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सबक

एक नाराज बच्चे ने एक हृदय की धड़कन सुनी और वह खुश हो गया. वह बच्चा धड़कते हृदय से कहने लगा, "मैं तुम्हारे प्यार में पड़ गया हूँ"

धड़कते हृदय ने कहा, "जानते ही कितना हो मुझे? क्यों मेरे प्यार में पड़ गए हो? क्या हमेशा प्यार कर पाओगे मुझे?

नाराज बच्चे को पहली बार ख़ुशी मिली थी. पहली बार उसको कोई बात अच्छी लगी थी. उसने इसे ही सब कुछ मान लिया और झट से बोल पड़ा, "यकीन से तो नहीं कह सकता लेकिन अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा"

अब धड़कते हृदय को यकीन हो गया. उसे पता है क़ामयाब वही होता है जो कोशिश करता है. उसने नाराज बच्चे को अपने अंदर एक कमरा दे दिया. नाराज बच्चे और हृदय की धड़कन का संयोजन प्रेमपूर्वक बहने लगा. यह देखकर कुछ और भी लोग थे जो नाराज बच्चे की तरह धड़कन की तरफ आकर्षित हुए. धड़कन ने पहले ही नाराज बच्चे को जगह दे रखी थी. धड़कन जानती थी उसके पास इतनी जगह नहीं है कि वह सभी को बुला सके उसने माफी माँगते हुए सबको कोई और धड़कता हृदय ढूँढने की सलाह दी. वह सब कहाँ मानने वाले थे. वहीं मँडराते रहे. नाराज बच्चे को धड़कन अपना प्रिय मानती थी. वह उसकी आवभगत में लगी रहती बस इसीलिए कि नाराज़ बच्चे को जो खुशी उसके पास आकर मिली है वह कभी कम न हो और बढ़ती ही रहे. लेकिन अब उन दोनों के बीच बहुत से लोग आ गए थे. बहुत से लोग इस ताक़ में भी थे कि कब नाराज़ बच्चा धड़कन से नाराज़ हो जाये. कुछ नाराज़ बच्चे को अपने कमरे में धड़कन की तरह जगह देना चाहते थे. वहीं कुछ नाराज़ बच्चे बनकर धड़कन के कमरे को ख़ाली कर उसमें अपनी जगह बनाना चाहते थे. रास्साकशी का माहौल था. ठीक उसी तरह जैसे समुद्र मंथन के समय हुआ था. वासुकि की जगह किसी ने ले ली, मंदराचल पर्वत की जगह धड़कता हृदय है. अमृत निकला. विष भी निकला. धड़कते हृदय ने किसी भी मोहिनी को आगे नहीं आने दिया. सब अमृत नाराज बच्चे पर उड़ेल दिया और विष एक कोने में रख दिया. सभी ने विष चख लिया. नाराज बच्चा भीड़ की ओर देखने लगा. उसे लगा धड़कते हृदय ने मेरे साथ नाइंसाफी कर दी. मुझे केवल अमृत दिया और बाकी सभी को जाने क्या-क्या मिला है. भीड़ ने नाराज बच्चे को अपनी तरफ आता देख गले से लगाया. हाथों-हाथ लिया. उसे बेवजह उदास करके उसकी खुशी का कारण बनी और इस तरह नाराज बच्चा उनकी ओर आकर्षित हो गया. अ ब स द कितने ही लोग हैं यहाँ. नाराज बच्चे को बहुत अच्छा लगने लगा. उसे लगा वह यही तो चाहता था. यह बात उसके मन की है. कितने सारे लोग उसके अपने हो गये. उस एक धड़कते हृदय के चक्कर में वह तो बेचारा अकेला ही रह जाता. कैसा था वह धड़कता हृदय कितना बड़ा मक्कार...मुझे कमरे में बिठाकर बंद कर लिया. अब नहीं आऊँगा उसकी बातों में. सचमुच मैं तो ठगा गया. कितनी बड़ी दुनिया है लेकिन उस मूर्ख ने तो मेरी दुनिया ही छोटी कर दी थी. अब भीड़ ने यह अनुभव कर लिया था कि नाराज बच्चा धड़कते हृदय से कुछ असहमत है और इसी बात का फायदा भीड़ अपने-अपने तरीके से उठाने लगी. भीड़ फायदे उठाने लगी. नाराज बच्चा मजे लेने लगा. धड़कता हृदय अकेला रह गया. उसका कमरा खाली था. वह नाराज बच्चे को बहुत याद करता था. कितने दिनों से उसे नाराज बच्चों के साथ हँसते-खेलते, उसका मन बहलाते धड़कता हृदय खुद भी खुश हो जाता था. धड़कते हृदय ने कभी नाराज बच्चे के सामने यह नहीं कहा कि वह अकेला है, उसे भी साथी की जरूरत है. लेकिन धड़कता हृदय अब भी चाहता है कि नाराज बच्चा अपने कमरे में वापस आ जाये. मगर भीड़ नहीं चाहती है. वह नाराज बच्चे का मखौल उड़ाती है कि धड़कते हृदय की क़ैद में वह रहा. अब नाराज बच्चा आज़ाद है. धड़कता हृदय आज़ाद है और भीड़ भी आज़ाद है तीनों की आज़ादी अलग-अलग है. नाराज बच्चे की आज़ादी यह है कि उसे धड़कते हृदय से मुक्ति मिल गयी. धड़कते हृदय की आज़ादी यह है कि अब वह बिल्कुल अकेला हो गया और भीड़ की आज़ादी यह है कि उन्होंने नाराज बच्चे को धड़कते दिल से अलग कर दिया. 
किसी का साथ पाना फिर उससे दूर हो जाना हर किसी को यह बात तकलीफ नहीं देती है लेकिन उसको बहुत देती है जो रिश्ते जल्दबाजी में नहीं बनाता, किसी लालच में नहीं बनाता लेकिन षड्यंत्र करने वाले लोग नहीं समझते. बात-बात पर किसी को दोषी ठहरने वाले लोग नहीं मानते कि अपनापन ऐसा भी होता है. 
धड़कता हृदय अब नाराज बच्चे से कभी यह सवाल नहीं करेगा कि वह सभी की बातों में क्यों आया, और जब एक दिन छोड़ना ही था तो एक दिन आकर मिला ही क्यों था? सवाल नहीं करेगा तो इसका मतलब यह भी नहीं कि नाराज़ बच्चा खुद से भी यह सवाल न पूछे.
नाराज़ बच्चा कभी भी धड़कते हृदय से यह सवाल नहीं करेगा कि वह पक्षपाती क्यों बना, इतना अमृत क्यों दिया कि उसका दम घुटने लगा? अगर नाराज़ बच्चा नहीं पूछेगा तो क्या इसका मतलब यह भी नहीं कि धड़कता दिल अपने आप से यह सारे सवाल न करे और ख़ुद को गुनहगार मानते हुए कभी दोबारा नाराज बच्चे के सामने भूल कर भी जाये.
जो सबक हमें जिंदगी रोजमर्रा की बातों में दे जाती है उसमें कहीं ना कहीं गुरु हम स्वयं ही होते हैं.

प्रेम में एकलव्य

 मैंने कभी नहीं सोचा था

मेरे भीतर प्रेम का एकलव्य सर उठायेगा

और मैं तुम्हें सौंपती रहूँगी अपना वादा

फिर एक दिन तुमने कुछ नहीं कहा

और तमाम दिन बीतते रहे

तुमने देने बन्द कर दिए शब्दों के शर

प्रेम में पूर्णता को आहुत होने

मैं तुम्हारे प्रेम की मूर्ति पूजती रही

तुम्हें अपना गुरु मानकर;

नियति ने तुम्हारे मौन को खण्डित किया

"प्रेम में उर्ध्वगामी बनना होगा तुम्हें

तुम मुझसे भी आगे बढ़ो" तुम्हारे आशीर्वचन

मेरा छिन्न-भिन्न 'मैं' आज तक न समझा

कि प्रेम में पुरस्कृत हूँ या तिरस्कृत!

एक बार फिर लोगों ने मुझमें एक नए

एकलव्य को जन्म दिया, ये कहकर

कि गुरु ने दक्षिणा में प्रेम ही ले लिया...

मेरी पहली पुस्तक

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