मैंने बो दी है अपनी इच्छा
'इस समाज में न जीने की'
किसी गहरी मिट्टी के नीचे
क्योंकि ये समाज सुधरने से रहा
और मैं ख़ुद को मार नहीं सकती.
कैसे जियूँ यहाँ तिल-तिल मरकर
हंसने-बोलने पर पाबंदी लगी
पढ़ने जाने पर लगी
बाहर निकलने पर लगी.
जब भी समझाती हूं
बाबा अब सब सही हो गया
फ़िर कोई नई बात हो जाती है;
समझ नहीं आता ये रातें भी
क्यों होती हैं एक लड़की के हिस्से
कभी सूरज वाली रात
कभी भावनाओं वाली
तो कभी दर्द वाली;
यकीन है मुझे
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा
तब लौट कर आऊँगी पूरी मैं
मेरी रोपी हुई इच्छा का
पेड़ मजबूत हो चुका होगा तब तक
और सबने उतार लिया होगा उससे
अपनी-अपनी इच्छा का फ़ूल
...तब तक, मैं भटकती रहूँगी
इच्छा रहित आत्मा में
एक ज़िस्म बनकर
हैवानों को बोटी चाहिए
बेटी नहीं.
2 टिप्पणियां:
नि:शब्द.. . अद्भुत। मन को विचलित कर दिया इस रचना ने। सच में लड़कियों को ऐसे ही जीन होगा क्या...? 🙏🙏👏👏👏👏
जी बिल्कुल सही चिंतन है...स्थिति अच्छी नहीं ही है.
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