हर साल नया साल




समय बदल रहा है

पल बदल रहा है

कल के लिए

आज और कल बदल रहा है

हर साल का यह शगल रहा है


पत्ता टहनी से बिछड़ा

धरती पात से

चकोर चाँद से बिछड़ा

चातक स्वात(इ) से

जीवन से बड़ा जंगल रहा है


कलछी भात से बिछड़ी

भात स्वाद से

मन रिश्तों से बिछड़ा

रिश्ता विवाद से

इन सबसे बड़ा दलदल रहा है


रौनक सभ्यता से बिछड़ी

प्रगति संयम से

एकता पीढ़ी से बिछड़ी

पीढ़ी पराक्रम से 

ना किमख़ाब ना बड़ा मलमल रहा है

 


एक बार फिर












एक बार

तुम्हें देखना है सामने

पास से

इतनी पास

कि हाथ बढ़ाकर छू सकूँ

चेहरे का स्पर्श कर जान सकूँ

तुम्हारा स्वाद

होठों पर उँगली रख रोक सकूँ

तुम्हें कुछ भी कहने से

और फिर लगा लूँ तुम्हें गले से

जो उधार है हम पर

जिसकी लौ तुमने ही तो लगायी थी

हर बात से खुद को झाड़ कर

कोई एक इस तरह

कैसे अलग कर सकता है ख़ुद को

जैसे किसी बच्चे ने

अपने कपड़ों से झाड़ दी हो मिट्टी

और मिटा दिया हो निशान गिरने का


चाय गिर जाती है

तो मैली होती है कमीज.

कहा था तुमने

सोचो जब प्रेम गिरा

तो क्या मैला नहीं हुआ मन


स्नेह की डोर

दोनों ओर से बँधती है

दोनों ओर से खिंचती है

छल गये उस बराबरी को तुम

कुव्वत नहीं थी

तो कवायद ही क्यों की


चाहती हूँ मैं मान जाऊँ

तुम्हारी बात

ले लूँ विराम

मगर उससे पहले

देखना है तुम्हें

सामने से

पढ़ना है विराम तुम्हारी आँखों का

मेरी पहली पुस्तक

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