आज क्रिसमस है

'सुनो आज की चाय हम साथ नहीं पी सकते क्या...एक समय, एक ही मेज पर जिसका एक हिस्सा तुम अपने लैपटॉप के लिए रखते थे और दूसरा मैं यूं ही मोबाइल पर उंगलियां फिराते हुए तुम्हें कनखियों से ताकने के लिए रख छोड़ती थी, हूबहू एक ही स्थिति में बैठे हुए...याद है पिछले साल...?' मेरा संदेश अग्रसारित होते ही त्वरित उत्तर आ गया.
साथ ही एक चित्र भी... वही मुस्कुराता हुआ चेहरा, मेज की उसी छोर पर...जैसे अपलक मेरी आंखों में देखते हुए दिल में उतर रहा हो...और एक चाय का प्याला मेरे लिए...
शहर बदल गया तो क्या हुआ सर्द रातों का गर्म अहसास तो अब तक वही है.

सोने से पहले


'अरे फ़िर भूल गई.'
अपने आप से बड़बड़ाते हुए बैग की ज़िप लगाते-लगाते ईश को फोन लगाने लगी तभी डोर बेल बजी. फ़ोन बिस्तर पर डालकर दरवाजा खोला रुबीना दी रात के दस बजे आने की माफ़ी मांगते हुए अपने डिज़ाइन किए तीन सूट देते हुए बोलीं,
'ये तेरे टूर के लिए परफेक्ट हैं. मुझे लगा पैकिंग हो जाएगी तभी इस वक़्त आ गई. चलती हूं तेरी सुबह की ट्रेन है न, अब सोना भी होगा.'
'न ऐसा कुछ नहीं दी अगर आपके पास वक़्त है तो प्लीज़ बैठिए.'
'इतना कहती है तो एक कॉफी पी लेती हूं तेरे साथ, फिर तो तू एक महीने बाद आएगी.' मैं किचन में कॉफी बनाते हुए ईश को सोच रही थी. बस दी चली जाए अभी बात करती हूं. कितने कमज़र्फ दिन बीत रहे हैं मैं चाहकर भी उसे वक़्त नहीं दे पा रही. मिलना तो दूर फ़ोन भी... बस ये टूर निपटे किसी तरह.
दी कॉफी की तारीफ़ किए जा रही और मैं उसमें ईश को देख रही थी. उसे भी तो... हे भगवान, मेरे अंदर से ईश कम जैसा हो रहा है...मैं घुट जाऊंगी... दी के जाते ही दरवाजा बंद कर ईश को फ़ोन मिलाने लगी...लो बैट्री...चार्जर हाथ में उठाया ही था कि लाइट चली गई. अंधेरे में किसी तरह कदमों की गिनती करके हैंडबैग तक पहुंची. पॉवर बैंक शायद ऑफिस में रह गया था. मन की पीड़ा से छटपटा रही थी मैं. दरवाजा खोलकर बालकनी में आ गई. आंखों से नींद, पलों में व्यस्तता दोनों ही गायब हो चुके थे. शायद यही वो वक़्त होता है जब मन खत्म हो जाता है और हम बचते हैं महज एक शरीर. 
बालकनी में ही एक पिलर पर टिकते हुए बैठ गई. मेरी बालकनी कंक्रीट सी दिखती है मुझे पौधों के लिए वहां कोई जगह कभी पसंद ही नहीं आयी. एक कंक्रीट की उभरी हुई संरचना पर बैठकर टेरिस की फेंसिंग रॉड पर सर टिका लिया. मैं, ईश और प्यारा अतीत...जब दो घंटे भी आवाज न सुनें तो पेट में बटरफ्लाई घूमने लगती थीं...क्योंकि तब हमारे बीच सब कुछ था और मेरे पास वक़्त भी था. आज समय प्रेम और समर्पण पर हावी हो चला था. सुबह 5 बजे मुझे ट्रेन पकड़नी थी और 3 बजे तक...मैं खुद को ही छोड़ चुकी थी. ईश तुम्हारी गुनहगार हूं मैं... अब कोई सफ़र नहीं बस मुख्तसर सी जिंदगी को अपना बनाऊंगी. सोने से पहले ही सब कुछ कर दूं. नींद का क्या भरोसा कहीं मुकम्मल हो जाए तो?
लाइट आते ही मोबाइल चार्ज करके ऑफिस मेल किया कि मैं व्यक्तिगत कारणों से 15 दिन की छुट्टी लेना चाहती हूं ये डरे बग़ैर कि इस गैर-जिम्मेदाराना हरकत के लिए मुझे सज़ा मिल सकती है. सोचा सोने से पहले ईश को खुशखबरी दे दूं. हमारे बीच समय कोई मानक नहीं रहा. बात करते हुए कभी घड़ी नहीं देखी. 
दो-तीन बार की मशक्कत के बाद फोन लगा.
'मैडम ये जिन साहब का नंबर है उनका ऐक्सिडेंट हो गया है. उनको पुलिस की गाड़ी ले गई मोबाइल यही गिर गया था.'
फोन रिसीव करने वाले ने जो लोकेशन दी वो मेरे घर के पास हाईवे की थी. जरूर ईश मुझे सी ऑफ करने आ रहा होगा. ईश तक पहुंचने के लिए मोबाइल लेने जाना जरूरी था. 
मेरे गले से छाती तक बस अम्ल रिस रहा था. समय के बहाव के शोले हर मीठी याद पर भारी पड़ रहे थे.

काश कि मां रेगिस्तान हो जाती...!

"कहां था बेटा...फोन तक नहीं उठाया..." मां की आवाज डूब रही थी पर तीन हफ़्ते बाद लौटे बेटे को देखकर आंखें चमक उठीं.
"अब बच्चा नहीं रहा मैं और बात-बात पर फोन करना मेरी आदत नहीं. वैसे भी अगर कुछ हो जाता क्या कर लेती. ट्रेन पलटने लगती तो हाथ लगाकर रोक लेती क्या?" बेटा सप्तम स्वर में बोल रहा था तभी फो
की घंटी बजी.
'हां जान, ठीक से पहुंच गया हूं. मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था. और मॉम कैसी हैं...मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था कि इस हालत में तुम्हें छोड़कर आऊं. कैसे देखभाल करोगी उनकी...' कहता हुआ बेटा एक हाथ में ट्रॉली बैग, दूसरे में हैंड बैग और कान के नीचे मोबाइल दबाए हुए कमरे में चला जा रहा था उधर दरवाजे के पीछे खड़ी मां की सांसे घुट रहीं थीं. गर्लफ्रेंड की मां की तीमारदारी के लिए पिछले तीन हफ्ते से 500 किलोमीटर दूर अनजान सी आबो-हवा में जीकर अब शायद वो दर्द की चाशनी में भीगे आंसू अनदेखा कर सकता है. काश कि मां भी रेगिस्तान हो जाती!

स्त्री तुम सृजक हो...


पहली तारीख...


इकतीस दिनों के महीने का
आखिरी वाला दिन
कितनी नाउम्मीदी और
बेचैनी से बीतता है
एक बंधी हुई
तनख्वाह उठाने वाला
साधारण सा मध्यमवर्गीय
परिवार बता सकता है,
रसोईं घर के खाली बजते हुए कनस्तर
खाने की मेज पर कम हुई फलों की मात्रा
फ्रिज में मुँह चिढ़ाती महज पानी की बोतलें
दाल में बढ़ गयी तरलता
बच्चों का आखिरी पन्ने पर घना-घना लिखना
बाबूजी का टूटा हुआ चश्मा धागे से बाँधना
हर महीने की बीस तारीख को
मुन्नी की गुल्लक इस आश्वासन पर तोड़ना
कि इस बार तो सूद के साथ भरेगी
बहुत डरावना होता है
बीस से तीस के बीच का सफर
जब विवशता में एक और दिन जुड़ता है
बहुत खीझ आती है
क्यों लंबी हुई अवधि महीने की
जबकि बाबू तो इस बार भी
वही पतला सा नोटों का लिफाफा देगा,
ये समझे बिना
कि मुन्ना इकतीस को भी
दूध की उतनी ही शीशी माँगता है
काला धुँआ छोड़ता इनका स्कूटर
उसी ईंधन में दफ्तर पहुँचता है
फिर भी गृहणी
उम्मीद पर मुस्कराती है
कि कल पहली तारीख है
सब ठीक हो जाएगा।

मेरी पहली पुस्तक

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