आतंक से जन्मा दर्द हूँ मैं,
मेरे गर्भ में छिपी हैं
वहशियत की दास्तानें;
काल के कपाल पर
तांडव करता रहता हूँ
तभी तो उपजती हैं तारीखें
याद है न छः अगस्त का वो मनहूस सा दिन
और नौ अगस्त, भूल गए क्या
...कैसे भूलोगे
मनाई जाती है मेरी बरसी हर साल,
मेरे आग उगलते सीने पर
रख देते हो श्रद्धांजलि के फूल,
क्यों करते हो ये नाटक
जब मुझे रौंदते ही जाना है;
वाह सत्ता-लोलुपों, मौत के सौदागरों
क्यों खेलते हो विनाश का ये खेल,
उगाते हो अपने खेतों में
जैविक हथियारों की फसलें,
भावनाओं को दहनते
रसायनों के जंगल बनाते चले जा रहे,
मन को इतना छोटा कर लिया
कि सीमाओं पर मरने लगे,
घुसपैठिए न आ जाएं कहीं
सियाचिन ग्लेशियर पर चौकसी करने लगे,
न कुछ बन पड़े तो
दूरस्थ देशों से आका आते हैं बंदरबांट करने को;
तुम हथियार भी बनाते हो,
तुम मध्यस्थता भी कराते हो
फिर भी सीमा पर अपना लाल भेजते हो
और चैन से नहीं सो पाते हो;
कब समझोगे और रुकोगे
प्रेम के बीज चुनोगे
हथियारों की फसल लहलहाने से पहले;
समय के पन्ने पलटो महसूसो मुझे
कैसे मेरी छाती फटी थी
जब हिरोशिमा, नागासाकी की धरती हिली थी,
सहम गया था मैं भी
जब लाशों के चीथड़े उड़ रहे थे,
दर्द में कलपते जिस्म
समाने को धरती की छाती चीर रहे थे,
सियासी नग्नता उछल-उछलकर
मनहूसियत की सलामी ले रही थी,
मैं सिसक रहा था,
दहक रहा था
कि ये देखने से अच्छा हो
किसी तोप के मुँह पर बाँध दिया जाऊँ,
दर्द हूँ मैं तो क्या हुआ
फिर भी दुखता हूँ,
तुम तो एक इंसान ही हो,
मत दोहराओ इतिहास,
क्या रखा है मिसाइल में, तोपों में
हथियारों के ज़खीरों में
एक और नागासाकी
एक और हिरोशिमा
और मैं....?
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
दर्द हूँ फिर भी दुखता हूँ
यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- II
तुम ही नहीं तो...
उन होठों से लगा चाय का प्याला
या हो मेरे भूखे पेट का निवाला
न हो वो तो सब स्वाद फ़ना है
दोस्त तुम ही नहीं तो रौनक कहाँ है?
मैं सोचूँ गर तुम्हें, तुम सामने मुस्कराओ
मुझे ईश से पहले तुम नज़र आओ
वार दी है मैंने तुझपर किताबों की दौलत
हो बन्दिगी में शामिल, ज़िंदगी बनाओ
मेरी हथेलियों पर तेरा नाम लिखा है
दोस्त तुम....
तुम्हारे नाम अपनी सुबह-शाम लिखूँगी
तुमपर ही अपनी उम्र तमाम लिखूँगी
देवालय हो मेरा घर या मदिरालय की राह लूँ
ईश से भी ऊपर तुम्हारा नाम लिखूँगी
तुमसे है मंदिर-मस्जिद, अजान-दुआ है
दोस्त तुम...
यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- I
जन्मदिवस की असीम शुभकामनाएं
जन्मदिन पर बधाई देना
बीमा की प्रीमियम भुगतान जैसा है
हर वर्ष नियत समय पर
भले ही किसी कार्यक्रम का
कोई काल-चक्र रुक जाए
पर स्नेह के इन पलों में असंतुलन न आए,
अक्षरों में न तो नेह ठहरता है
और न शब्दों में बधाई समाती है
फिर भी अपने और अपनों में भेद कराते
ये शब्द ही तो थाती हैं;
कुछ भी नहीं है इस अकिंचन के पास
कुछ शुभकामना के पल अशेष हैं,
ओस पर चमकती धूप मुबारक़ हो तुम्हें
बादलों की गोद में इंद्रधनुष का रूप
मुबारक़ हो तुम्हें
सागर सी गहराई, हिमालय सी ऊँचाई
क्षितिज की थाह जो दुनिया देख न पाई
प्रकृति की सुंदरता मुबारक़ हो तुम्हें
अग्नि की पावनता मुबारक़ हो तुम्हें
लम्हों की अनवरतता मुबारक़ हो तुम्हें
युगों की सत्ता मुबारक़ हो तुम्हें
परिस्थितियों की विषमता तुम्हें छू न पाएं
गांडीव, सुदर्शन बन रक्षा कवच मुस्कराएं
माथे पर रहे अक्षत, रोली का टीका
बारिशों का जल आचमन को आए,
समय की नब्ज थामकर
अंकित कर दो अपने हस्ताक्षर
उम्मीदों के आसमान पर
लिखते रहो स्वर्णाक्षर,
कर लो दुनिया मुट्ठी में कोई बड़ी बात नहीं
छोटे से मन की बस इतनी सी अभिलाषा है
ये किस्से भी न...
झूठ के पांव से चलते हैं किस्से
बहुत लंबी होती है इनकी उमर
हर मुसाफिरखाने पर रुकते हैं
करते ही हैं थोड़ी सी सरगोशी हवाओं में
फिर बांधकर पोटली निकल पड़ते हैं;
ये किस्से भी बड़े अजीब होते हैं
महसूस सच के बेहद करीब होते हैं
किसी के लिए शहद भरे हों जैसे
तो कहीं कड़वे करेले नसीब होते हैं,
तितलियों के पंखों में बँध जाते हैं
पक्षियों के ठौर पर इतराते हैं
विदेशी बन ठाठ से जाते हैं कभी
तो प्रवासी बन मन को लुभाते हैं कभी
उम्मीदों की गिरह से निकलते हैं
दुआ-ताबीज के बेहद करीब होते हैं
ये किस्से भी न..
ये चलने का मुहूरत नहीं देखते
और न ठहरने का ही समय
दबे पाँव महफ़िल की शान बनते हैं
ये मुखारबिन्दु से तभी निकलेंगे
जब होंठ हो हाथों से छुपे
एक मुंह से दूसरे कान का सफर तय करते हुए
न-न में भी महफ़िल की रौनकें बन जाते हैं
सच के कंधे पे अपनी मैराथन पूरी करके
उसे पार्थिव बना मुस्कराते हैं
अमीर होकर भी कितने गरीब होते हैं
ये किस्से तो बस....
राजा-रानी के किस्से
नाना-नानी के किस्से
दम तोड़ते रिश्तों के
हर घर की कहानी के किस्से
घर से गलियों से निकले
संसद के गलियारों के किस्से
हीरेजड़ित अमीरों के हो कभी या
टाट की पैबन्द से निकले गरीबों के हिस्से
ये किस्से अगर मर भी जाएं तो क्या हो?
मग़र ये बड़े बदनसीब होते हैं
ये किस्से तो उफ्फ्फ....
वेज तड़का मसालेदार होते हैं कभी
तो नॉनवेज भी निकलते हैं
साधारण शुरुआत होती है इनकी
परोसने तक गार्निश होकर मिलते हैं
पचते नहीं हैं किसी पेट में ये
तभी तो कानों से होकर मुँह से निकलते हैं
होतेे ही रहते मकानों के अंदर
गूँगी ये दीवारें बोलती कब हैं इनको
मग़र कान फैला ही देते हैं जग में
हे प्रभु, किस्से पच सकें वो ऑर्गन बना दो
या इंसानी नियत को हीलियम से भारी बना दो,
औरो की गिराने की चाहत में नंगा हुआ जा रहा
मुफ़लिसी, दर्द के ये सबसे करीब होते हैं
ये किस्से भी छि ...बड़े अजीब होते हैं
जीजी को ताई से लड़वा दें
आंखों के पहरे को नीम्बू मिर्च लटका दें
सच के गर्दन पे तलवार रखकर
पड़ोसी की बीवी को लुगाई बना दें
बेटी के ब्याह का न्योता पिता को भेजकर
आहों की भी जगहंसाई करा दें,
अपनी न किसी और की सही
श्वसुर के दामाद को ओलम्पिक में मेडल दिला दें
कहीं हो न जाए उलटफेर इतनी
काश कि शोक सभा में खुद को स्वर्गीय बना दें,
पर कहाँ सच के इतने नसीब होते हैं
ये किस्से भी न इतने ही अजीब होते हैं।
तब भी हम होंगे...
साइनाइड
तोहमत के गीले तौलिए से
दर्द में तपता बदन पोछते हुए
तुम्हारे शब्दों से उभरा
हर फफोला रिस रहा है,
उन मुस्कराहटों की सीरिंज में
अम्ल भरकर बौछार करते हुए
ताजा हो रहा है वो पल एक बार फिर
कि जो मन से कभी उतरा ही नहीं,
आज फिर ज़िन्दगी
हस्ताक्षर चाहती है
मौत के दस्तावेज पर,
काश प्रेम सायनाइड होता
तो स्वाद न बताना पड़ता!
...ओ लड़कियों
ओस की बूंद से भीगने वाली लड़कियों
कैसे सीखोगी तुम दर्द का ककहरा,
आटा गूंधते हुए
नेल पेंट बचाती हुई लड़कियों
ज़िन्दगी मिलती नहीं दोबारा,
फैशन के नाम पर निर्वस्त्र होकर
बेवजह की नुमाइश करती लड़कियों
क्यों बचाती हो खुद को
पायल, बिछुए से
महावर के रंग से
अगर लिपिस्टिक का रंग ही
महज टैग है तुम्हारे लड़की होने का
तो आजीवन आवारापन भोगो,
मत करो समझौता विवाह जैसे रिश्ते के नाम पर
मत बाँधो आत्मा के मोहपाश में खुद को
आजीवन देह बनाकर रहो;
दोयम दर्जे की लगती है न तुम्हें
घर की चारदीवारी में सजी
सम्मान के साथ जीती हुई लड़कियाँ,
क्यों उलझाओ उनकी तुलना में खुद को
वो तो नींव हैं घर की
सम्मान हैं रिश्तों की
उनके लिए चूल्हा-चौका कुंठा का विषय नहीं,
जीन्स, शर्ट पहनकर बाइक चलाने वाली
लड़कों की बराबरी करती लड़कियों
बेवजह दम्भ में ये क्यों भूल जाती हो
क्या लड़कों ने कभी बराबरी का प्रश्न उठाया?
क्या तुम छुपा सकती हो देह के भूगोल को?
क्या तुम प्रणय और समर्पण के बदले मिले
भाव और प्रेम का अंतिम बून्द तक
रसास्वादन नहीं करना चाहती?
क्या तुम्हें अपने प्रिय के आलिंगन से
वो अनुभव नहीं होता
जो लड़की होकर होना चाहिए?
क्या तुम श्रष्टि की वाहक बनने से
खुद को पदच्युत करना चाहती हो?
तुम्हीं से तो दुनिया खूबसूरत है,
बेहतर है कि तुम अपनी गरिमा बनाए रखो
बजाय बराबरी के फेर में पड़ने के,
अगर बराबरी करनी है तो निकलो मैदान में
बलात्कार नाम के जहर का कड़वा घूंट
उन्हीं को पिलाकर आओ,
बदला लेकर आओ अपनी बहनों की अस्मत का;
ये सच है कि कानून पेचीदा गणित में उलझायेगा
खोखले वादों से इज्जत न बचा पाएगा
तो जागो देवियों
एक, दो, तीन, चार और एक दिन हजार
इतनी ही संख्या में जाओ
हवस के दरिंदो को वीरांगना का अर्थ बताओ,
नहीं कर सकती न बलात्कार किसी लड़के का तुम
फिर स्वीकार लो लड़की होना,
लड़की होकर तुम अक्षम तो नहीं,
लड़कों से किसी मायने में कम तो नहीं,
बराबरी तो वो तुम्हारी भी नहीं कर सकते,
अगर तुम्हें मुखाग्नि देने का हक़ नहीं दिया गया
तो उन्हें भी चूड़ियां पहनने के हक़ से
वंचित रखा गया,
फिर कौन सा समीकरण बनाना है?
मनु ने किसी की बराबरी का
परचम नहीं लहराया था
पर मणिकर्णिका और झांसी की रानी के नाम से
अपना लोहा मनवाया था,
पाश्चात्य सभ्यता का
नगाड़ा बजाने वाली ओ लड़कियों
भारत का इतिहास उठाकर देखो,
सीता वन को गयीं थी
राधा प्रेममयी थी
गार्गी, अपाला को याद करो
रज़िया सुल्तान सा इतिहास रचो
कल्पना, इंदिरा, अरुणिमा को पहचानो,
और तहे-दिल से ये बात मानो
समंदर समंदर ही होता है
नदी नदी ही रहती है
कौन कहता कि नदी समंदर में विलय होकर
अपना अस्तित्व खोती है,
नदी तो अपनी रवानी में बहती है,
गंगा का प्रादुर्भाव धरा पर
भागीरथ के तप से ही हुआ था
और समंदर लंका विजय में
राम के रोष का विषय बना था;
सनस्क्रीन लगाकर खुद को
सन से छुपाती ओ लड़कियों
तुम तो स्तम्भ हो
नाजायज बदलाव की मांग को
आवाज़ मत उठाओ
तुम तो अनन्तिम वेतन आयोग की
खामोश चीत्कार हो
जो बदलता तो महज
एक महकमे की गड्डियों की मोटाई है
पर हर वर्ग पर भारी पड़ती
उसकी अंगड़ाई है।
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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प्रेयसी बनना चाहती है वो पर बिना पहले मिलन प्रेम सम्भव ही कहाँ, सुलझाते हुए अपने बालों की लटें उसे प्रतीक्षा होती है उस फूल की जो उसका...