क्या यही तरक्की है?



मेरी माँ
अब भी
खोजती है
एक ऐसा घर
जिसमे
तुलसी वाला आँगन हो
हौले-हौले धूप उतरती हो
जिसकी चौखटों पर
और उसे रोकता हुआ
एक नीम का पेड़
जिस पर
दिन भर रहती हो
चिड़ियों की चहचहाहट
क्योकि
बंद कमरों की घुटन
उसे नीरस लगती है
तंग गलियां
उसे डराती हैं
आज मैं
कैसे दूँ उसे
वो शुद्ध आक्सीजन
जो मुझे
मेरे बचपन में
मिली थी
कभी-कभी लगता है
कि हम
वैज्ञानिक युग में
आ गए
पर क्या
हमारी ज़िन्दगी
संसाधनों को
जुटाने में ही
सिमट जायेगी
क्या दे पायेंगे
हम अपने बच्चों को
बारूद के ढेर पर
गोल-गोल घूमती पृथ्वी
झूठ का तिलिस्म
पर्यावरण में
जहर घोलता
भयावह प्रदूषण
क्या यही तरक्की है?

Quote on beginning


सरहद हो या घर बंटते तो दिल हैं...

बहुत दर्द में हूँ मैं, कराह उठा है मन, हर पल छटपटा रही हूँ। एक-एक कर सारे अपने साथ छोड़ चले। रिश्ते रेत की मानिंद हाथों से फिसल रहे हैं। पल-पल से मौत माँग रही हूँ मगर ज़िंदगी का क्या कहूँ मौत भी तो कोसों दूर खड़ी है। मेरा मन एक ही खयाल से घिरा है हर पल कि सज-संवर कर मेरी अर्थी निकल रही है, लोग मातम कर रहे हैं, मेरे अपने मुझे कांधा दे रहे हैं, मैं सबसे आगे हूँ और सब मेरे पीछे चल रहे हैं। झक सफ़ेद रंग में लिपटी हूँ मैं.. सफेद, हाँ यही तो होता है शांति का रंग...नहीं जीना है अब मुझे न अपने लिए न किसी अपने के लिए।
अपनी चोक होती साँसों को रोकना चाहा पर घुटन बढ़ रही है। कुछ समझ नहीं आ रहा पास पड़ी नींद की गोलियों से भरी शीशी पर नज़र डाली..हाँ यही ठीक रहेगा, एक खामोश नींद फिर कभी नहीं उठना.. कोई शिकायत नहीं और कोई दर्द भी नहीं..हाथ में शीशी उठाई ही थी कि दरवाजे पर आहट हुई..शीशी अपनी जगह वापिस रख दी, कौन होगा रात के दस बजे, इंसान तो दूर परिंदे भी यहाँ का पता भूल चुके हैं, महीनों हो गए कोई तो नहीं आता फिर कौन और क्यों आ सकता है इस वक़्त। मैं बिस्तर का छोर पकड़कर बैठ गयी। दूसरी आहट हुई, तीसरी, चौथी लगातार और उठते हुए स्वर में होने लगीं। मन तमाम अनजानी आशंकाओं से घिर गया। डर और रोष का मिला-जुला भाव था। डर इस बात का कि कौन और क्यों आया होगा, रोष इसका कि जब सबने मरने के लिए छोड़ दिया फिर ज़िन्दगी की तलाश में यहाँ क्यों?
दरवाजे पर आहट कुछ थमी तो मैंने तसल्ली की साँस ली। तभी मोबाइल फोन के वाइब्रेशन ने डर और विस्मय की लकीर दोगुनी कर दी, दौड़कर फोन देखा भाई का नंबर स्क्रीन पर फ़्लैश कर रहा था..क्यों फोन किया होगा इसने अब तक इतने दिन कोई खबर न ली फिर आज अचानक मुझे फोन...आखिर हूँ क्या मैं इन सबकी नजर में एक मिट्टी की गुड़िया..जब जितना और जैसे चाहो सजा दो, संवार दो और जब जी चाहे मसल दो..मेरा अपना कोई सावन नहीं.. मेरे जीवन का कोई मधुमास नहीं..जब चाहें लोग बोलें और जब चाहें मुंह फेरकर निकल जाएं..मेरे होने या न होने का कोई मतलब ही नहीं।
अभी तो एक महीना भी नहीं हुआ जब भाई की गरजती हुई आवाज कानों में पड़ी थी..'अब और नहीं सह सकता मैं, तुम लोगों के लिए अपनी बीवी को तो छोड़ नहीं दूँगा।'
'किसने कहा अपनी बीवी को छोड़ गुलाम बनकर रह।' पापा को इतना चीखते हुए अपने जीवन में पहली बार सुन रही थी। मैंने बहुत कोशिश की शांत करने की पर एक नहीं सुनी थी। लग रहा था जैसे आज फाइनल करके ही छोड़ेंगे। रोज-रोज की किट-किट हो चली थी, खुद का ही खर्च करते और खुद ही सफाई देते। झगड़ा बस इस बात का होता था कि उनको ज़्यादा मुझे कम। मुझे तो आज तक ये बात समझ ही नहीं आयी थी कि जिसको जितनी भूख होती है उतना ही तो मिलता है फिर ज़्यादा कम का क्या। जितनी जरूरत उतना तो मिल ही जाता था अब अगर एक एनीमिक है तो जरूरी तो नहीं कि दूसरे को भी आयरन की डोज़ दी ही जाए मगर ये तो कोई समझने वाला ही नहीं था। ये दो भाइयों के बीच का मसला था मैं तो इसमें कहीं आती ही नहीं थी। मैं खुद कमाउँ और उड़ाऊँ यही तो संतुष्टि थी मेरी। मेरे सामने उम्मीद करने वाला कभी खाली नहीं जाता फिर वो उम्मीद चाहे भावनाओं की हो या अर्थ की हाँ अपनी सत्ता बरकरार रखती थी। किसी जगह से कदम नहीं हटाती थी अगर हटाया भी तो वापिस टिकाने नहीं आती थी। उस दिन भी मेरे होने या न होने पर कोई सवाल नहीं उठा था। बँटवारा तो उन लोगों के बीच और मेरा होना था। तब मुझे समझ आया था कि मैं जो अस्तित्व को ढाल बनाकर बैठी हूँ वो कुछ नहीं है, मैं घर में बिखरी साज-सज्जा भर हूँ, कहने को किसी की बेटी और किसी की बहन। बहुत कोशिशें की थी मैंने कि पापा के सामने ये सब न हो पर मुझे सुनने वाला कोई नहीं था। दोनों भाइयों के बीच मतभेद की दीवार इतनी गहरी हो चली थी एक बार यही लगा कि बँटवारा का इज्जतविहीन आवरण ढक देने से जिंदगी तो बची रहेगी। मैंने उसी वक़्त घर का एक कोना पकड़ लिया था ठीक वैसे ही जैसे दस साल पहले माँ के न रहने पर पकड़ा था। जब से माँ गयी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कौन मेरा दुख देखने वाला था, कभी-कभी तो ये लगता कि ज़िन्दगी में कोई दुख ही नहीं है। मैं साधारण इंसान रह ही नहीं गयी थी। जिस लड़की के पिता और भाई उसकी डोली न उठा सके तो उन्हें रिश्ते के नाम पर क्या नाम देती मैं?
एक-एक कर सारा चक्र आँखों के सामने घूम रहा था कि मैंने कभी रिश्ते के नाम पर किसी के साथ कोई कोताही नहीं की फिर मुझे समझने वाला कोई क्यों नहीं है। मैं इमोशनल थी और इमोशन्स ही मुझे छल गए। मैंने कभी बैंक-बैलेंस को सीरियसली नहीं लिया हाँ रिलेशनशिप को सर्वोपरि माना। हर रिश्ते को बराबर समझा। अपने तो अपने गैरों को भी गले से लगाया ये देखे बगैर कहीं इनके हाथ में छुरा तो नहीं।
फोन पर एक दो तीन नहीं पूरी दस कॉल हो चुकी थी। मैं बात करने का कलेजा कहाँ से लाऊं। तभी मोबाइल की स्क्रीन पर मैसेज दिखा...मैं कितनी देर से नॉक कर रहा हूँ। दरवाजा खोलो...भाई का मैसेज था। अब तक ये क्लियर हो चुका था कि दरवाजे पर भाई है। मेरे पैर नम्ब पड़ चुके थे...अब क्यों आया है ये यहाँ उस वक़्त कहाँ था जब पापा बंटवारे का दर्द नहीं सह पाए थे और निढ़ाल होकर इन्हीं हाँथों में झूल गए थे...और इसकी बीवी इसे ये कहते हुए घसीटकर ले गयी थी कि हम लोगों को रोकने का नाटक है...उस वक़्त तो पलटकर भी न देखा था इसने... फिर अब..मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहे थे। एम्बुलेंस में डालकर पापा को हॉस्पिटल पहुंचाया। तीन दिन तक वेंटिलेटर पर रहने के बाद कब आँखे बंद हुईं और हॉस्पिटल के बाद का सफ़र मुझे कुछ याद नहीं। कई दिनों के बाद जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को बुआ जी के साथ घर पर पाया था। पापा की तस्वीर हार के साथ दीवार पर थी। शांति पाठ के बाद बुआ जी भी चली गयी थीं। तब से आज तक मैं धुत अकेली हूँ। बीच में कई बार दोनों भाइयों के मेसेज आए कि मैं चाहूँ तो बारी-बारी से दोनों के साथ रह सकती हूँ पर मेरा मन रिश्तों से उचाट हो चला था। मैं सम्बन्धो के बीच किसी भी तरह का पुल नहीं बनाना चाहती थी।
इस बीच भाई के मैसेज लगातार आते रहे, फोन भी बजता रहा मैंने कोई रिप्लाई नहीं किया। दरवाजे पर एक बार फिर से आवाज़ें आने लगीं। मेरे कानों की थकान ने दरवाजा खोलना ही ठीक समझा। मन साथ नहीं दे रहा था पैरों को घसीटकर दरवाजे तक ले गयी। खोलते ही पीछे पलट गयी। अंदर आते ही उसने कुछ पेपर्स मेरी तरफ बढ़ा दिए।
"ये कुछ पेपर्स हैं इसपर तुम्हारे साइन चाहिए। दिशी का मेडिकल में एडमिशन कराना है, मुझे पैसों की जरूरत है। मैं इस घर पर लोन करवा रहा हूँ।"
उसने अपनी बात कह दी थी पर मैं चुप रही। मेरे अंदर दर्द और रोष दोनों मर चुके थे। सामने बैठा बेग़ैरत चेहरा मैं सह नहीं पा रही थी। मन में तो आया कि उन पेपर्स के टुकड़े करके मुंह पर मार दूँ मग़र इतनी हिम्मत कहाँ से लाती। वो कोई इंसान नहीं एक रिश्ता है जो रिसता है। माँ-पापा सब कुछ तो खो दिया मैंने, एक यही तो अपनी छत बची है। कहाँ जाऊँगी इससे बाहर निकलकर, इन लोगों के टुकड़ों पर पलने...मेरे अंदर की शून्यता दीवार से टकरा रही है। मैं अब खंडहर बनने से कुछ भी नहीं रोक पाऊँगी न ही इस घर को न खुद को। भाई को मेरी चुप्पी न समझ में आ गयी थी शायद तभी तो वो उठा और तेज कदमों से बाहर ये कहते हुए निकल गया कि सुबह तक सोच-समझकर मैं साइन कर दूं वो उठा ले जाएगा।
मुझे अपनी गुलामी के दस्तावेजों पर साइन नहीं करने हैं। जब मन में ये इरादा कर लिया तो पलटकर मेज पर पड़े हुए पेपर्स भी नहीं देखे। क्यों सोचूँ मैं उसके बच्चे के बारे में क्या उसने पापा के लिए एक बार भी सोचा था। अगर जीती रहूँगी तो लोग जीने की कीमतें वसूल करते रहेंगे...माँ-पापा माफ़ करना मुझे मैं स्वार्थी होना चाहती हूँ...ये सोचकर मैंने नींद की गोलियों वाली शीशी खाली कर दी एक चुप शांति के लिए, एक मुक़म्मल नींद के लिए।

प्रेम में हिसाब कैसा

बहुत देर से माँ मुझे जगा रही थी मैं था कि नींद छोड़ने को तैयार नहीं था। पूरे इक्कीस दिनों का टूअर था इस बार। कितने दिनों बाद आज मैं अपने घर में अपने बिस्तर पर सोया था। न उठने पर माँ ने सारी खिड़कियों से पर्दे हटा दिए। फिर भी न उठा तो चादर खींचा और मेरा मन किया कि मैं शिनचैन की तरह चादर में चिपक जाऊँ या फिर डोरेमॉन के किसी गैजेट से गायब हो जाऊँ। कुछ न कर सका मैं और माँ के आदेश पर नतमस्तक होकर उठना ही पड़ा। 
'क्या हुआ आज फिर कोई आपकी सहेली आ रही होंगी अपनी बेटी के लिए मुझे पसंद करने।' कहता हुआ मैं बाथरूम में घुस गया। यही तो सबसे मुफीद जगह होती थी मेरे लिए सोचने की। यहीं पर तो मैं पूरे दिन की इबारत बना लिया करता था। कैसे गुजारना है पूरा दिन, क्या करना है, श्रद्धा बस स्टॉप पर मिलेगी या उसे घर से पिक करना है। श्रद्धा और मैं, हम दोनों एक ही मल्टी नेशनल कंपनी में चार सालों से काम कर रहे थे। बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी शुरुआती दिनों में ही हमारी। धीरे-धीरे हम लोग पूरे ऑफिस का केंद्र-बिंदु बन गए थे। हम दोनों एक दूसरे में इस कदर खोए थे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा अहसास ही नहीं था। ऑफिस के चलते ज़्यादा बात तो नहीं हो पाती थी पर लंच अक्सर साथ में ही होता था। उसे मेरे टिफ़िन का पूड़ी अचार बहुत पसंद था और मेरे लिए वो रोज ही कुछ अलग सा बनाकर लाती थी। आज भी कुछ नया होगा बस यही सोचकर मैं सारा काम छोड़कर लंच के लिए भागता था। वीक-एन्ड तो किसी न किसी बहाने से साथ में ही गुजारना है। इतने करीब थे हम दोनों कि कभी रिश्ते के बारे में सोचा ही नहीं। दोस्त थे बस इतना काफी था पर लोग ऐसा कब सोचते हैं। काफी दिनों तक ऐसा चलता रहा तो सभी ने बातें बनानी शुरू कर दीं। मैं बेफिक्र सा अपने ट्रैक पर चल रहा था। मेरी एक खास आदत थी कि मैं माँ से हर बात शेयर करता था और श्रद्धा के बारे में भी माँ उतना ही जानती थी जितना कि मैं। 
'उफ़्फ़ सोचते-सोचते कब शावर ले लिया पता ही नहीं चला' अपने आप से बड़बड़ाता मैं बाथरूम से बाहर निकलकर कमरे में आ गया। चेंज कर ही रहा था तभी फोन बजा। फोन कान में लगाते ही श्रद्धा की भर्राई हुई आवाज कान में पड़ी। किसी अनहोनी की आशंका से मन दहल गया। 
"विहान आज मैं ऑफिस नहीं आ रही। माँ की तबियतअचानक खराब हो गयी।"
मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैंने बोल दिया ठीक है तुम घर पर माँ का ध्यान रखो कुछ जरूरत हो तो बताना। 
तैयार होकर ऑफिस जाने की मेरे अंदर जो उत्सुकता थी फोन आने के बाद तो जैसे गायब हो गयी थी। क्या करूँगा आज ऑफिस जाकर, कैसे कटेगा पूरा दिन और लंच तो उसके बगैर जैसे होगा ही नहीं। इसका एक सबसे बड़ा रीज़न यही था कि श्रद्धा बहुत रेयर केस में ही छुट्टी करती थी और उसके होते बाकी लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं रहता था। उसका न होना मीन्स एक उजाड़ सा नीरव वातावरण होना। मैं सोच ही रहा था तभी माँ कमरे में आ गयी, 'अरे क्या हुआ तुझे देर नहीं हो रही कब से तेरा नाश्ता टेबल पर लिए तेरा इंतज़ार कर रही हूं? जरा घड़ी देख क्या बज रहा है।' मैंने नज़र उठाकर देखा घड़ी सवा नौ बजा रही थी और ऑफिस पहुँचने में पूरा पैतालीस मिनट का वक़्त लगता था। मैं भागकर टेबल पर पहुँचा। एक बार तो मन आया कि नाश्ता छोड़ दूँ पर जानता था अगर छोड़कर गया तो माँ भी नहीं करेगी। जब से पापा नहीं रहे तब से घर का ये रूल था अगर मैं शहर में हूँ तो सुबह का नाश्ता और रात का खाना हम दोनों साथ में ही खाएंगे। हम-दोनों का एक-दूसरे के अलावा और कोई था भी नहीं। 
'क्या हुआ कोई परेशानी है क्या?' 
'नहीं माँ कुछ खास नहीं'
'ठीक है आम ही बता दे'
मैं माँ को श्रद्धा के फोन के बारे में बताते हुए बाहर निकल आया। घर से ऑफिस का रास्ता आज मुझे घंटों में लग रहा था। मैं अकेला और लम्बी छुट्टी के बाद ऑफिस पहुँचा था। ऐसा लग रहा था जैसे हर नज़र मुझे ही घूर रही थी। मैं लगातार सहज होने का प्रयत्न कर रहा था पर लोगों की नजरें और मेरा एकाकीपन मुझे असहज करा रहा था। किसी तरह काम का वक़्त तो निकल गया पर लंच वो भी श्रद्धा के बग़ैर सवाल ही नहीं उठता था। लंच का डिब्बा वहीं छोड़कर मैं कैंटीन में बैठ गया। मेरे हाथों में श्रद्धा की गिफ्ट की हुई एक किताब थी। पढ़ते-पढ़ते टाइम कब ओवर होने को था पता ही नहीं चला। चाय लेकर मैं बाहर निकल ही रहा था कि किसी ने पीछे से कंधा थपथपाया। पीछे मुड़कर देखा तो सोमेश मुस्करा रहा था। 
'और बता कैसा रहा टूर?'
'ऑफिशियल टूर जितना अच्छा हो सकता था बस उतना ही रहा।'
'क्यों तेरे साथ तो माल गयी थी?' सोमेश के मुँह से इतना गंदा शब्द सुनकर मैं चीख सा उठा था पर आवाज मेरे अंदर ही कहीं घुट गयी थी। मैंने अपने दोनों हाथ भींचकर जीन्स की पॉकेट में डाल लिए थे इस डर से कि कहीं सोमेश की गर्दन तक न पहुँच जाएं। इतनी मासूम सी श्रद्धा के लिए कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है। उससे मुँह लगे बिना ही मैं अपने केबिन में आ गया। फाइलों में सिर खपाता या उठाकर अपने सिर पर ही रख लेता काम में मन लगने वाला नहीं था। आज पहली बार किसी ने मुझसे ये बोला इसका मतलब तो यही हुआ न कि लोग हमारे बारे में ऐसा ही सोचते होंगे। कुछ देर तो मैं बैठा रहा फिर छुट्टी लेकर ऑफिस से निकल आया। 
गाड़ी निकाली और चल पड़ा। ये डिसाइड तो नहीं किया था कि कहाँ जाना है पर गाड़ी अपने रास्ते चलती रही। पीछे वही सड़क, इमारतें और निशान छूटते जा रहे थे जो श्रद्धा को बहुत पसंद थे। किसी भी वक़्त वो चुप नहीं रहती थी। उसका घर मुझसे पहले ही पड़ जाता था। बस स्टॉप वाले मोड़ पर मैं उसको उतार दिया करता था। वहाँ से उसका घर सामने ही दिखता था। फिर मैं अपने घर चला जाया करता था। आज भी वो बस स्टॉप आ चुका था और मेरी गाड़ी अनायास ही श्रद्धा के घर की तरफ मुड़ गयी। गाड़ी नीचे पार्क करके ऊपर गया। श्रद्धा सेकेंड फ्लोर पर रहती थी। लिफ्ट तक न जाकर मैं सीढ़ियों से गया। डोरबेल बजायी, 20 सेकण्ड्स में ही दरवाजा खुला गया। सामने मुरझाई हुई सी श्रद्धा खड़ी थी। बिखरे हुए से बाल, अस्त-व्यस्त से कपड़े लग रहा था जैसे सुबह से कुछ भी न खाया हो। मुझे अंदर बुलाकर डोर बंद कर दिया। सामने पड़े सोफे पर मुझे बैठने का इशारा कर खुद भी बैठ गयी। एक तो आज पहली बार श्रद्धा के घर आया था वो भी इस कंडीशन में, मैं बिल्कुल भी सहज नहीं हो पा रहा था। श्रद्धा मुझे पढ़ना बखूबी जानती थी वो मेरी स्थिति भांप गयी और मुझे सहज करते हुए बोली, 'चलो मैं तुम्हें अपनी मम्मी से मिलवाती हूँ।' 
मैं उसके पीछे हो लिया। बेडरूम पहुँचा तो एक दुबली-पतली अपनी उम्र से बहुत बड़ी सी दिखने वाली महिला से सामना हुआ। मैंने झुककर अभिवादन किया, प्रति उत्तर में वो मुस्करा भर दीं। फिर श्रद्धा ने बताया कि जब वो बाहर थी तभी मम्मी की तबियत अचानक खराब हो गयी थी। लीना आंटी ने डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने एंजियोग्राफ़ी के लिए बोला था पर मम्मी ने लीना आंटी को मुझे बताने को मना कर दिया था। लास्ट वीक से अब तक मम्मी बेड पर हैं, ये तो मुझे वापिस आकर पता चला। इतना कहते-कहते श्रद्धा की आँखे नम हो गयीं। अब तक तो मैं उसे मस्त, बिंदास और बेफिक्र लड़की समझता था। आज तो बिल्कुल उलट लग रही थी। मम्मी ने श्रद्धा को चाय बनाने को बोला। मैंने बहुत मना किया फिर भी वो ले आयी। एक ही चाय देखकर मैं पूछ बैठा, 'आंटी की चाय?' 
'मम्मी चाय नहीं पीतीं'
'तुम तो पीती हो न, मुझसे अकेले नहीं पी जाएगी।'
'ठीक है मैं अभी बना लूँगी'
'नहीं इसमें ज़्यादा है। मैंने तो अभी लंच किया है।' मैंने ज़बरदस्ती दूसरे कप में आधी चाय श्रद्धा के लिए डाल दी क्योंकि मुझे पता था उसने टेंशन में कुछ नहीं खाया है। दिन भर के बाद श्रद्धा के साथ चाय पीकर बहुत अच्छा सा फील हुआ। आंटी से अनुमति लेकर मैं चलने को हुआ तो श्रद्धा भी खड़ी हो गयी और दरवाजे तक छोड़ने आयी। मैंने दरवाजे के बाहर पैर निकाला फिर पीछे मुड़ गया ये जानने के लिए कि जो कुछ मुझे दिख रहा है बात बस इतनी सी ही है या कोई और परेशानी भी है। अगर कुछ है तो एक फ्रेंड होने के नाते मुझसे शेयर करे। मेरा इतना बोलना था कि वो सुबक पड़ी और इसके आगे की जो कहानी सुनाई मुझे तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ। 
श्रध्दा का इस दुनिया में कोई नहीं था। उसके जन्म के बाद ही पापा ने माँ को डिवोर्स दे दिया था। श्रद्धा की कस्टडी उसकी मदर को मिली। जब वो 12 साल की थी माँ चल बसीं फिर उसकी ताई माँ ने उसे पाला। आज ताई माँ उर्फ बड़ी मम्मी की बीमारी ने उसे तोड़ दिया। बहुत संघर्ष भरा सफर रहा उसका और आज तक कभी मैंने उसके चेहरे पर शिकन तक न देखी। श्रद्धा ने मेरे कंधे पर सिर टिका लिया था। मैं उसे तसल्ली दे रहा था कि मेरे होते कभी खुद को अकेला न समझे। अगले दिन आने का वादा कर मैं सीढ़ियों पर आ गया था। नीचे पहुँचने ही वाला था कि श्रद्धा की आवाज सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो मेरा लंच बॉक्स लिए थी जो शायद मेज पर रह गया था। 
'ये क्या तुमने लंच नहीं किया?' वही पुराना शिकायत का लहजा क्योंकि उसके होते मुझे अपनी दिनचर्या बेहद तरतीब ढंग से सजानी पड़ती थी। 
मुझसे कुछ बोलते नहीं बन पड़ा। उसने बहुत प्यार से मेरी कलाई थाम रखी थी और मेरी आँखों में आँखे डालकर जैसे ढेर सारी नसीहतें दे रही हो। इतने दिनों के रिश्ते में आज पहली बार मैं उसकी आँखों में प्रेम पढ़ रहा था। भावनात्मक लगाव था ये तो जानता था पर क्या प्रेम कहते हैं इसे ये समझना बाकी था अभी। वो ऊपर चली गयी और मैं घर आ गया। 
रोज की तरह शावर लिया और म्यूजिक सिस्टम ऑन कर कमरे में लेट गया। रात के खाने पर माँ ने लंच वाली बात पर जमकर डांटा। बातों ही बातों में श्रद्धा की बात हुई तो मैंने उसके घर जाने वाली बात बताई पर आज पहली बार माँ से जाने क्यों वो सब बातें नहीं बतायीं। अब तक मैं श्रद्धा को लेकर बहुत सहज था पर आज अचानक ऐसा क्यों हो गया? शायद इसी को प्यार कहते हैं। क्या मैं श्रद्धा से प्यार करता हूँ और वो भी..? इन्हीं उलझनों में जाने कब नींद आ गयी। सुबह अपने दैनिक क्रिया-कलापों से निवृत्त होकर नाश्ते की मेज पर था। माँ मेड से जाने किस बात पर बहस कर रही थी बस इतना ही सुन पाया कि आजकल की लड़कियों का तो धंधा हो गया है लड़के फंसाना और इस काम में अब तो माँ-बाप तक साथ देने लगे हैं। मुझे अजीब सा लगा कहीं श्रद्धा को लेकर कुछ...पर ऐसा कैसे हो सकता है। 
मैं घर से श्रद्धा और आंटी को पिक करके हॉस्पिटल गया। एंजियोग्राफी करवाने में शाम हो गयी। मैं घर आ गया। अगले दिन सुबह ही डिस्चार्ज कराकर घर ड्राप किया। इधर दो-तीन दिन में हालात सामान्य हो गए थे पर मेरे दिल का अलार्म बुरा संकेत दे चुका था। श्रद्धा भी प्यार का इकरार कर चुकी थी। उसने तो यहाँ तक कह दिया कि वो बहुत पहले से ही मुझे प्रेम करती थी। अब मेरी ज़िंदगी का मकसद श्रद्धा को खुश देखना भर रह गया था पर माँ की परमिशन पर ही डिपेंड था। माँ से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। 
उस दिन शाम जब घर पहुंचा नीचे सोसाइटी के लोग इकट्ठे थे। पूँछने पर पता चला कि शकील की माँ लोगों से शकील पर दबाव बनाने की बात कह रही थी। लोगों के घरों में गाड़ी साफ करके जो पैसे मिलते हैं वो अपनी महबूबा पर उड़ा देता है अपने बूढ़े माँ-बाप की बिल्कुल भी फ़िकर नहीं। 
माँ की बात पूरी सोसाइटी मानती थी तो उन्हें ये जिम्मा दिया गया कि शकील को समझाएं। माँ ने शकील को डांटने से पहले एक बार नासिरा और उसकी माँ से मिलने की सोची। मैं और माँ नासिरा के घर पहुँचे। पूँछने पर पता चला नासिरा अपनी अम्मी के साथ एक चाल में रहती है। उसके अब्बू का इंतकाल हुए कई बरस बीत गए। नासिरा घर की बड़ी है। दो छोटे भाई-बहन का जिम्मा उसी पर है। अम्मी को दो महीने पहले ट्यूबरक्लोसिस हो गया। दवाइयों का खर्च और खान पान बेचारी नासिरा अकेले नहीं कर पा रही थी। शकील अपनी कमाई का एक हिस्सा नासिरा से शेयर करता था। शकील का बड़ा दिल देखकर माँ की आँखे बार आयीं। बाहर तक आते-आते माँ ने नासिरा की अम्मी को शादी तक का सुझाव दे डाला। 
माँ का जस्टिस देखकर मेरा मन हल्का हो चला था। अब श्रध्दा की मांग में खुशी का रंग सजाने से मुझे कोई नहीं रोक सकता था।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php