उस रोज़
जब पतझड़ धुल चुका होगा
अपनी टहनियों को,
पक्षी शीत के प्रकोप से
बंद कर चुके होंगे अपनी रागिनी,
देव कर चुके होंगे पृथ्वी का परिक्रमण,
रवि इतना अलसा चुका होगा
कि सोंख ले देह का विटामिन,
सड़कों पर चल रहा होगा प्रेतों का नृत्य,
लोग दुबके होंगे मोम के खोल में
सरकंडे की आँच पर,
इच्छा उतार कर रख दी गई होगी
घर के आले में,
मोह सूने आंगन को बुहार रहा होगा,
दया क़ैद हुई होगी आँखों के काले कटोरे में,
और प्रेम...हमारे पहरे पर होगा;
उस रोज़ तुम अपनी नैसर्गिक चुप्पी तोड़ोगे
और खिला रहे होगे मिलन की कोपलें
अपने मन के सूने जालों में
...उस रोज़ भी मैं भागी चली आऊँगी
तुम्हारी एक आहट पर
बिना किसी सकुचाहट के,
टाँग कर आऊँगी अपनी हया
बूढ़े पीपल की किसी कोटर में
उसी रोज़...
3 टिप्पणियां:
वाह उम्मीदों के अहसासत से लबरेज़ कवि मन तोड़कर हर वर्जनाओं को प्रेम ही प्रेममय हो जाना चाहता है,
बहुत ही गहरी बिंबों से सजी एक शानदार रचना अच्छा लगा आपने प्रेम की पराकाष्ठा को प्रस्तुत किया..!
शब्द चयन भी बहुत खूबसूरत है
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत ही लाजवाब रचना।
एक टिप्पणी भेजें