To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
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हमारे रास्ते
प्रार्थनायें
प्रेम का संत्रास
*****
तुम्हारी चुप्पियों का विस्तारित आकाश
भर देता है मुझे दर्द के नक्षत्रों से
आकाश गंगा की समग्रता
भंग करती है मेरी एकाग्रता और
पैदा करती है मुझमें एक नयी चौंक
बात-बात पर इतनी सजग तो कभी न हुई मैं
मैंने देवदार के पत्तों पर भी
अपना मन भर आहार जिया है
मैं रखना चाहती हूँ उस पर अपना बड़बोलापन
कितनी भी प्रेम की गागर भर लूँ मन में
थाह गहरी तो तुम्हारे मौन की रही है सदैव
भुला दी हैं तुमने मुझे वायुमंडल की समस्त भाषाएँ
रात्रि की मेरुदंड पर अधाधुंध दर्द लिखती हूँ
क्यों देखते हो तुम उसे कलंक
मैं सोना चाहती हूँ मृत्यु की एक पूरी नींद
तुम जागकर भटकते रहते हो मुझमें
इतना कि बन जाते हो मेरी सुबहों का मंगल
मैं औषधि का प्याला बढ़ाती हूँ तुम्हारी ओर
तृप्त होऊँ तुम्हें पीते देखकर और
ले लूँ चुम्बन तुम्हारे अधरों का
अमरत्व चखना है मुझे सृष्टि का
तुम्हारे होने तक उत्सव मना सकूँ मैं भी.
तुम्हारे मन का गृहस्थ मौन है न
और मेरे मन का सन्यास, मोह भर उपजी पीड़ा.
प्रेम में जोगिया
न मिले सात सुर
न सप्तपदी हुई
साँस प्रेम की
हर साँस ठहरी रही
सुमिरन करुँ
प्रेम में मैं प्रवासी
मन को पाषाण
कर देह सन्यासी
जोगिया मुझसे मिलना
जब मिले देह काशी
घाट मणिकर्णिका
क्लांत पथ कोस चौरासी
प्रियतम को पहली पाती
तितिक्षु प्रेमी
मैंने इमरोज़ नहीं चाहा
न ही उसकी पीठ
तुम्हारा नाम उकेरने को,
तुम साहिर भी मत बनना
शायद ही कभी मैं
चूल्हे पर चढ़ा सकूँ
तुम्हारे नाम की चाय
बस यूँ ही बने रहना
मेरी सुबह, मेरी शाम और रात
मेरी आत्मा के साथी.
सृष्टि, तुम्हारी हथेली में
ब्रह्मा का वास है
तुम्हारी कलाई में
मुट्ठी में शिव
और उँगलियों में चतुरानन
चारों दिशाओं में घूमती कलाई
बस एक भी शब्द पर
ठहर भर जाए
तोड़ देते हो
अपने ही सारे आयाम
सृजन के.
प्रिय है कलाई ही इतनी
कि मुट्ठी और उँगलियाँ
वंचित हैं स्नेह से अब तक.
आ जाए अगर गुस्सा मुझ पर
अब आ जाये अगर गुस्सा मुझ पर
तो दूर न कर देना ख़ुद से
तो पहले ही जता देना मुझसे
मैं चूम ललाट मना लूँगी
रख अधरों पर तुम्हारे तर्जनी अपनी
अंगुष्ठ से ठोढ़ी सहला दूँगी.
अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर
जो चाहे मुझको तुम कह लेना
दिल हल्का अपना कर लेना
आवाज़ जो तुमको देती रहूँ
कुछ मत कहना गुस्सा रहना
मैं रात धरा के शानों पर
रोते हुए बिता दूँगी
जब आऊँ अगली सुबह तुम तक
तुम चाय का प्याला उठा लेना
कुछ मत कहना चुप ही रहना
बस लिखते जाना, पढ़ने देना.
अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर
मेरे हक़ की स्याही और को तुम
न देना, इतना सुन लेना
दो-चार रोज को मौन भला
महीनों मातम में न बदल देना
गले लगा लेना हमको
या गला दबा देना मेरा
पर दर्द से अपने न जुदा करना
मुझे कभी-कभी तो मिला करना
अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझपे
बस गुस्सा ही किया करना
प्रेम का एंटासिड
तुम शब्दों में इज़ाफ़ा भी तो न लिख गए...
एक वैराग से होते जा रहे हो
जैसे ख़ुद में ही एक बड़ा सा शून्य
कहते तो हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता
मग़र जो दिख रहा वो क्या है?
अपने दाल चावल में थोड़ा सलाद क्या बढ़ा
तुम उँगलियाँ चाटने लगे थे
और अब....
एंटासिड तकिए के नीचे रख कर सोना
ये जो तुम्हारा सर दर्द है न
ये ज़्यादा सोचने का नतीजा है बस
उठते ही खा लेना एक गोली
हम जी रहे हैं न अपने हिस्से का माइग्रेन
बुरे जो ठहरे...
तुम...तुम तो प्यार हो बस
धड़कन से पढ़ा गया
आँखों में सहेजा गया,
रोज़ तुम्हारी कविता की ख़ुराक लेकर
ऐसे सोते हैं
मानो ज़मींदोज़ भी हो जाएं
तो जन्नत मिले
तुम्हारे शब्दों के अमृत वाली...
हमें पता है इसे पढ़कर तुम
सूखे होठों पर अपनी जीभ फिराओगे
काश के हम आज तुम्हें पिला सकते
एक चाय...सुबह की पहली वाली
हम साथ नहीं दे पाएँगे मग़र तुम्हारा
जबसे मायका छूटा
चाय का स्वाद हमसे रूठा
...एक दिन आएँगे न ससुराल से वापस
और तुम्हारे गले लगकर पूछेंगे,
"क्या तुमने अब तक...?"
चलो छोड़ो अभी
बहुत रुलाते हो तुम हमको!
प्रेम ही तो ब्रह्मचर्य है
इस सदी का ब्रह्मचर्य
एक मात्र प्रेम ही तो है.
प्रेम कौमार्य नहीं भंग करता
सौहार्द्र बढ़ाता है,
संकीर्णता के
जटिल मानदण्डों को तोड़कर
समभाव की अनुभूति कराता है.
अब निकलना होगा प्रेम को
किताबों से, ग्रंथों से
और हम सभी के मन से भी बाहर…
यदि कम करनी है
दूरी हृदयों के मध्य की
तभी तो रुक सकेंगे ग्लेशियर पिघलने से
जब सम्पूर्ण को देखने की
हम सभी की दृष्टि एक ही होगी
लव एक्सटिंक्ट
मुझे यक़ीन है
एक दिन
तुम अपने
बच्चों के बच्चों को
सुना रहे होगे
अपनी प्रेम-कहानी
और वो कौतूहल वश पूछ बैठेंगे
"दादू ये प्रेम क्या होता?"
और तुम हँसकर
बात टालने की बजाय
उन्हें समझाओगे,
"ये प्रेम ज्वर नहीं
देह का सामान्य ताप
हुआ करता था
जिन्हें पढ़ सकते थे
केवल तापमापी यंत्र
….."
मुझे ये भी यक़ीन है कि
इसके आगे तुम
कुछ नहीं बोल पाओगे
तुम्हें चाहिए होगा
अपने आँसू पीने को
मेरी आँखों का पानी
कल आज और आने वाले कल में
यही तो शेष रह जायेगा.
प्रेम बचाकर रखेगा
अपना अस्तित्व
डायनासोर के मानिंद
जिसे हम में से किसी ने नहीं देखा
पर कहा जाता रहेगा
युगों-युगों तक
सबसे बड़ा प्राणी.
PC: Google
कैसे कहें प्रेम है तुमसे!
बहुत प्यार करने लगे हैं हम तुम्हें
जाने कितने दिनों से दिल में
चल रहा है बहुत कुछ
और कोई बात नहीं होती
कोई और होता भी नहीं वहाँ
इस तरह रहने लगे हो हमारे दिल में
कि हमें भी रहने नहीं देते हो अपने साथ
किए रहते हो अलग-थलग जैसे
हवा की आहट पर झाड़ देता हो
कोई पत्ता अपनी देह की धूल
बात-बात पर कर देते हो हमें अपनी
उन मुस्कुराहटों से विस्थापित
जिनके इंतज़ार में गीली रहती हैं कोरें
तुम्हारी सवा किलो की यादें
और एक मन का दर्द…
कभी रुको न हमारे सामने घड़ी दो घड़ी
तो देख लें मन भरकर तुम्हें
चूम लें तुम्हारे होने को
कभी कहो न कुछ…
क्यों कहें हम, कितना प्यार है तुमसे
खोल तो दी है हमने अपनी
इच्छाओं की सीमा
विचरण कर रहा है प्रेमसूय अश्व
हमें स्वीकार है तुम्हारी सत्ता
हम निहत्थे ही आयेंगे तुमसे परास्त होने
एक बार चलाओ अपना प्रेम शस्त्र.
PC: Google
जाने क्यों!
जब सार्थक हो मौन
तो माप आता है
आकाश गंगा से लेकर
पृथ्वी की बूँदों का घनत्व,
समझ आता है
दिव्य भाव-भंगिमाएँ,
तुला पर रख गुज़रता है
अकाट्य तर्क
....
अगर असफल होता है
तो बस
प्रेम का उतार चढ़ाव पढ़ने में.
जाने क्यों नहीं पढ़ पाता
प्रेमिका का निःछल मन!
बोलो न!
तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही
हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है
जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ
परिणय का सुख पा लेती हैं
फिर हर बार तुम अपने परिचय में
क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे
और बुझे बुझे से?
तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं
जो स्वयं महकता है
किसी के स्पर्श का आदी नहीं?
बस एक बार नहला दो
अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से
चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!
मास्क वाला प्रेम
चलो न
खुले में प्रेम करते हैं
सूरज की रोशनी
जहाँ ठहर जाए ऊपर ही,
जैसे प्रेम के देवता ने
अपने पंख फैलाकर
हमें दे दी हो
हमारे हिस्से की छाँव;
ऐसा करते हैं न
रख देते हैं एक मास्क
उजास के चेहरे पर
और जी लेते हैं प्रेम भर तम.
शब्दों की छुअन और मैं
प्रेम और ॐ
प्रेयसी
पर बिना पहले मिलन
प्रेम सम्भव ही कहाँ,
सुलझाते हुए अपने बालों की लटें
उसे प्रतीक्षा होती है उस फूल की
जो उसका राजकुमार लाएगा
जूड़े में लगाने को.
चढ़ाते हुए चूल्हे पर चाय
वो मिठास ढूँढती है
कि उन हाथों में जाने से पहले प्याला
मद्धम आँच के ज्वार भाटे सहेजेगा,
उद्विग्न हो उठता है उसका मन
प्रेयसी बनने को.
कोई भी शब्द पढ़ने से पहले
समझना चाहती है
इस ब्रह्मांड की सभी मौन लिपियाँ
कि उनके पार जा सके
और जान सके प्रेम के अनकहे रहस्य
प्रेयसी बनकर.
इच्छाओं के समंदर को जीते हुए
वो बनकर रह गई है प्रेम सी
अब उसे अपना मन रिक्त करना है
अपना यायावर प्रेम
लुटाना है उस प्रेमी पर
जिसके साथ पहली ही मुलाक़ात
अभी लंबित है.
अबूझी कहानी
मेरी पहली पुस्तक
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