To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
आग-- द हीरो ऑफ अनहीरोइक थॉट्स: १
अब से पहले भी कई बार लोगों की आँखों के सामने प्रतिभा आयी होगी और समकालीन कहकर नकार दिया गया होगा. कभी झिझक तो कभी ईर्ष्या के चलते. मेरे साथ भी दो बार ऐसा हुआ. पहली बार मुझमें समझ अधकचरी थी तो अपने मन की भावनाओं को शब्द नहीं पहना पायी. इस बार कोई भी मानसिक संघर्ष नहीं बस ठान लिया कि एक ऐसी साहित्यिक प्रतिभा से आप सभी का सामना कराना है जो सम्भवतः स्वयं को भी कम ही जान पाये. "आग-- द हीरो ऑफ अनहीरोइक थॉट्स". जी हाँ जब दुनिया माइक पकड़ने की होड़ में भाग रही, लोग मंच के लिए एक-दूसरे का गला काट प्रतिस्पर्धा कर रहे ऐसे में एक लेखक जो अपने हिस्से के टिकट भी साथी लेखकों में बाँटने में व्यस्त हैं. उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि उनकी कलम को सम्मान मिलेगा भी या नहीं पर मित्रों (अमूमन सभी मित्र बन जाते हैं. किसी तरह का भेद मस्तिष्क में पनपा ही नहीं) के साथ किंचित भी बुरा न हो! अगर आप माननीय लेखक अनूप कमल अग्रवाल जी के साथ बैठकर चाय पर वार्तालाप भी कर लें तो आप अनुमान नहीं लगा सकते कि आप लेखक "आग" के साथ बैठे हैं. जितनी प्रतिभा अंतर में छुपी है उससे अधिक स्वयं को छुपाने का हुनर भी है. "मैं कुछ भी नहीं हूँ" सूत्र वाक्य है, जो माननीय की कलम के ज़रिए प्रशंसकों से उनका दिल का रिश्ता जोड़ता है. किताब छपवाने की बात पर हमेशा ही हँसकर टाल जाते हैं…"मैं इस योग्य नहीं. आप बेहतरीन लेखकों को पढ़िए." एक बार मैंने भी ये सच मान लिया और बेहतरीन लेखक की तलाश में निकल पड़ी. आगे की कहानी मेरी ही जबानी सुनिये. लिखने को तो पूरी किताबें हैं पर मैं स्वयं को भी इस योग्य नहीं मानती. इसे दो भागों में प्रस्तुत करुँगी. साथ बने रहियेगा.
घड़ी में यही कोई सवा बारह बज रहा था. यही वो वक़्त होता है अक्सर जब शाम, रात के गुलाबी पैरहन में आ जाती है और मन के अँधेरों में यादों की हज़ारों दस्तक एक साथ उभरकर आती हैं. ऐसे में जब कुछ शब्द मन की टीस पर मरहम की तरह लगें तो रोम-रोम अनायास ही बोल उठता है. इसी तरह की वो शाम थी कुछ...बस यही तो चाहिए था मुझे. बात २०१७ की है जब एक राइटिंग एप से परिचय हुआ. ये परिचय तब तक निर्जीव सा चला जब तक "आग" से नहीं मिली. मैं लिखती थी लोग वाह-वाह करते थे, लोग लिखते थे, मैं वाह-वाह करती. घर, दफ़्तर, काम से जितना समय बचता उसमें से थोड़ा समय इसके लिए निकाल लेती. कभी कुछ अच्छा न लगता तो अनइंस्टाल भी कर देती. फिर उस रोज स्क्रॉल करते हुए एक नाम आँखों में चढ़ गया. पढ़ते ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया जैसे इकतारे पर गाने के लिए मीरा को भजन मिल गए हों. जितना पढ़ा बहुत था, मुझे शब्द-शब्द दीवाना बना देने को. कभी-कभी मैं ख़ुद के अंदर इतना ही खो जाती हूँ कि कई दिन भी लग जाएं पर बाहर न आ सकूँ. इस बार की बात ही कुछ अलग रही कि मुझे मेरे ही मन से होकर एक रास्ता मिला और शायद यही कारण था कि मैं बेखटके चलती रही. मुझे बहुत ही सहज अनुभव हो रहा था. किसी का हाथ थामकर आगे बढ़ना मुश्क़िल होता है. कई बार हम झिझक के चलते चाहकर भी नहीं जा पाते पर मेरा हाथ इस बार कविता ने थामा था. बिंदास आगे बढ़ने लगी मैं. जीवन के हर रुप, रंग, गंध से मैं सराबोर होने लगी यहाँ तक कि स्पर्श से भी. मुझे लगने लग गया था कि कविता मुझे छू भी सकती है. शब्द मेरी साँसों के साथी हो गए. तब तक आग का प्रचुर मात्रा में काव्य वहाँ उपलब्ध हो गया था. इतना सा भी समय होता मैं स्क्रॉल करती. शब्दों में सोती, जागती, डूबती और उतराती रही. जाने कितने ही रहस्यों से दो-चार होती रही. कप में पड़ी चाय ठंडी हो जाती, खाने की प्लेट मुझे मुँह चिढ़ाती कि मैं कविताओं से ही पेट भर लूँ अपना. हर रात नींद से दो मिनट-दो मिनट कहते हुए कितनी ही रातें नींद से अनछुई रह जातीं. पर मैं मन भरकर पढ़ने को जी-जान से लगी रहती. ये और बात है कि मन अब तक नहीं भरा. मुझे गर्व है कि मैं आग के समकालीन हूँ. मुझे मन के घट को शब्द रुपी अमृत से भरने को जीवनपर्यंत अवसर मिलते रहेंगे.
जब बात लिखा हुआ कुछ पसन्द करने की आती है तो मेरी समझ रुठ जाती है. मुझे तो एक-एक शब्द इतना पसन्द है कुछ भी छोड़ने का मन नहीं करता फिर भी आपका परिचय कराना चाहूँगी कुछ एक कविताओं से. इस श्रेणी में पहली दो पंक्तियाँ शून्य को समर्पित. जीवन का प्रारम्भ और अंत दोनों ही शून्य हैं और इन्हीं के मध्य चलती रहती हैं अनन्त संख्याएँ…
स्वयं को शून्य करके किस तरह आगे बढ़ा जा सकता है अपनी रास्ता बनाते हुए. इसकी तुलना नदी के किनारों से है. जब किनारे चल पड़ते हैं नदी के साथ तो सब कुछ टूट रहा होता है उनके भीतर. ख़त्म होता रहता है उनका अस्तित्व पर नदी में किनारे विलीन होकर भी अलग नहीं होते.
जीवन के दर्शन से आगे बढ़ने पर मन साहित्य की नगरी में डूब सा जाता है. एक ऐसी डूब जिसमें कितनी ही आगे बढ़ जायें ऊब नहीं होनी. सत्य यदि दर्शन है तो यौवन भी है. जीवन खोज है तो एक मधुवन भी है...इस पर आग के शहद से मीठे चटख सुर्ख शब्द हैं. आसमान की नील सरगोशियां, धरा की धानी मस्तियाँ और ये शब्दों का प्राणवायु आभामंडल...
समकालीन कोई भी विषय हो आपकी कलम से अछूता नहीं. हर स्थिति की तरह कोविड पर भी कलम पुष्ट होकर चली. रचनाओं के खजाने में बहुत सी कृतियाँ हैं पर किन्हीं कारणों से अपनी सबसे पसंदीदा नहीं चिपका पा रही हूँ. आइये लॉकडाउन के दौरान जीवन में आयी सबसे असहज परिस्थितियों में से एक पर अदना सी नजर डालते हैं...
बहुत ही सुंदर तुकांत रचनाएँ लिखने में भी महारत हासिल है. शब्दों का चयन और भावों का उद्वेग ज़बरदस्त दिखता है. यों लगता है जैसे मन के भीतर से एक नदी उमड़ चली है…
एक अन्य ऐसी ही कृति जिसमें बेहतरीन ढ़ंग से रात का मानवीयकरण किया गया है...
किताब के लिए बहुत ही सरल और सधे हुए शब्दों में जब आप लिखते हैं तो अंत के पहले अनुमान लगाना ही कठिन हो जाता है कि सच में ये है क्या...
विविधता पूँजी है आपकी. जब बात चलती है आग की लघुकथाओं की, तो आँखों के सामने कौंधती हैं महज दो-चार पंक्तियाँ या फिर चंद शब्द. भावों की इतनी सक्षमता कि शब्दों की जरुरत ही न पड़े.एक से बढ़कर एक लघुकथाओं का संग्रह एवं बड़ी कहानियाँ भी. शब्दों में ग़र आग है तो कलम की स्याही में हर रंग. ये और बात है कि आपने अपने चारों ओर एक दायरा बनाया. जहाँ आज के समय में सभी की किताबें छपकर हाथ में आ रहीं वहीं आप प्रचार-प्रसार से स्वयं को दूर रखते.
एक बेशऊर प्रशंसिका का पेचो खम कहिये इसे या फिर अहसास की चाशनी में तरबतर एक हलफ़नामा. एक ऐसा रुमान जो कविता में डूबकर बस कवितामय हो गया. जिस भी तरह आप इसे स्वीकार करेंगे नज़रिया आपका. अभी इतना ही दूसरे भाग में परिचय होगा इससे इतर व्यक्तित्व का. बहुत प्रयासरत हूँ कि सीधे, सच्चे और सपाट शब्दों में लिख सकूँ. किसी भी त्रुटि के लिए लेखक महोदय से क्षमाप्रार्थी हूँ.
लव एक्सटिंक्ट
मुझे यक़ीन है
एक दिन
तुम अपने
बच्चों के बच्चों को
सुना रहे होगे
अपनी प्रेम-कहानी
और वो कौतूहल वश पूछ बैठेंगे
"दादू ये प्रेम क्या होता?"
और तुम हँसकर
बात टालने की बजाय
उन्हें समझाओगे,
"ये प्रेम ज्वर नहीं
देह का सामान्य ताप
हुआ करता था
जिन्हें पढ़ सकते थे
केवल तापमापी यंत्र
….."
मुझे ये भी यक़ीन है कि
इसके आगे तुम
कुछ नहीं बोल पाओगे
तुम्हें चाहिए होगा
अपने आँसू पीने को
मेरी आँखों का पानी
कल आज और आने वाले कल में
यही तो शेष रह जायेगा.
प्रेम बचाकर रखेगा
अपना अस्तित्व
डायनासोर के मानिंद
जिसे हम में से किसी ने नहीं देखा
पर कहा जाता रहेगा
युगों-युगों तक
सबसे बड़ा प्राणी.
PC: Google
कैसे कहें प्रेम है तुमसे!
बहुत प्यार करने लगे हैं हम तुम्हें
जाने कितने दिनों से दिल में
चल रहा है बहुत कुछ
और कोई बात नहीं होती
कोई और होता भी नहीं वहाँ
इस तरह रहने लगे हो हमारे दिल में
कि हमें भी रहने नहीं देते हो अपने साथ
किए रहते हो अलग-थलग जैसे
हवा की आहट पर झाड़ देता हो
कोई पत्ता अपनी देह की धूल
बात-बात पर कर देते हो हमें अपनी
उन मुस्कुराहटों से विस्थापित
जिनके इंतज़ार में गीली रहती हैं कोरें
तुम्हारी सवा किलो की यादें
और एक मन का दर्द…
कभी रुको न हमारे सामने घड़ी दो घड़ी
तो देख लें मन भरकर तुम्हें
चूम लें तुम्हारे होने को
कभी कहो न कुछ…
क्यों कहें हम, कितना प्यार है तुमसे
खोल तो दी है हमने अपनी
इच्छाओं की सीमा
विचरण कर रहा है प्रेमसूय अश्व
हमें स्वीकार है तुम्हारी सत्ता
हम निहत्थे ही आयेंगे तुमसे परास्त होने
एक बार चलाओ अपना प्रेम शस्त्र.
PC: Google
प्रियंवदा के लिए दो शब्द
प्रकृति, प्रेम, प्रियंवदा और प्रियम, लगते हैं न सभी एक-दूसरे के पूरक. यक़ीनन हैं भी. ख़ुशगवार रहा ये वक़्त कि एक और पुस्तक मुझे उपहार में मिली. शब्दों से इतना गहरा है लेखिका का प्रेम कि शब्द-शब्द दिल में उतरती हैं इनकी बातें. कविताओं में एक सुंदर और प्रेमिल संसार रच दिया है.
इसके पहले पन्ने ने ही मुझे प्रभावित किया जहाँ लेखिका ने अधिक भूमिका न बाँधते हुए बस इतना ही प्रभावशाली ढंग से कहा है कि वो बिखरे हुए मोतियों को पुनः सजाने का प्रयत्न कर रही हैं. अनुक्रमणिका से ही स्पष्ट है कि आधुनिक गद्य से सजी इन कविताओं का वैशिष्ट्य प्रेम है.
पुस्तक का पहला खंड मनभावन प्रेम को समर्पित है. नायिका के अधिकांशतः एकल संवाद गहनता को दिखाते हैं. कभी-कभी सोच की उत्कंठा इस तरह बढ़ जाती है कि सारे प्रश्नों के उत्तर स्वतः ही झरने लगते हैं…
"मगर यही सोच/ मेरी उत्सुकता को/ मेरे भीतर ही थाम लेती है/ कि जो आंनद उत्सुक फुहार में है/ वो प्रश्नों के तीव्र बौछार में कहाँ?..."
जहाँ एक ओर प्रेम में प्रतीक्षा की निष्ठुरता है वहीं दूसरी ओर आगमन का पुलक सहजता मन भी है. "प्रेमागमन" एक ऐसी ही अभिव्यक्ति है. आसमानी स्वंयम्बर से एकाएक नायिका भू लोक पर आ जाती है और उनकी तलाश होती है अपने प्रेमी के लिए उपहार पर मन का दिव्य प्रेम इसे तुच्छ मानकर विस्मृत करना चाहता है. गीतों से शृंगार और समुद्र की प्रेयसी बनने जैसे भावों में अतिशयोक्ति का प्रयोग हुआ है.
"मैं बन लहर/ आसमां पहन/ समुद्र की मैं प्रेयसी/ बादलों से उतर आयी हूँ…"
अगला खण्ड "तुम्हें प्रेम करने की मेरी चाह" पूर्ण रुप से उन प्रतिमानों को समर्पित है नायिका जिन प्रतिबिंबों में स्वयं को रखकर अपने प्रिय के पास पहुँच जाना चाहती है. पत्र के माध्यम से तो कभी पक्षी बनकर, कभी नदी की भाँति अगाध हो ईर्ष्या रुपी ज्वालामुखी उसमें बहाकर तो कभी तीव्र कल्पनाओं के माध्यम से. मकड़जाल रुपी नायिका का हृदय भी इससे अछूता नहीं. अंतिम दो कविताएँ जिनमें प्रिय की खोज और विश्वास वर्णित है, खण्ड की सुंदरता बढ़ाते हैं.
अगले पड़ाव "अलविदा प्रेम" के अंतर्गत इस सच को उकेरा है कि जब जीवन में प्रेम शेष न हो तो कठिन है प्रेम कविताएँ लिखना. उदास मन की तुलना कभी रेलगाड़ी से तो कभी सावन मनाकर पीहर से लौटती नवविवाहिता से की गयी. विदा प्रेम की गहन पीड़ा झलकती है इन शब्दों में…
"किसी भाषा में/ किसी बोली में/ किसी पुस्तकालय/ या शब्दकोश में/ नहीं मिल रहा/ वह शब्द./
जो/ आशाओं के/ पुनः सृजन में/ असमर्थता से/उतपन्न पीड़ा को/ व्यक्त कर सके."
"उदास प्रेमिकाओं" का मार्मिक चित्रण किया है अगले भाग में. नायिका भली भांति जानती है कि वो भले ही अहल्या हो ले पर राम नहीं आने वाले. किसी के आने और जाने के बीच की स्थिति में कितना कठिन है सामंजस्य बिठाना. छोटी-छोटी बातों को सहेज लेने से आसान हो सकता था जीना. कैसे कम होगा दुःख जब "दुःख ही एकमात्र सत्य है". प्रेम देखने की अभ्यस्त आँखें कहाँ पाती हैं ठौर, भले ही विलीन हो जाएँ स्मृतियों में.
अगला भाग समर्पित है कभी शुष्क, कभी जल बनी "नदी एवं स्त्री" को. आदिकाल से नदी की तुलना स्त्री से की गयी है. कहीं नदी का सागर में विलीन होकर मृत हो जाना है तो कहीं संभावना है जीवन मृत सागर से अंगड़ाई ले. उपेक्षा में विलीन चेहरा भी है. लूणी का संघर्ष इस भाग का उर है.
"तब लौट आयी होगी/ खंडित हृदया चुपचाप/ मन में कुछ विचारते/ सँजोते हुए प्रेम पर विश्वास."
अंत में आते हैं इस पुस्तक के "प्रिय तुम मेरी प्रतीक्षा करने के साथ". सभी कविताएँ सुंदर बन पड़ी हैं. कविता के माध्यम से लेखिका ने उजागर किया है प्रेम के लिए अपना दर्द, जब प्रेम को हृदय में सींचते हुए प्रथा, परम्परा, मान्यता, आडम्बर और सीमाएँ बाधक बनती हैं. जिनसे पार जाकर नायिका प्रेम जीना चाहती है.
पुस्तक में इससे इतर कुछ कमियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं. प्रूफ़ रीडिंग का अभाव तो कहीं-कहीं पर उपयुक्त फॉन्ट का चुनाव न होना अखरता है.
उपरोक्त पुस्तक की लेखिका नेहा मिश्रा "प्रियम" का यह प्रथम काव्य संग्रह है. संग्रह का मूल्य १४९/- रुपये मात्र है.
लेखिका को साहित्यिक उज्ज्वल भविष्य हेतु अशेष शुभकामनाएँ! लेखक मित्र माननीय अनूप कमल अग्रवाल "आग" जी की प्रेरणा से एक और पुस्तक की समीक्षा.
पुस्तक के लिए लिंक…
https://www.amazon.in/dp/1638869111/ref=cm_sw_r_wa_awdb_imm_967FS6ZQCYDX4HRGSWE7
आ अब लौट चलें
कल एक इतवार है २०२१ वाला
वही शांत, नीरव सा
घर की खिड़कियों से दूर ख़ाली मैदान देखता
और मोबाइल की स्क्रीन पर कोविड अपडेट लेता हुआ
जीवन बस एक टट्टू ही तो बनकर रह गया
आँखें तो असल रंग की पहचान तक भूल गयीं
अब सोचना पड़ता है कभी-कभी कि
दाता ने हमें हाथ, पाँव, मुँह, पेट भी क्यों दिया?
कुछ अधिक नहीं हो गया ये सब?
बस एक आँख और इतना सा दिमाग़ होता
और दिमाग में भी मेमोरी जैसा आइटम क्यों दिया?
बस गूगल कर दो और जय मना लो.
काम भी तो मिल जाता है बैठे-बिठाये
'वर्क फ्रॉम होम' संजीवनी ही हो गया जैसे
मटर छीलते हुए तीन-चार फ़ाइल निपट जायें
जब बात आये ऑन लाइन क्लासेज की
तो सीधा सा फण्डा…
न्यूटन, आइंस्टीन नहीं बनाने अब,
डॉक्टर, इंजीनियर बन ही कौन जाता
ऐसे माहौल में पढ़ाई करके?
आग, पहिए का अविष्कार पहले से हुआ
अब मोबाइल का भी हो गया.
अगर कुछ करना होगा तो पहिए को ही
प्रतिस्थापित करना है किसी
उपयोगी अविष्कार से…
नहीं, मैं नहीं जाना चाहती कल ऐसे इतवार में
बुला रही हैं 90 के दशक की कुछ शामें
जो यादों में ठहरी हुई हैं
सुबह उठते ही क्लास, कोचिंग, पढ़ाई
और खेल का जाना-पहचाना सा मैदान
इंटरवल पर घण्टे की बीट से भागते मन
नोट्स के लिए तक़रार, प्यार भाईचारा
जब लड़की माल नहीं बहन या दोस्त होती थी
सीमित साधनों में असीमित प्रेम
हम प्रोफाइल से नहीं मन से जुड़ते थे
लाइक, शेयर पर नहीं यारियों पर मचलते थे...
हाँ, मुझे चाहिए वही छुट्टी वाला इतवार
हर चेहरे पर एक सुकून, एतबार.
PC: Elin Cibian
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
-
•जन्म क्या है “ब्राँड न्यू एप का लाँच” •बचपन क्या है टिक टाक वीडियो •बुढ़ापा क्या है "पुराने एप का नया लोगो” •कर्म क्या हैं “ट्रैश” •मृ...
-
प्रेयसी बनना चाहती है वो पर बिना पहले मिलन प्रेम सम्भव ही कहाँ, सुलझाते हुए अपने बालों की लटें उसे प्रतीक्षा होती है उस फूल की जो उसका...