के अमृत वाली...

हमें पता है इसे पढ़कर तुम

सूखे होठों पर अपनी जीभ फिराओगे

काश के हम आज तुम्हें पिला सकते

एक चाय...सुबह की पहली वाली

हम साथ नहीं दे पाएँगे मग़र तुम्हारा

जबसे मायका छूटा

चाय का स्वाद हमसे रूठा

...एक दिन आएँगे न ससुराल से वापस

और तुम्हारे गले लगकर पूछेंगे,

"क्या तुमने अब तक...?"

चलो छोड़ो अभी

बहुत रुलाते हो तुम हमको!

इश्क़ के मसीहा

बहुत बेपरवाह सी लड़की थी वो उसे पढ़ना लिखना तो बिल्कुल भी नहीं भाता था. हां यही कोई 14-15 की उम्र रही होगी. अपनी बिरादरी के लड़के से प्यार हो गया था उसे. अपनी बिरादरी हां सही समझे आप बिरादरी उसकी अपनी थी अगर हम सब बाहर के लोग देखें तो. मगर वो शिया थी और लड़का सुन्नी. कहते हैं इश्क छुपाए नहीं छुपता उसका भी नहीं छुप पाया था. पहले भनक लगी भी तो किसको बाहर वालों को और वो ठहरे खासम ख़ास. नमक मिर्च लगाकर घर वालों को खूब भड़काया गया. वह मन से इतनी निश्चल थी कि मेरे बहुत करीब आ गई थी. सुबह शाम किसी भी वक्त अक्सर आ जाया करती थी और अपने साथ लाती अधपके इश्क के किस्से.

एक दिन मेरा भी दिल पिघला और मैंने उसकी अम्मी से बात चलाई. 'लाहौल विला कूवत, क्या तमाशा है कैसे हम सुन्नी के घर अपनी बेटी दे दें.' मैंने उस वक्त बात को वही ख़त्म करना ठीक समझा. जाते हुए अम्मी बस इतना कहकर गईं, अगर तुम सुन्नी भी होतीं तो हम अपने बेटे के लिए तुम्हारा हाथ जरुर मांगते.

मुझे पता था वह परिवार मुझे बहुत पसंद करता है. अम्मी की इस बात से मेरे दिल में उम्मीद तो जगी थी कि हो न हो आगे चलकर इस रिश्ते में कुछ गुंजाइश है. फिर तकदीर का कुचक्र शुरू हुआ और लड़के से मिलने पर पाबंदी लगा दी गई. मगर इश्क कब रुकने वाला था.

अब भी याद करती हूं वह दिन जब उस लड़के ने लड़की के ठीक पास वाला घर किराए पर ले लिया और पहली ही रात अपने घर से लड़की के घर में एक होल बना लिया. एक-एक लम्हे की गवाह थी मैं. लड़के ने लड़की को एक बहुत प्यारी सी पेंटिंग गिफ्ट की थी जिसे पहुंचाने का काम मेरा था. वह पेंटिंग मेरे नाम से उसी जगह फिक्स हो गई जहां वो घर वालों के सोते ही घंटों बैठी रहती थी. इश्क़ उरूज़ पर था. कुछ भी रुका नहीं और बंदिशों में प्यार करने का ख़ूब मजा आया.

इस बात को गुज़रे बीस साल हो गए. वो दो और उनका प्यारा आतिफ़ आज भी वजह बनते हैं मेरे मुस्कराने की.

तीन लघुकथाएँ

 स्पर्श


अँधेरों में एक काली छाया उभरी. विरह ने आगे बढ़कर उसे होठों से लगाना चाहा. कोने में पड़ी सिगरेट सुलग उठी और देखते ही देखते विरह के होठों से जा लगी. एक अरसे से निस्तेज पड़ी राखदानी को आज स्पर्श मिला.


क्रोनोलॉजी


पहाड़ बूंदों के इंतज़ार में तब तक अपने आँसू अंदर दबाता रहा जब तक पेड़ चिड़िया को आलिंगन में लिए रहा. आलिंगन तब तक सुखद रहा जब तक पेड़ ने बौराई हवा की राह तकी.


फिर एक माँ ने जैसे ही अपने नवजात को चूमा, हवा इठलाकर पेड़ से जा लिपटी. पंख फड़फड़ाकर चिड़िया उड़ी उसने पहाड़ को अपनी आग़ोश में भर लिया. मेघ बरसते गए और पहाड़ जी भर रोता रहा.


इश्क़ फिर भी है


कागज़ स्याही पर फ़िदा है और कलम कागज़ को देखते ही कसमसाती है. तीनों अलग-अलग सियाह से हैं.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php