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प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.....तृतीय अंक


गतांक से आगे...


"और बताओ...कहाँ हो??" उफ्फ 11 दिन 22 घण्टे 44 मिनट बाद आज इनका फोन आया। मैं खुशी से रुआंसी हो गयी। पूरे 56 सेकण्ड्स तक ब्लैंक कॉल चलती रही। मैं इनका अपने पास होना फील कर रही थी...
"कुछ बोलोगी भी या नहीं?" इन्होंने तंज भरे शब्दों में बोला। मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। कैसे कहूँ कि ये दिन कैसे बीते, मैं तो तुम्हारी आवाज़ सुने बग़ैर दिन का एक पहर नहीं जाने देती हूँ और तुमने इतने दिन निकाल दिए। एक बार भी न सोचा कि इस वक़्त मुझे तुम्हारे साथ की बहुत जरूरत है। प्रेम ही तो वो सम्बल होता है जो इंसान को हर भंवर से पार ले जाता है। मैं चाहती तो आज तुम्हारे इस कटु प्रश्न का उत्तर देती पर मैं कमज़ोर हूँ ज़िन्दगी, सिर्फ तुम्हारे लिए और तुम हो कि मुझे मेरे जैसा कभी समझते ही नहीं। शिकायतें बहुत हैं पर मेरा बेपनाह प्यार काफी है मुझे समझाने के लिए। किसी भी तरह से तुम्हारी उपस्थिति बनी रहे, तुम खुश रहो, मैं हर दर्द झेल लूँगी। 
"बात नहीं करनी है न, फोन रखूँ.."
"नहीं वो बात नहीं है...अच्छा तुम कैसे हो"
"मुझे क्या हुआ, बिल्कुल ठीक हूँ"
"ह्म्म्म, गुड हमेशा ऐसे ही रहो।"
"अब तुम्हारा दर्द कैसा है?"
"ठीक" सच ही कहा था मैंने बस एक फ़ोन कॉल और मेरा दर्द सचमुच ग़ायबतुम भी क्या जादू कर देते हो।
"और बताओ, क्या चल रहा है..." कैसे प्रश्न पूछते हो तुम भी, तुम्हारे बग़ैर तो सांस भी रुकने लगती है फिर कुछ और चलने का तो कोई सवाल ही नहीं। मैं इस उलझन में थी कि तुम कुछ बोलते और मैं बेताब सी सुनती तुम्हारी बातें जैसे खूंटी पर टांग दी हो सारी उलझनें। फोन पर मैं तुम्हारे साँसों की हरारत महसूस कर रही थी।मेरी याद तुम्हारी आँखों की सुर्ख धारियों में जाकर टंग गयी थी कि काम के बोझ में हंसना-बोलना भूल गए हो। होंठ भी तो ज़र्द पड़ गए हैं और तुम्हारे हाथों की नाजुक सी उंगलियां गर्म अहसास की छुअन से महरूम हैं। थक जाते होंगे न दिन भर व्यस्तता से दौड़ते पाँवमन करता है अभी तुम्हें सीने में छुपा लें। कितने बावले हो खुद का भी ध्यान नहीं रखते....
"क्या खाया सुबह से अब तक?"
"अगर नहीं खाया होगा तो खिलाओगी क्या?"
"नहीं बाबा, वो बात नहीं..." कैसे कहूँ कि जब तक तुम नहीं खाते मेरे लिए अन्न का एक दाना भी दुश्वार है। कितने-कितने पहर उपवास में निकल जाते हैं कभी ये सोचकर कि तुम भूखे होगे अभी और कभी तो तुम्हारी इतनी याद आती है कि भूख ही नहीं लगती।
"अच्छा सुनो, मुझे कहीं निकलना है। फिर बात करता हूँ।"
"ये तो कोई बात नहीं होती, प्लीज बात करो न थोड़ी देर। मैं रोने लगूँगी..."
"अरे नहीं, ऐसा नहीं है। देखो अगर बात नहीं करनी होती तो मैंने कॉल क्यों की होती। रात में बात करता हूँ, बाय।"
मेरे कुछ बोलने से पहले ही फोन डिसकनेक्ट हो गया। मेरी आँखों की कोरों से निकलकर दो आँसूं गाल पर लुढ़क आये थे। एक आँख खुशी में रोयी कि इतने दिनों के बाद आज मेरे मन ने तुम्हें महसूसा था और दूसरी सचमुच उदास थी कि इतनी जल्दी चले गए। 
कितना एकाकी कर जाते हो तुम मुझे। बस तुम तक सिमटी लगती है ये दुनिया। तुम्हारे लिए मेरे प्रेम की हद कहाँ तक है अब तो ये सोचना भी छोड़ दिया। मुझे तुम्हारे लिए जीवन भर बाती बनकर जलना मंजूर है बस तुम्हारे रास्ते उजालों से भरे रहें। जितना मेरा हर पल तुम्हें समर्पित है उतना ही मेरा कल भी। मैं हर जनम अपना आँचल तुम्हारे पाँव के नीचे बिछाऊंगी और अपने हाथों से छाँव दूँगी।

कहानी आगे भी जारी रहेगी...

PIC CREDIT: GOOGLE

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.... द्वितीय अंक

गतांक से आगे



दिन भर की उहा पोह से थकी मैं ए सी के सामने बैठकर माथे को दुपट्टे से पोंछ रही थी जबकि वहाँ पसीना तो दूर की बात थकान की एक बूंद तक न थी। थकान हो भी तो किस बात की शारीरिक श्रम से मेरा दूर तक कोई नाता न रहा हाँ दिमाग़ अकेला, नन्ही सी जान बेचारा दस जनों के बराबर सोच डालता था। मैं आदी हो चुकी थी। यही तो वो रिफ्लेक्शन था कि थकान का पसीना पोंछने को हाथ अनायास ही उठ गया था। 
"उफ्फ, हद करती हो तुम भी यहाँ जमी हो और मैं ढूंढ रहा था।"
"ह्म्म्म....."
"मैं कुछ कह रहा हूँ और तुम खयालों में गुम हो।"
"फिर भी सुन तो रही हूँ न, अच्छा ये बताओ तुमने मुझे कहाँ-कहाँ ढूंढा... किचन, लॉबी, कमरा, टेरिस, घर, बाहर....मग़र जहाँ मैं हर वक़्त हूँ बस तुम्हारे लिए वहाँ...?"
"अब इमोशनल मत हो जाना, मुझे चिढ़ है रोने से..."
"हम्म, पता है।"
"मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ, जान।"
"मैं तुम्हें पाती रहना चाहती हूँ, ज़िन्दगी।"
"याद नहीं अपने प्रेम का करार, दिन कैसे भी हों अपने पर रातें हमारी होंगी। हम इन रातों में पूरा जीवन जियेंगे। तुम्हारे हिस्से का दर्द मैं अपने प्यार से चौथाई कर दूँगा। अगर हाँ बोलो तो पूरा खत्म अभी..."
"हाँ तो कर दो न!"
"जादू है तुम्हारी आँखों में..." मैं खिल उठी थी इनकी बाहों में। इसी पल के लिए तो जीती हूँ मैं अनवरत लम्हों से संघर्ष करके। स्नेह की तपिश में मेरा दर्द जार-जार पिघल रहा था। हर आलिंगन जाने क्यों नया, ताजा सा लगता है। खिल उठती हूँ अंतर तक वो आवाज सुनकर।


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कहानी आगे भी जारी रहेगी।

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल...प्रथम अंक



हमारे वैवाहिक रिश्ते को अभी चन्द महीने हुए थे। अभिलाषाएं पालने में ही थी पर आवश्यकताओं ने पाँव पसारने शुरू कर दिए थे।  वो बेटे न होकर पति जो बन गए थे और मैं भी बेटी कहाँ रह गयी थी। जो एक अच्छा सा सामंजस्य चला आ रहा था सात बरसों के बेनाम जीवन में, रिश्ते को नाम मिलते ही बचकाना सा लगने लगा। प्रेम को मंजिल तक लाने में जो सफर तय किया आज वो उम्र का कच्चापन लग रहा। जाने क्यों आज ऐसा लग रहा कि प्रेम एक अमरबेल है बस देखने में सुंदर। अगर स्थिरता न हो तो ये किसके परितः अपनी साँसे जियेगा। कल हम प्रेम में थे, लव-बर्डस की उपमा दी जाती थी पर आज मैं समय हूँ और ये पहिया......

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क्रमश:
मित्रों, अगर आपको मेरे बारे में आगे जानने की इच्छा है तो कृपया comment box में लिखें।
कहानी जारी रहेगी।

मेरी पहली पुस्तक

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