आ अब लौट चलें

 


कल एक इतवार है २०२१ वाला

वही शांत, नीरव सा

घर की खिड़कियों से दूर ख़ाली मैदान देखता

और मोबाइल की स्क्रीन पर कोविड अपडेट लेता हुआ

जीवन बस एक टट्टू ही तो बनकर रह गया

आँखें तो असल रंग की पहचान तक भूल गयीं

अब सोचना पड़ता है कभी-कभी कि

दाता ने हमें हाथ, पाँव, मुँह, पेट भी क्यों दिया?

कुछ अधिक नहीं हो गया ये सब?

बस एक आँख और इतना सा दिमाग़ होता

और दिमाग में भी मेमोरी जैसा आइटम क्यों दिया?

बस गूगल कर दो और जय मना लो.

काम भी तो मिल जाता है बैठे-बिठाये

'वर्क फ्रॉम होम' संजीवनी ही हो गया जैसे

मटर छीलते हुए तीन-चार फ़ाइल निपट जायें

जब बात आये ऑन लाइन क्लासेज की

तो सीधा सा फण्डा…

न्यूटन, आइंस्टीन नहीं बनाने अब,

डॉक्टर, इंजीनियर बन ही कौन जाता

ऐसे माहौल में पढ़ाई करके?

आग, पहिए का अविष्कार पहले से हुआ

अब मोबाइल का भी हो गया.

अगर कुछ करना होगा तो पहिए को ही

प्रतिस्थापित करना है किसी

उपयोगी अविष्कार से…


नहीं, मैं नहीं जाना चाहती कल ऐसे इतवार में

बुला रही हैं 90 के दशक की कुछ शामें

जो यादों में ठहरी हुई हैं

सुबह उठते ही क्लास, कोचिंग, पढ़ाई

और खेल का जाना-पहचाना सा मैदान

इंटरवल पर घण्टे की बीट से भागते मन

नोट्स के लिए तक़रार, प्यार भाईचारा

जब लड़की माल नहीं बहन या दोस्त होती थी

सीमित साधनों में असीमित प्रेम

हम प्रोफाइल से नहीं मन से जुड़ते थे

लाइक, शेयर पर नहीं यारियों पर मचलते थे...

हाँ, मुझे चाहिए वही छुट्टी वाला इतवार

हर चेहरे पर एक सुकून, एतबार.


PC: Elin Cibian

जाने क्यों!

 



जब सार्थक हो मौन

तो माप आता है

आकाश गंगा से लेकर

पृथ्वी की बूँदों का घनत्व,

समझ आता है

दिव्य भाव-भंगिमाएँ,

तुला पर रख गुज़रता है

अकाट्य तर्क

....

अगर असफल होता है

तो बस

प्रेम का उतार चढ़ाव पढ़ने में.

जाने क्यों नहीं पढ़ पाता

प्रेमिका का निःछल मन!

"खरी-खोटी" पुस्तक के लिए


नयी-नयी पुस्तकों की प्रतीक्षा करना मेरे लिए कुछ ऐसा है जैसे मानसून की बारिश की प्रतीक्षा. इसी कड़ी में एक बार पुनः प्रतीक्षा को विराम लगा पुस्तक "खरी-खोटी" प्राप्त करने के साथ. इसे पूरा पढ़ने के साथ ही ये मेरे जीवन का दूसरा ऐसा 'व्यंग्य संग्रह' बन गया जिसे मैंने पूरा पढ़ा. 


लघुकथा, मिनी कथा, कहानी और लम्बी कहानी इन चार विधाओं से सुसज्जित हैं व्यंग्य, सामाजिक व्यंग्य और पारलौकिक व्यंग्य. जैसा कि नाम से स्पष्ट है पारलौकिक तो इसे पढ़कर नाम के अनुरुप ही आनन्द आता है. पृष्ठ संख्या ५ से प्र० सं० ३८ तक आपको कैलाश पर्वत, क्षीर सागर, ब्रह्म लोक के दर्शन होंगे और इस पावन कार्य में गाइड नारद आपका साथ देंगे. इनमें विवाह, वाहन और सुख के प्रसंग ऐसे हैं जो अमिट छाप छोड़ते हैं मस्तिष्क पर. यदि पूरा पढ़ लिया आपने तो दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं कि कौन सा वाहन किसका. पढ़ते ही ये भ्रम भी मिट जाता है कि हम पृथ्वी वासी ही दुःखी नहीं अपितु किसी प्रभु के पास भी कोई सुख नहीं.

सामाजिक व्यंग्य में पहला व्यंग्य "ब-दस्तूर" मानव बनाने की प्रक्रिया समझाने के साथ प्रारम्भ हुआ कि किस तरह सभी आकार, रंग एवं रुप के मानवों को गढ़ा गया. पूरा पढ़ते हुए एक मुस्कान तिरछे होंठों पर पसरी ही रहती है. "वीज़ा-पासपोर्ट" के माध्यम से आम लोगों को होने वाली परेशानियों और मिलने वाली सुविधाओं पर कटाक्ष है. आगे बढ़ते हुए "अंत भला तो सब भला" सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार है. गाँधी जी की यात्रा और माया का ठग ब्रह्मांड अत्यंत रोचकता समेटे हैं. "बिकाऊ" के माध्यम से स्त्री की वस्तु-स्थिति को परोसा है. कुल मिलाकर १६ सामाजिक-व्यंग्यों के जरिए समाज के प्रत्येक कोने पर प्रहार करने के प्रयास में लेखक सफ़ल दिखाई पड़ते हैं. 

पृष्ठ संख्या ७७ से ८६ तक लिखे हुए सभी व्यंग्य एक से बढ़कर एक हैं. "निरामिष-सामिष" हमारे उपभोक्ता वाद पर चांटा है कि हमें पौष्टिकता के नाम पर क्या मिल रहा! "धान बोना" मुहावरे को पूर्णतया सार्थक करता है. "दिल का मसला" और "हार्ट रिपेयरिंग सेंटर" के माध्यम से आधुनिक समय के लव, लव ट्राइएंगल और विवाहेत्तर सम्बन्धों की एक झलक मिलती है. "हॉट पैंट" उन विद्यार्थियों के लिए है जो हिंदी माध्यम से पढ़कर अँग्रेजी के छात्रों के मध्य पहुँच जाते हैं और इसका खामियाजा शर्मिंदगी के रुप में उठाना पड़ जाता है. "समीक्षा" के लिए कुछ भी कहना सही नहीं होगा.

कुल मिलाकर लेखक ने अधिकांश विषयों को समाविष्ट करने की चेष्टा की है. जहाँ ये विषय हास्य के साथ रोचकता परोसते हैं वहीं ज्ञान वर्द्धन भी करते हैं. पुस्तक त्रुटि रहित है. शब्दों की सघनता एकाग्रता के साथ पढ़ने से मन को थोड़ा भटकाती है. कहीं-कहीं चलन वाले शब्दों का प्रयोग अखरता है.


उपरोक्त संग्रह माननीय अमरनाथ जी ने लिखा है. इसके पहले भी आपके छः संग्रह (दो खण्ड-काव्य, दो कहानी-संग्रह, एक भजन-संग्रह एवम एक द्विपदी व्यंग्य-संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं. लगभग २० से अधिक संग्रह में सहयोगी रचनाकार की भूमिका निभायी. इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र सम्पादन अथवा सम्पादन कार्य किया. आने वाले समय में प्रकाशन हेतु अनेकों मोती कलम से निकलने को आतुर हैं. पुस्तक का प्रकाशन 'अभियान' अभियंता साहित्यकार एवं सांस्कृतिक संस्थान, लखनऊ से हुआ. पुस्तक का मूल्य एक सौ रुपये मात्र है.


माननीय लेखक महोदय एवं मित्र माननीय अनूप कमल अग्रवाल "आग" जी को पुस्तक प्रेषित करने हेतु अशेषाभार! आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए कामनारत!


शुभाकांक्षी

 

आओ शिव उद्धार करो




जब प्रेममयी धरा छलकी

तब अम्बर गहराया नभ पे

नदिया लहर निचोड़ चली

तो सागर भी रोया छल से

ज्यों वायु किलोरे मार रही

त्यों रुप प्रसून बिसूर रहा

यूँ प्रेमी हिया में आस जगी

के प्रेम का आविर्भाव हुआ


फिर प्रेम चला मुँह मोड़ एक दिन

रुठ गये खुशियों के सब पल-छिन

प्रेमी मन का प्रकट चीत्कार हुआ

कलुषित वेदना का यलगार हुआ


यूँ अगन जली हिमशिला गली

आहत हठ, भागीरथ फिसली

इक गंगा प्रलय की ओर चली

हाहाकार मचाने को, निकली


है आस शिव रौद्र रुप गर्जन वाली

किस तरह जटा में प्रलय सम्हाली

करबद्ध जप रहे हैं, सब नाम प्रभु

दिखला दो छवि अब वही निराली

विश्वास का तारा

अँधेरे जब हँसते हैं

तो बहुत ज़ोर ज़ोर से हँसते हैं

बिल्कुल तुम से

मैं उस हँसी को महसूसने के लिए

पूरा दिन एक पैर पर चलकर

चलते-चलते निकाल देती हूँ

फिर भी उजालों से

कोई शिकायत नहीं करती कभी

और तुम आते भी हो तो

मौन के रेशमी सूत में लिपटकर...

एक हठ से धुला रहता है तुम्हारा चेहरा.

तुम्हारा मौन टूटना कहीं मुश्किल है

आकाश में विश्वास का तारा टूटने से.

कान्हा की कलाएँ और देह त्याग

 प्रतिपदा में चित्तवृत्ति

अंगदा प्रवृत्ति हो

पूर्णिमा का पूर्णामृत

देह तेरी वृत्ति हो.


प्रभास क्षेत्र सोमनाथ

देह छोड़ चंचला

वाणी मादक, गन्ध मादक

द्वैत भाव हर गया



:ऊपर की चार लाइन में कान्हा की चार कलाएँ हैं जिन पर राधा मर मिटी थी. नीचे वर्णित है कान्हा ने सोमनाथ के प्रभास क्षेत्र में देह त्याग किया था. इससे पहले उन्होंने द्वैत भाव पर एकाकार की भावना संचारित की थी.

ऐ मेरी ख़्वाहिश!

 ऐ मेरी ख़्वाहिश!

आ पहना दूँ तेरे पाँवों में झाँझर

तो जान लिया करुँगी तुझे आते-जाते

तू जाना तो उन तक जाना

और आना भी तो बस उनकी होकर.


ऐ मेरी ख़्वाहिश!

आ तेरी दीद में दूँ सिंहपर्णी की झलक,

वो बदल देते हैं मिजाज़ अपना

मौसम की तरह

तू रख आना उनकी आँखों पर बोसा.


ऐ मेरी ख़्वाहिश!

आ तुझे लिबास दूँ सरहद की वर्दी

जो क़ुबूल हो इश्क़ में मेरी शहादत

तो तू बदल आना उनकी भी

सुस्त रहने की आदत.


ऐ मेरी ख़्वाहिश!

जो मैं टूट जाऊँ जीते-जीते

तू उनकी ऐसे हो जाना

जैसे मेरी थी ही नहीं कभी

बाँसुरी बन जाना उनके होठों की

उनको रिझाना, के बाक़ी न रहे उनके पास

दिल टूटने का कोई बहाना;

साये से जुदा मेरी मौत कहाँ मुमकिन

मैं आऊँगी फिर से

एक और ज़िन्दगी के लिए

लेकर आऊँगी सुकून की झप्पी

तब मुझे दिलाना उनकी चिरायु झलक.

बस एक उनकी ही तो ज़िद है मुझको

न उनके जैसा कोई होगा

न उनसे अलग कोई चलेगा

गहन दुःख की स्मृति

 जब कभी गुज़रोगी मेरी गली से

तो मेरी पीड़ा तुम्हें किसी टूटे प्रेमी का

संक्षिप्त एकालाप लगेगी

पूरी पीड़ा को शब्द देना कहाँ सम्भव?

मैंने तो बस इंसान होने की तमीज़ को जिया है

अपनी कविताओं के ज़रिए...

मन के गहन दुःख को जो व्यक्त कर सकें

वो सृजन करने का मुझमें साहस कहाँ?

डूबते सूरज की छाया में मैं मरघट लिखूँगा

तुम अपने स्मित की अंतिम स्मृति पढ़कर चली जाना.

मेरी पहली पुस्तक

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