मास्क वाला प्रेम



चलो न

खुले में प्रेम करते हैं

सूरज की रोशनी

जहाँ ठहर जाए ऊपर ही,

जैसे प्रेम के देवता ने

अपने पंख फैलाकर

हमें दे दी हो

हमारे हिस्से की छाँव;

ऐसा करते हैं न

रख देते हैं एक मास्क

उजास के चेहरे पर

और जी लेते हैं प्रेम भर तम.

शब्द ही शिव हैं


शब्द ही शिव हैं
कभी प्रेम के रचे जाते हैं
कभी उद्वेग
तो कभी अंत के.

आच्छादित करते हैं
मन की तृष्णा को
समय के बहाव
और नदी के वेग को.

है शब्द का अमरत्व ये
कर में सरल है
दिमाग में भुजंग हैं
मन में महत्वहीन बन जाते हैं.


कविता का शीर्षक माननीय अनूप कमल अग्रवाल जी "आग" के शब्दों से उद्धत है 🙏


हिसाब बराबर



मेरे कंधे पर चुप्पियाँ बिठाकर जब-जब वो बटोरने जाता है उसके कंधे के लिए तितलियाँ... मुझमें प्रेम दोगुना हो जाता है...प्रेम और प्रेम के लिए की गयी ईर्ष्या.

अब मैं भी थमा दिया करूँगी उसकी यादों को ख़ामोशी. कुछ भी हो प्रेम तो बने रहने देना है न!

पॉजिटिव में पॉजिटिव


हम अभी जस्ट मैरीड ही हैं. हाँ नहीं तो लॉक डाउन में ही कर लिए शादी. क्या है कि अम्मा जी को नया अचार रखना था सो मर्तबान ख़ाली करने थे. जबे देखो तबे परधान जी का फ़ोन मिलाए के कहें…"लाली की अम्मा से कहि देव हम बीस जन आई के भौंरी डरवाय लै जैहैं. बियाह तो अबहिने करी लें. हमार अचार न चलिहे तब तक." बेचारी अम्मा ने पिता जी का उठना-बैठना मुश्किल कर दिया. पिता जी कहते ही रह गए कि हम अच्छा मर्तबान खरीद के दे देई जो समधिन मान जाए. अम्मा को डर था कहीं लॉक डाउन के चक्कर में बिटिया कुँआरी न रह जाए. ख़ैर पंडित जी को कुछ दे दिवा के बियाह हो गया.

आज तीसरे दिन बारिश के बाद तनिक धूप निकली तो कमरा में रोशनी हुई. ई थोड़ा और पास आकर बोले,

"सुनो बहुत सुंदर लग रही हो. आज देखा तुमको रोशनी में...आओ न एक सेल्फ़ी खींचे"

"हाय दैया, अभी कोई देख ले तो"

"आओ न हम झुंझुन का मोबाइल मांग के लाए हैं" कहते हुए ई हमारे बाजू में खड़े होकर सेल्फ़ी लिए. हम शरम के मारे अपना मुंह इनके पीछे छुपा लिए. अम्मा जी के आवाज़ देते ही मोबाइल जेब में रख के बाहर भागे.

ई का सामने देखकर हमारे हाथ पैर फूल गए. इनके बुशर्ट पर हमारे होंठ के निशान... वो भी पीछे से. हम दरवाजा, दीवाल सब बजा दिए पर ई मुड़े तक नहीं. "हाय दैया-3" कहकर हम दिवाल पर खोपड़ी दे मारे. थोड़ी ही देर में ई झनझना के बुशर्ट फेकते हुए कमरे में घुसे.

"कर लियो मन की...का जरूरत थी यहाँ चुम्मी लेने की?"

हम कुछ नहीं बोले तो ढूंढते हुए अंधेरे में आ गए.

"अरे हम गुस्सा कहाँ रहे जो तुम बुरा मान गई. बस एक बार सब ठीक हो जाए हम भी घूमने जाएंगे. पियार करने को थोड़ी मना किए वो तो सब लोग चिढ़ा दिए तो…"

"मग़र हम चुम्मी नहीं लिए थे. हम तो बस…"

"का हम तो बस...अब बोलो न?"

हम कुछ बोलते इससे पहले ही मीठी अपने चाचा को बुला ले गई. हम चुपचाप खड़े कमरे की खिड़की से छनकर आ रही धूप देखने लगे. 'का अजीब है अंधेरे में दिखे न और उजाले में धूल के कण भी सोना माफ़िक चमके. इंसान सच माने तो का माने…'

तनिक देर में घर में हाहाकार मच गया. इतना सुना कि मीठी के चाचा को परधान के घर बुलाया गया. सब एक-दूसरे को चुप करा रहे हैं, कोई न जान पाए कि इनका कॅरोना टेस्ट मंडप वाले दिन हुआ था. हम जड़ के समान खड़े रह गए. अम्मा तनिक देर में आकर हमारे कमरे की कुंडी बाहर से लगाने लगीं. हमने बहुत पूछा कोई कुछ न बोला, ऊपर से सब हमको ऐसे घूरे जैसे हमही कुछ किये हैं.

आज तीन दिन हो गए. किसी से कोई बात नहीं. दिन में दो बार खाना पानी मिलकर फिर दरवाजा बंद. शौच, स्नान के लिए पीछे से निकलकर जाना फिर वहीं वापस आना. कित्ता बदल गया छः दिन में हमारा संसार बस एक अम्मा की हठ की वजह से. जब तब खिड़की से धूप छनकर आ जाती है और उसमें बिखरे रेत के कण हमें अहसास दिलाते हैं कि उजली दुनिया में कितनी गंदगी है!

सुमधुर परिणय



नेह के बंधन हृदय में, संग सजनी पथ खड़ी
मुझको तो ऐसा लगे, बस यही विदा की घड़ी

माँग पर टीका तुम्हारे, रात तारों से सजी
कह दो के तुमको भी, थी प्रतीक्षा मेरी
नभ झुका है सामने, हमको ये आशीष देने
मेरे लिए प्रमाण हो तुम हर साक्ष्य से बड़ी

नेह है, अर्पण है अब, तुमको है मेरा समर्पण
दुःख तुम्हारे सब मेरे, प्रेम का तर्पण इसी क्षण
योद्धा हूँ मैं तुम्हारा, तुम मेरी हो सारथी
ये अमिट सिंदूर रेखा माँग पर जब है चढ़ी

इंद्रियां कब वश किसी के, तुम बनी छठ इंद्रिय
काशी, काबा, गंगासागर, मेरे सब तीरथ यही
सात अजूबे दुनिया में, तुम हो मेरी आठवीं
अर्धांगिनी हो तुम मेरी, मैं तुम्हारा हूँ ऋणी

श्रीमान सुधांशु अंकल और श्रीमती सुधा आंटी की प्रेममय वैवाहिक वर्षगाँठ के सुअवसर पर!

बंकिम और वंदे



आज यानी कि 27 जून बांग्ला साहित्य के धरोहर बंकिम चन्द्र चटर्जी की पुण्यतिथि है. साहित्य जगत में इनका योगदान अविस्मरणीय है परंतु "वंदे मातरम" के माध्यम से जन-जन तक पहुँच गए. ७ नवम्वर १८७६ बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ की रचना की. मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में लिखा गया.


वन्दे मातरम्

सुजलां सुफलाम्

मलयजशीतलाम्

शस्यश्यामलाम्

मातरम्।


शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्

फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्

सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥ 


कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले

कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,

अबला केन मा एत बले।

बहुबलधारिणीं 

नमामि तारिणीं

रिपुदलवारिणीं 

मातरम्॥ २॥


तुमि विद्या, तुमि धर्म

तुमि हृदि, तुमि मर्म

त्वम् हि प्राणा: शरीरे

बाहुते तुमि मा शक्ति,

हृदये तुमि मा भक्ति,

तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥


त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

कमला कमलदलविहारिणी

वाणी विद्यादायिनी,

नमामि त्वाम्

नमामि कमलाम्

अमलां अतुलाम्

सुजलां सुफलाम् 

मातरम्॥४॥


वन्दे मातरम्

श्यामलाम् सरलाम्

सुस्मिताम् भूषिताम्

धरणीं भरणीं 

मातरम्॥ ५॥

(आनन्दमठ से संकलित)


१९५० में ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत बना. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का "वंदे मातरम" के बारे में संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है…


"शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले. मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा. (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)"


वंदे मातरम गीत से बढ़कर एक भावना है जिसकी अनुभूति भारत देश में रहने वाले हर नागरिक को करनी चाहिए. यही कारण है कि विविधताओं से भरे इस देश में आज भी सर्व सम्मति से एकाकार है.

जय हिंद! जय भारत!

प्रेम में विरह गीत



 वेदना की देहरी पर मृत्यु का आभास करने

पीर की हल्दी सजाए, तुमको आना ही पड़ेगा


शुष्क साँसे थम रही हैं, शब्दों का तुम पान दो

भींच कर छाती से मुझको, अधरों पे मेरा नाम लो

किस घड़ी ये साँस छूटे, देह हो पार्थिव मेरी

पुष्प लेकर अंजलि में, शूल का आभास करने

प्रेम का रिश्ता निभाए, तुमको आना ही पड़ेगा


न कोई मंगल की बेला, न शहनाई का शोर हो

न हो कोई डोली विदा की, न चतुर्शी की भोर हो

छोड़ूँ जब बाबुल की नगरी तुम डगरिया में मिलो

नेह के अंतिम क्षणों में बस मिलन का विषपान हो

तीस्ते नीले गरल में, अमिय का आभास करने

हिय, दर्द के बंधन छुपाए तुमको आना ही पड़ेगा


ये धरा साक्षी समर की, प्रेम से पावन है नभ

हैं जलिधि का नीर आँखें, आशीष देते गिरि सब

आए आचमन को पयोधि, पवन अस्थियों के तर्पण को

आग के श्रंगार तक रुक जाना तुम विसर्जन को

वेदना के इन क्षणों में, वेदना का ह्रास करने

रति की वाणी मुख लगाए, तुमको आना ही पड़ेगा.

क्षमा प्रार्थी

ब्लॉग जगत के अपने सुधी मित्रों से हाथ जोड़कर क्षमा मांग रही हूँ. पिछले कई महीनों से मेरे पोस्ट पर आ रही प्रतिक्रियाओं को पढ़ पा सकने में असमर्थ थी कारण कुछ तकनीक का मुझसे छूट जाना या ऐसा कह लीजिए कि मेरा तकनीकी रुप से अशिक्षित होना. इतने दिनों से आ रही प्रतिक्रिया मॉडरेशन के लिए चली जाती थी और मेरे पास कोई संदेश भी न आता. ब्लॉग बनाते समय मैंने मॉडरेशन मोड नहीं लगाया था तो कभी जाँचने का प्रयास भी नहीं किया. संभवतः थीम बदलते समय असावधानी वश लग गया. आप सभी सुधीजनों के ऊर्जावान शब्दों को मैं इतने दिन तक पढ़ नहीं पाई...आज इस बात का बहुत दुःख हो रहा है.

यह कोई पोस्ट नहीं एक क्षमायाचना है, कृपया आप लोग इसे अन्यथा न लीजिएगा. मैं अकिंचन अभी इतनी बड़ी लेखक नहीं हूँ कि आपके निरन्तर मिल रहे स्नेह को मॉडरेट करूँ. अगर आप में से कोई भी मुझे ये बताना चाहे कि ये प्रक्रिया हटाकर अविलम्ब प्रतिक्रिया कैसे प्रकाशित हो, तो सहर्ष स्वागत है.

धन्यवाद 🙏

कालिदास की जयंती पर विशेष


हमारा इतिहास प्रकाण्डता से कितना परिपूर्ण है इसका आभास पिछले पन्ने खोलकर देखने पर होता है. कालिदास, हां यह एक ऐसा नाम है जिनकी कल्पना करने पर सहसा हमें मूर्धन्यता से विद्वानता तक की राह याद आती है. हम सुमिरन कराते चलें कि कालिदास की गणना इतिहास के उन मूर्खों में की जाती है, जिनका विवाह संस्कृत भाषा की प्रकांड विदुषी विद्योत्तमा से हुआ. अनजाने में हुए विवाह से विद्योत्तमा को बहुत ठेस पहुंचती है और वह एक मूर्ख को अपना पति स्वीकार न करके उन्हें घर से निकाल देती हैं साथ ही यह भी कहती हैं कि मेरे पास आना तो विद्वान बनकर आना. मूर्ख कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से विद्वान बन गए. विद्योत्तमा की धिक्कार को उन्होंने नकारात्मक न लेकर सकारात्मक लिया और उन्हें ही अपना पथ प्रदर्शक एवं गुरु माना.
कालिदास के जीवन से दो बातों की गहन शिक्षा मिलती है… पहली तो ये कि पथ कितना भी दुर्गम हो, गन्तव्य तक पहुंचना असम्भव नहीं. दूसरी शिक्षा यह कि मौन व्याकुलता और विकलता से परे एक ऐसी शक्ति है जो किसी के भी मनोभावों को कई अर्थ में प्रवाहमान रख सकता है. हम किसी के मौन को अपना गुरु मान लें और सकारात्मक सोच पर चलना प्रारम्भ कर दें तो अजेय रह सकते हैं.
सुनना यदि श्रेष्ठ है तो मौन की अनुभूति श्रेष्ठतम.


आईने वाली राजकुमारी: भाग IV


चेतक हवा से बातें कर रहा और राजकुमारी स्वयं से. उनका मन उलझनों से घिर रहा था और वो उड़कर महल तक पहुँचना चाहती हैं. महल में पहुँचते ही सर्वप्रथम रानी माँ के गले लग जाएँगी और उन्हें विस्तार से बताएँगी कि उनके साथ क्या-क्या घटित हुआ. जीवन के अठारह वर्ष यही तो करती आयीं हैं. माँ के अंक में शिशु की भाँति समा जाना. विह्वल सी होकर चेतक को एड़ पर एड़ लगाए जा रहीं थीं. सहसा ही चेतक की धीमी होती गति ने संकेत दिया, महल समीप ही है. मुख्य द्वार के सामने पहुँचते ही राजकुमारी चेतक को सैनिक के हवाले कर भीतर की ओर भागीं.
"तुम चेतक के साथ दौड़ की स्पर्धा करने गयीं थी क्या?"
"क्यों माँ सा, आपने ये प्रश्न क्यों किया? हम तो चेतक की लगाम थामकर उड़ते चले आए"
"तुम्हारी बढ़ी हुई श्वांस को देखकर कहा. कहीं कुछ अघटित तो नहीं घटित हुआ?"
"कैसा अघटित माँ सा? वैसे भी जो होता है वो पूर्व निर्धारित ही होता है फिर उसे अघटित क्यों कहें?"
"आज अपनी प्रथम यात्रा में ही ऐसा प्रतीत हो रहा कि तुम बहुत कुछ सीखकर आयी हो" रानी माँ ने विस्मय से राजकुमारी के नेत्रों में देखकर कहा. इस पर राजकुमारी मौन होकर दूसरी ओर देखने लगीं…'लग रहा माँ सा ने हमारा चेहरा पढ़ लिया' आगे कुछ भी बोलना उन्होंने उपयुक्त नहीं समझा. नन्हा सा मन इसी क्षण बड़ा हो गया कि उसने पलों में समस्या सुलझाती माँ सा के सामने असत्य का सहारा लिया. उन्हें भान हो गया यदि माँ सा को सारी बात पता चली तो अकेले नहीं जाने देंगी. राजकुमारी को अभी इसका आभास कहाँ कि अपनों के सामने बोला गया पहला असत्य उन्हें कठिनाइयों के हाथ को कठपुतली भी बना सकता है.
"माँ सा हमें थकान हो रही"
"जाओ विश्राम करो" इतना सुनते ही राजकुमारी अपने कक्ष की ओर बढ़ी. उन्हें विश्राम से अधिक एकांत की आवश्यकता थी. जल- प्रक्षालन कर अपने शयनगृह में आ गयीं. न चाहते हुए भी आँख बंद करने पर "वो" राजकुमारी की यादों में आ गया. उन्होंने झट से आँखें खोल दीं. सिरहाने जल रहे दीये की बाती पर तर्जनी रख दी. शयनगृह अंधेरे की आभा से आलोकित हो उठा और वो उन स्मृतियों से…'किसी चेहरे में इतना आकर्षण कैसे हो सकता है'...उनके मन का एक भाग उस ओर खिंच रहा था जिसे वापस लाने का निरर्थक प्रयास वो करती रहीं. कभी उजाले से भागकर तो कभी अंधेरों में स्वयं को समेटकर. स्नेह की एक अनदेखी डोर पर मन बावरा हो चला. शब्द तो नकारे जा सकते थे पर मन के भाव नहीं. उनकी सोच में तो यह तक आ गया कि...उसने कुछ देर और रुकने को उन्हें विवश क्यों नहीं किया!

मेरी पहली पुस्तक

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