तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही
हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है
जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ
परिणय का सुख पा लेती हैं
फिर हर बार तुम अपने परिचय में
क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे
और बुझे बुझे से?
तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं
जो स्वयं महकता है
किसी के स्पर्श का आदी नहीं?
बस एक बार नहला दो
अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से
चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!

 
 
 
