क्यों रुठ गयी हैं बादलों से बूँदें
कहीं समन्दर ने इनसे नाता तो नहीं तोड़ा होगा
जैसे मैं होती जा रही हूँ दूर तुमसे
हर साँस पर अब साँस भी तो नहीं आती
और यादें हैं कि ज़िबह किए देती
जैसे छूट जाती है पतंग अपनी डोर से
नील गगन की रानी आ गिरती है जमीन
लुटी, कटी, नुची, सौ ज़ख़्म लिए
वो भी हाथ नहीं बढ़ाता उठाने को
जिसने लड़ाया पेंच, जितनी भी आए खरोंच
जैसे पार्थिव हो जाता है कोई आयुष्मान
तबाही मचा शाँत हुआ चक्रवात
सब कुछ बहता रहता है बिना नीर
चलता है मन-प्रपात
बस इसी तरह छोड़ते हो तुम मुझे हर बार.