ऐसे तो रिटायर मत हो बाबूजी

आज बाबूजी उठे नहीं थे
अम्मा काम समेटने में व्यस्त
कि घर थोड़ा सा सही हो जाए
तो उनके नहाने का पानी गर्म करें
बार-बार घड़ी देखतीं
फिर छनकते हुए बर्तन सहसा सम्हालतीं
कहीं नींद न टूट जाए,
रोष तो बस बाबूजी को था
अब क्या?
अम्मा तो यही चाहती ही थीं
कि आज वो सोते रहें
और अपने उनतालीस सालों की
अनवरत थकान मिटा लें,
जिम्मेदारियों की परिधि में घूम-घूम कर
कितने हवाई चप्पलों का तला
गायब ही कर दिया था,
महीने में एक दिन मिलने वाली तनख्वाह
जी पाती थी महज 30 दिनों के
राशन की उम्मीदें
बेटे की पढ़ाई,
बेटी का ब्याह
ये सब तो उस अग्रिम राशि के प्रतीक थे
जिसे गरीबी निवारक 'कर्ज' कहते हैं
जो सपने देखने की अनुमति भर देता है,
सेवानिवृत्ति से पहले कर्ज निवृत्ति हुई
फिर मना था जश्न उस सफर का
जो उनकी मुस्कान थी,
सीधे शब्द और लिबास वाले बाबूजी
दस से पांच और पांच से दस
दो पालियों में जीते रहे
सुबह का शंखनाद
ट्रेन की सीटी
लंच की घण्टी
और पीक आवर का ट्रैफिक जाम
दिनचर्या में फर्क न डाल पाते
अम्मा लंच के डिब्बे के साथ
शाम का सब्जी का थैला देना न भूलतीं
अपने सन होते बालों पर भी
चेहरे की ताजगी सजीव रखते,
कभी अम्मा कहती बाल काले करने को
तो मुस्करा देते,
'तुम भी तो लिपस्टिक के सारे शेड
भूल चुकी हो'
अपनी जोहराजबीं को
आंखों ही आंखों में निहाल कर देते,
जिंदादिली की मिसाल हैं बाबूजी
बहुत इच्छा जताते..
...अभी कुछ दिन और काम करूं..
अम्मा गमले में लगे
पौधों का वास्ता देतीं
'अब तक तो बरगद बनकर छांव दी
अब तुम्हें इस ठौर का होकर रहना है'
........
बोगनविलिया की
अचानक मुरझाई पत्ती को देखकर
अम्मा अंदर भागी...
वो चीखती रही
मगर बाबूजी नहीं उठे!

Quote on beti

साँसें छीन ले तू, मेरे पर कुतरने से पहले
खुदाया तेरी ज़मीं पर सियासत बहुत है!


PC: GOOGLE


आहत भारत

नीलाभ छितरे गगन के तले
भावनाओं से बंजर जमीं पर
श्वेत शांति मध्य में समेटे
गति की आभा, केसरिया शौर्य लिए
मैं हूँ विक्षिप्त भारत माता
प्राणवायु मुझे छूकर निकलती है
जल की थाती जीवन का संचार करती है
अरुणाभ से मैं जगती हूँ
श्वेत चाँदनी में खिलती हूँ
प्रेम और वैराग्य से पोषित हूँ
सीप की गोद में खिलकर
हिमालय के मुख में मिलती हूँ
स्वाभिमान का प्रतीक, पर
विक्षिप्तता की दहलीज़ पर हूँ
मेरे पैरों में समृद्धि और स्नेह के
सूचक बना दो
ए जीवन, मेरे आगमन का मंगल गा दो

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- III

अंतिम भाग
शिव अपनी बात कह चुके हैं और शायद सही भी कहा..बुरे वक़्त की भरपाई कहीं से भी नहीं होती। कितनी अच्छी सी थी वो कॉलेज की लाइफ..हमारी बाल-सुलभ हरकतें और फिर एकाएक किसी अजनबी इंसान के इतना करीब आ जाना कि जीवन को छोड़कर एक-दूसरे को जीने लगना। मेरी आँख ही इसीलिए खुलती थी कि शिव की सुबह कहीं हुई होगी। एक जूनून था कॉलेज जाने का, उसके साथ वक़्त बिताने का। कितना रोई थी उस दिन मैं जब बस-स्टॉप पर शिव का पैर स्लिप कर गया था...व्रत रखा यहाँ तक कि मंदिर जाकर भगवान जी से भी बोला शिव को तुरंत ठीक करें चाहे मुझे चोट लगा दें...जबकि शिव बोलता रह गया था मामूली चोट है। एक अलग ही अनुभव से गुजर रही थी मैं। कहते हैं माँ की आँखें सब पढ़ लेती हैं, माँ सरीखी दीदी ने मेरी आँखों में शिव को पढ़ लिया था बाकी की सारी औपचारिकताएं उन्होंने पूरी कर दी थीं। अपना बचपन उन्हीं की गोद में जिया था मैंने, माँ-पापा को तो बस तस्वीरों में देखा। मुझसे लिपटकर बेपनाह रोई थी वो जब मेरे हल्दी लगे हाथों को शिव ने थामा था...मेरे सास-ससुर को बार-बार यही समझाती रही कि ये बच्ची है, नादान है गलतियाँ करेगी आप समझा देना, माफ़ कर देना...शिव को भी ढ़ेर सारी हिदायतें दीं थीं। मेरी विदाई के कुछ दिन बाद ही चल बसी शायद इतना अकेलापन न सह पाई। मेरे लिए शादी न करने का फैसला तो उसने कर लिया था पर क्या उसे छोड़कर मेरा शादी करने का निर्णय सही था, मुझे ये सवाल कचोटने सा लगा। ये मैंने तब नहीं सोचा था। प्रेम का आवरण इतना मखमली होता ही है कि एक बार पैर रख दो फिर वापसी नामुमकिन। मैं शिव के खोल में इस कदर समाई और कुछ न देख सकी।
शिव और उनकी फैमिली बरेली से दिल्ली शिफ्ट हो गई, सबका यही मानना था कि एनवायरनमेंट चेंज होने से मुझे अलग फील होगा। मुझे इन लॉज़ के रूप में माँ-पापा दिखाई देते, बहुत कम्फ़र्टेबल रहने लगी उनके साथ। शिव को नॉएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिल गई, उसके लिए नॉएडा से दिल्ली का सफर मुश्किल हो रहा था। सभी की सहमति से नॉएडा में एक फ्लैट लेकर मैं और शिव रहने लगे। शायद यहीं से नींव पड़ी मेरी आँखों के उन काले घेरों की जो वक़्त की बेबसी की दास्तां लिख रहे थे। शिव काम में व्यस्त रहने लगे और मैंने खुद में ही खालीपन इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। उस टू बेडरूम फ्लैट को कितना सजाती सँवारती, बस यही काम बचता था मेरे हिस्से। शिव ने शुरुआत में बहुत कोशिश की कि मैं भी अप्लाई कर दूँ पर मुझे तो बस शिव की पत्नी बनना था। जब भी बात होती मना कर देती, पहले तो हर वीक-एन्ड पर दिल्ली जाना होता था फिर व्यस्तता इतनी बढ़ी कि महीने में भी एक बार मुश्किल से जा पाते। मैंने वक़्त न देने की शिकायतें करना शुरू कर दिया तब यही जवाब मिलता...कुछ दिन माँ-पापा के पास जाकर भी रह सकती हो। इसी तरह दिन बीतते रहे और हम लोगों के बीच दरार ने जगह बनाना शुरू कर दिया। दुखता तब नहीं जब हम दूर होते बल्कि पास होकर भी दूर होना बहुत तकलीफ देने लगा जैसे रिश्ता कहीं रिस रहा हो भीतर। 
उस दिन का इंतज़ार 364 दिनों से कर रही थी मैं, शिव का बर्थडे था। एक दिन पहले ही रिटर्न गिफ्ट का प्रॉमिस ले लिया था मैंने। बहुत मन से तैयार हुई थी बाहर जाने के लिए, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब ऑफिस से शिव जल्दी घर आ गए थे। हम दोनों अपने फेवरिट रेस्टोरेंट की कार्नर टेबल पर थे। एक अरसे के बाद शिव रोमांटिक मूड में थे। मेरी ख़ुशी आसमान में टँगे इंद्रधनुष की तरह खिली नज़र आ रही थी तभी ऑफिस से फोन आया, कॉर्पोरेट सेक्टर से किसी की मीटिंग थी और शिव ने उसे हमारे साथ डिनर पर बुला लिया। उस दिन पहली बार मैंने बहुत बेइज्जत महसूस किया था क्या शिव मुझे अपना एक दिन भी नहीं दे सकता..कुछ घंटे भी नहीं? किसी तरह डिनर कम मीटिंग का समय ओवर हुआ हम घर आ गए।
..'मालि तुम मुझे समझने की कोशिश क्यों नहीं करती, अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। मैं जानता हूँ तुम्हें अकेलापन लगता है बहुत कोशिश करता हूँ तुम्हें वक़्त देने की पर ये जिम्मेदारियां भी तो समझो। जानती हो जिन्हें मैंने डिनर के लिए इनवाइट किया था उन्हीं की वजह से मैं मॉरीशस जा पाउँगा'..मैं चिढ़कर उठ बैठी थी...'अभी बेकार बताया था जब पहुँच जाते तब बताते..' 
...'उफ़्फ़ कुछ समझोगी भी...तुम्हें सरप्राइज देना था..' ये कहते हुए तुमने वो जेब से वो लेटर निकालकर मेरी गोद में डाल दिया था। तुम्हारी सफलता पर मेरा मन झूम गया था पर मैं सहज नहीं हो पा रही थी।
'...तुम्हें ख़ुशी नहीं हुई क्या?' तुम्हारे इस प्रश्न पर मैं कुछ नहीं बोल पाई थी। शायद मेरे अंदर तुम्हें खोने का दर्द बढ़ता जा रहा था। मुझे तुमसे दूर जाने की शिकायतें थीं और तुम्हें मेरे बदल जाने की। किसी रेलवे ट्रैक की दो समानांतर पटरियों की तरह हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तुम अपने मॉरीशस जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गए मैं पहली बार अपने फ्लैट पर आई माँ की तीमारदारी में। याद है जब उन्होंने बच्चे की फरमाइश की थी...चाहती तो मैं भी यही थी पर तुम्हारा इतना कड़क न सुनकर मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई थी....
मैं शिव के जाने से पहले ही माँ के साथ दिल्ली आ गई। बातों ही बातों में मैंने माँ से बोला कि मैं हमेशा के लिए बरेली शिफ़्ट होना चाहती हूँ और ये बात शिव को इतनी बुरी लग गई कि बरेली आते ही मुझे तलाक के पेपर्स मिल गए। मुझे ज़िन्दगी खेल सी लगने लगी थी और तलाक़ भी उसी खेल का एक हिस्सा। शिव का साथ न होने की भरपाई करने के लिए घर के पास ही एक क्रच ज्वाइन कर लिया। 
इन चार दीवारों के अंदर पल रही नौ महीने की उदासी बादलों की खामोशियों में छितर गई थी। मेरी बाहों में सोया हुआ शिव इतना प्यारा लग रहा था जैसे पहली मुलाक़ात में लगा था...सही तो कह रहा है शिव मैं अगर उसको अपना पति नहीं मानती तो उसके नाम का सिंदूर क्यों लगा रखा है...ये बिछुआ, मंगलसूत्र सब तो उसी के नाम का है पर मुझे महज इनके नाम पर ज़िन्दगी को रीतते नहीं जाना है बल्कि समय को जीना है। शिव के मोबाइल पर हो रही रिंग ने मुझे वर्तमान में ला पटका।
"हैलो"
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"जी मैं बोल रहा हूँ"
------
"नहीं, मैंने 15 दिनों की लीव ले रखी है।"
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"नहीं__बट स्पेशल ही है। मैं शादी करने जा रहा। आप 21 तारीख तक सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दीजिए। मैं अवेलेबल नहीं रहूँगा।" मेरा चेहरा दर्द, पछतावे और गुस्से से लाल हो गया। आँखों से आँसू बह निकले... क्या इतने करीब पाकर मैं शिव को फिर खो दूँगी।
मोबाइल गद्दे पर पटककर शिव ने मुझे बाहों में भर लिया।
"देखो शादी के लिए मुझे फ्रेश लड़की चाहिए...ह्म्म्म याद आया एक थी नीलिमा।"
"शिव"
खिड़की से छनकर हल्की सी धूप चेहरों पर आ गई और हम दोनों के मन में जमी यादों की सीलन को गरमाहट मिल गई।

कहानी समाप्त

सज़ायाफ़्ता स्त्री

स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...

दर्द हूँ फिर भी दुखता हूँ

आतंक से जन्मा दर्द हूँ मैं,
मेरे गर्भ में छिपी हैं
वहशियत की दास्तानें;
काल के कपाल पर
तांडव करता रहता हूँ
तभी तो उपजती हैं तारीखें
याद है न छः अगस्त का वो मनहूस सा दिन
और नौ अगस्त, भूल गए क्या
...कैसे भूलोगे
मनाई जाती है मेरी बरसी हर साल,
मेरे आग उगलते सीने पर
रख देते हो श्रद्धांजलि के फूल,
क्यों करते हो ये नाटक
जब मुझे रौंदते ही जाना है;
वाह सत्ता-लोलुपों, मौत के सौदागरों
क्यों खेलते हो विनाश का ये खेल,
उगाते हो अपने खेतों में
जैविक हथियारों की फसलें,
भावनाओं को दहनते
रसायनों के जंगल बनाते चले जा रहे,
मन को इतना छोटा कर लिया
कि सीमाओं पर मरने लगे,
घुसपैठिए न आ जाएं कहीं
सियाचिन ग्लेशियर पर चौकसी करने लगे,
न कुछ बन पड़े तो
दूरस्थ देशों से आका आते हैं बंदरबांट करने को;
तुम हथियार भी बनाते हो,
तुम मध्यस्थता भी कराते हो
फिर भी सीमा पर अपना लाल भेजते हो
और चैन से नहीं सो पाते हो;
कब समझोगे और रुकोगे
प्रेम के बीज चुनोगे
हथियारों की फसल लहलहाने से पहले;
समय के पन्ने पलटो महसूसो मुझे
कैसे मेरी छाती फटी थी
जब हिरोशिमा, नागासाकी की धरती हिली थी,
सहम गया था मैं भी
जब लाशों के चीथड़े उड़ रहे थे,
दर्द में कलपते जिस्म
समाने को धरती की छाती चीर रहे थे,
सियासी नग्नता उछल-उछलकर
मनहूसियत की सलामी ले रही थी,
मैं सिसक रहा था,
दहक रहा था
कि ये देखने से अच्छा हो
किसी तोप के मुँह पर बाँध दिया जाऊँ,
दर्द हूँ मैं तो क्या हुआ
फिर भी दुखता हूँ,
तुम तो एक इंसान ही हो,
मत दोहराओ इतिहास,
क्या रखा है मिसाइल में, तोपों में
हथियारों के ज़खीरों में
एक और नागासाकी
एक और हिरोशिमा
और मैं....?

मेरी पहली पुस्तक

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