मग़र कहीं होतीं तुम मेरे आसपास
तो यक़ीनन तुम्हें प्रेम कर बैठता
इतना प्रेम जितना इमरोज भी न कर पाया हो
मेरी माँ की कोख ने मुझे कहाँ
प्रेम को जन्म दिया था
चढ़ते घाम का हर घूँट
ढ़ुलकती चाँदनी का रूप
उदरस्थ किया मैंने
प्रेम का नाम लेकर
सर्द पहाड़ों पर फहरायी है पताका
प्रेम की हवा गुजारने को मैदानों में,
मेरे भीतर का मैं नामालूम सा हूँ
तुम चाहो तो खोज लो मुझे
देवदारों से चिनारों तक
शीत, उष्ण, बयारों तक
1 टिप्पणी:
सुन्दर
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