कविता का अस्तित्व

PC: Pexel


दिन पर दिन वृहद होती मेरी इच्छाएं
एक दिन मेरी कविताओं का कौमार्य भंग कर देंगी,
उभरते हुए शब्दों के निशीथ महासागर में
गहराई का एक मुहावरा भर बनकर रह जाएंगी
सिर टिकाए हुए भाषा और देह के व्याकरण में
विलुप्त हो रही स्मृतियों में तलाशी जाएंगी
बावजूद भी इसके क्या संभव होगा
कविताओं के जरिए क्रांति लाना
या फ़िर बन जाएँगी वो अघाई हुई औरतें
जिन्हें मतलब औरत जाति से नहीं होता
बल्कि बराबरी का दिवस मनाने मात्र से होता है.
अस्वीकृत होने की कुंठा मन में छुपाए
निकल पड़ेंगी एक अनवरत यात्रा के लिए
जहाँ से लौटकर कोई संदेशा नहीं आता
मौत भी इन्हें देखकर करवट बदल लेती है
और सो जाती है एक बेमौत नींद...
या फ़िर बन जाएंगी आग
और सिमट जाएंगी एक दिन चूल्हे के कोने में,
घरों के ईशान कोण में
जहाँ आज भी धूप की सुगंध नथुने तर करती है;
कविताओं का अस्तित्व तलाशने की इच्छा
रचती रहेगी नई कविताएँ
और उगाती रहेगी
विलुप्ति के जड़ पर उग रहे अस्तित्व के कैक्टस.

जीवित शिलालेख

उस रोज़ मर गयी थी माँ
लोग सांत्वना दिए जा रहे थे,
'सब ठीक हो जाएगा
मत परेशान कर ख़ुद को...'
कुछ भी ठीक नहीं हुआ
क्योंकि कुछ ठीक होने वाला नहीं था
वो देह भर गरीबी अर्जित कर
कूच जो कर गयी थी.
ऐसे ही जब मरे थे बापू
कुछ भी नहीं था तब
सांत्वना भी नहीं!
काकी, ताई, दाऊ, दद्दा...
सब इसी तरह जाते रहे.
ग़रीब के हिस्से आता ही क्या है
अलावा जिल्लत के?
अब मुझे मौत से डर नहीं लगता,
रात के अँधेरों से डर नहीं लगता,
दर्द की नग्नता से डर नहीं लगता,
मेरे भीतर का मौन कचोटता नहीं है मुझे
मैं वो जीवित शिलालेख बन चुकी हूँ
जिस पर बादल बरसकर भी नहीं बरसते,
हवा का ओज कौमार्य भर देता है
निष्प्राण देह में,
काल भृमण करता है मुझ पर
मेरी उम्र बढ़ाने को...

नेह का दस्तख़त

सब कुछ भूलने से पहले
मन किया
कि सब कुछ याद कर लूँ
बहुत ज़्यादा
एक बार फ़िर
शायद कोई बात मिल जाए ऐसी
कि मन कसैला हो जाए तुमसे
...सब कुछ ढूंढ लिया
फ़िर मिला,
'धत्त...पागल होते हैं वो
जो पावन मन के प्रेम की
सुंदरता को खोते हैं
मुझे तितली की सुंदरता चाहिए
तो किताबों में क़ैद करना कैसा
...उड़ने दूँ उन्मुक्त होकर
उसे ख़ुद के साथ'
मैं, तितली
और नेह का वो धागा
जो एक अदद हस्ताक्षर है
मन के उजलेपन का!

एक पिता की चुपचाप मौत

मूक हो जाते हैं उस पिता के शब्द
और पाषाण हो जाती है देह
जो अभी-अभी लौटा हो
अपने युवा पुत्र को मुखाग्नि देकर.
न बचपन याद रह जाता है
न अतीत की बहँगी में लटके सपने
आँखें शून्य हो जाती हैं
ब्रह्मांड निर्वात,
बूँद-बूँद रिसता है दर्द का अम्ल
हृदय की धमनियों से,
सब कुछ तो है
और कुछ भी नहीं है,
फफक पड़ती है मेरु रज्जु
किस पर झुकेगी बुढ़ापे में,
रिस जाती है फेफड़ों की नमी
किन हाथों में थमाएगा दवा का पर्चा,
सहसा ही निकाल फेंकता है
आँखों पर लगा चश्मा
कि बचा ही क्या दुनिया में देखने को;
अंत्येष्टि कर लौटा पिता
मरघट हो जाता है स्वयं में
हर आग चिता की तरह डराती है उसे,
चुकी हुई रोटी की भूख
चिपका देती है उसकी अंतड़ियाँ,
पल भर में लाश बने उस देह की आग ठंडी होने तक
मर चुका होता है पिता भी;
बची-खुची देह भी समा जाना चाहती है
किसी कूप में
जब जमाना करने लगता है
पाप और पुण्य का हिसाब-किताब.

सुनो

कब आओगे
ख्वाहिश की तरह
एक मजबूत चट्टान बनकर
जिस पर तैर रहे
शब्दों के तिलचट्टों का
रत्ती भर भी असर न हो

कब आओगे
आंसू की तरह
इतने तरल होकर
कि हम भी पिघल जाएं
और समा जाएं तुममें
किसी को खबर न हो.

तुम रोशनी मशाल की

तुम तेज़ हो
तुम ओज हो
तुम रोशनी मशाल की
देखकर तुम्हें, ज़िन्दगी
जी उठी शमशान की
स्वप्न एक कच्ची उमर का
उतावला जो कर गया
भाल पर बांधे कफ़न
वो उतर फ़िर रण गया
रात चांदनी, सुबह
वस्त्र बदल अा गई
डूबकर ओज में
तेज में नहा गई.

श्री अमिताभ बच्चन जी को दादा साहब फाल्के पुरस्कार की बहुत बहुत बधाई 🙏

आज सुबह चाय पीते हुए

तुम्हारा होना
रोज़ रोज़ होना
कोई आदत नहीं
न ही लत है मेरी, क्योंकि
तुम तो सुबह हो,
मेज पर रखे चाय के दो कप
तुम्हारे साथ घूंट घूंट पीना
और बूंद बूंद स्वाद लेना
बालकनी पर छितरे बेल की
खिड़की से झांकती पत्तियां
मेरी आंखों से पढ़ी
तुम्हारी कविताओं का
स्पर्श चाहती थीं,
ये खिल सी उठती हैं
जब मेरे होंठों पर
तुम्हारे शब्दों के इन्द्रधनुष रचते हैं
गोया इनके भी कान हों
इतने संवेदी
जैसे मेरे कान तुम्हारी कविता को,
आज वो बेल मुरझा गई
पढ़ी तो थीं आज भी
तुम्हारी कविताएं
पर आंखों से कही नहीं
न ही होंठों से बाची गईं
...फ़िर कभी हो सकेगी क्या
वो चाय तुम्हारे लिए
और वो कविता हमारे लिए.
....
आज सुबह चाय पीते हुए
पी गई थी जाने कितनी उलझनें
बस एक चाय ही तो नहीं पी थी
आज सुबह...

अग्नि मेरा गीत है


मैं निशा की चांदनी
मांग अंधेरा सजा है
भोर के आने से पहले
नर्तनों का गीत हो
तांडव की बेला हो जैसे,
कांपते हांथों से
मेरी देह का श्रंगार कर दो
भाव पर धरकर विभूति
रोम रोमांचित मेरा हो.
तुम अलग
मैं पराकाष्ठा हूं विलग की
नेत्र पर दृष्टि समेटे
खोलने को हों ज्यों आतुर
भस्म दो
तन पर मलूं मैं
शीत मेरा ताप हो...

जा ही रहे तो लौटकर मत आना!

मरना ही चाहते हो न तुम
तो आराम से मरो और पूरा मरो
रत्ती रत्ती मत मरना
मरने के प्रयास में कहीं जी भी मत उठना
इस दुनिया की नारकीय पीड़ा भोगने को दोबारा,
नहीं तो मार दिए जाओगे प्रश्नों की बौछार से,
तब तक मरो जब तक कि
ये न बता सको
रक्खा ही क्या है इस दुनिया में
ताकि आने वाली नस्लों को
सुनाई जाए शौर्य गाथा तुम्हारे नाम की
इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो जाओ तुम
एक तुम ही तो हो संतान आदम और हव्वा की
बाक़ी सब सरीसृप वर्ग के प्राणी हैं
किसी की कोख़ से कहां जन्में
कायिकी प्रवर्धन का परिणाम जो ठहरे;
तुम जी नहीं सकते तभी मरोगे
आत्मा तो उसी पल मार दी थी
जब जीने की जिजीवषा मरी थी,
तुम असीमित में सीमित हो
स्थूल में नगण्य हो
संभावनाओं की चौखट पर बैठे
वो द्वारपाल हो जो किसी स्त्री के
मैल से उत्पन्न विवेक शून्य प्रतीत होते हो,
अपने न होने में मगर
कभी होना न तलाशना
तुम वो भाव मारकर जा रहे हो
जिसे आत्मीयता की पराकाष्ठा कहते हैं.

बिटिया

हर चिड़िया के माथे पर एक उदासी
और पंखों में एक उमंग होती है
हर बार जमीन से
जितना भी ऊपर जाती है
हर चिड़िया के माथे पर
अा जाती है शिकन, फ़िर भी
हर चिड़िया अपनी चोंच में
नेह भर तिनका लिए रहती है.
बहुत कुछ ऐसी ही होती है बेटी
सब कुछ करती है सभी के लिए
पर चाहकर भी उड़ नहीं सकती
कभी अपने लिए.
क्योंकि हर बिटिया
परों वाली चिड़िया नहीं होती.

जीवन के बाद भी जीवन है कहीं!

बहुत ही कम लोग परिचित होंगे
इस शब्द के मायने से
शब्द से तो बहुत से लोग होंगे
पढ़ रखा होगा अख़बार में, पाठ्य-पुस्तकों में
कभी सुना भी होगा दूरदर्शन पर
अभी हाल ही में खबरों का आकर्षण रहे थे
जब लाखों की संख्या में इनके बेघर, विस्थापित होने की बात अाई थी;
सही समझे, वही हैं ये
जिनका कोई ठौर नहीं होता
सामान्य से नाक नक्शे वाले
हमारे तुम्हारे जैसे, पर
हम जैसों से प्रकाश वर्ष की दूरी तक.
याद आया पुरानी फिल्मों में देखते थे
हू ला ला जैसा कुछ,
ऐसे भी नहीं होते ये.
शहर की आबादी से मीलों दूर बसे
अपने ही समूह में रहते हैं
पेड़ों के घनी छांव में
वही तो इनका जीवन है.
लोग वृक्षारोपण करते हैं, सही होगा
पर असल मायनों में जंगल तो इन सबका
बचाया और बसाया हुआ है.
शहर की पगडंडी को पारकर
जब लगेगा हम जंगलों में हैं
और वहां भी मीलों चलना होगा
चलते रहना क्योंकि कोई सुराग नहीं मिलता जीवन का
फ़िर दूर कहीं कुछ चूजे दिखेंगे
कुछ दूरी पर मिलेगी बकरियों की सुगबुगाहट
तब कहीं जाकर महसूस होगा
कि जीवन के निशान बाकी हैं अभी
दूर से दिख रहा पुआल और बांस की दीवारों पर रखा खपरैल
कहीं कहीं मिट्टी का लेपन किया हुआ
अहसास दिलाता है वहां किसी के रहने का
पास जाने पर मिलता है बस एक रोमांच
कितना भी पुकारते रहो बाहर से
कौन सुनने ही वाला है, भीतर तक जाकर भी
शून्य ही रहती है संवेदना क्योंकि
इंसान बसते हुए भी नहीं मिलते वहां सभ्यता के निशान
उन्हें सलीका नहीं आता आगंतुक को बिठाने का
टूटी खाट को गिराकर बैठने पर ताकते रह जाते हैं विस्मय से
बदन पर गमछी या फ़िर छापा साड़ी लपेटे युवा स्त्रियां
वृद्ध स्त्रियां बदन ढक लेती हैं एक गमछी भर से
बहुत सम्मान के भाव में 'गो' का संबोधन
शिक्षा का ककहरा भी नहीं पता,
नहीं देखी है इन्होंने सड़क और रेल,
कई कई दिनों तक सोना पड़ता है भूखों
उबले हुए भात में पानी और मिश्रण मिलाकर
'हड़िया' पीने को मजबूर;
जाने कौन सी धारा के शिकार हैं ये
कि इंसान होकर भी इंसानी अस्तित्व से वंचित
उठानी होगी एक आवाज़ इनके हक़ में
जोड़ना होगा इन्हें भी समाज की मुख्यधारा से
या फ़िर मनाते रहेंगे आदिवासी दिवस हर वर्ष
जब तक इनका अस्तित्व ही ख़त्म न हो जाए!

यह कविता मित्र अपर्णा अन्वी (स्वयंसेवी संस्था एकजुट की डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर) के साथ हुए संवाद पर आधारित है.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php