तुम्हारा रुठना

 क्यों रुठ गयी हैं बादलों से बूँदें

कहीं समन्दर ने इनसे नाता तो नहीं तोड़ा होगा

जैसे मैं होती जा रही हूँ दूर तुमसे

हर साँस पर अब साँस भी तो नहीं आती

और यादें हैं कि ज़िबह किए देती


जैसे छूट जाती है पतंग अपनी डोर से


नील गगन की रानी आ गिरती है जमीन

लुटी, कटी, नुची, सौ ज़ख़्म लिए

वो भी हाथ नहीं बढ़ाता उठाने को

जिसने लड़ाया पेंच, जितनी भी आए खरोंच


जैसे पार्थिव हो जाता है कोई आयुष्मान


तबाही मचा शाँत हुआ चक्रवात

सब कुछ बहता रहता है बिना नीर

चलता है मन-प्रपात

बस इसी तरह छोड़ते हो तुम मुझे हर बार.

प्रेम का एंटासिड

 


तुम शब्दों में इज़ाफ़ा भी तो न लिख गए...

एक वैराग से होते जा रहे हो

जैसे ख़ुद में ही एक बड़ा सा शून्य

कहते तो हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता

मग़र जो दिख रहा वो क्या है?

अपने दाल चावल में थोड़ा सलाद क्या बढ़ा

तुम उँगलियाँ चाटने लगे थे

और अब....

एंटासिड तकिए के नीचे रख कर सोना

ये जो तुम्हारा सर दर्द है न

ये ज़्यादा सोचने का नतीजा है बस

उठते ही खा लेना एक गोली

हम जी रहे हैं न अपने हिस्से का माइग्रेन

बुरे जो ठहरे...

तुम...तुम तो प्यार हो बस

धड़कन से पढ़ा गया

आँखों में सहेजा गया,

रोज़ तुम्हारी कविता की ख़ुराक लेकर

ऐसे सोते हैं

मानो ज़मींदोज़ भी हो जाएं

तो जन्नत मिले

तुम्हारे शब्दों के अमृत वाली...

हमें पता है इसे पढ़कर तुम

सूखे होठों पर अपनी जीभ फिराओगे

काश के हम आज तुम्हें पिला सकते

एक चाय...सुबह की पहली वाली

हम साथ नहीं दे पाएँगे मग़र तुम्हारा

जबसे मायका छूटा

चाय का स्वाद हमसे रूठा

...एक दिन आएँगे न ससुराल से वापस

और तुम्हारे गले लगकर पूछेंगे,

"क्या तुमने अब तक...?"

चलो छोड़ो अभी

बहुत रुलाते हो तुम हमको!

इश्क़ के मसीहा

बहुत बेपरवाह सी लड़की थी वो उसे पढ़ना लिखना तो बिल्कुल भी नहीं भाता था. हां यही कोई 14-15 की उम्र रही होगी. अपनी बिरादरी के लड़के से प्यार हो गया था उसे. अपनी बिरादरी हां सही समझे आप बिरादरी उसकी अपनी थी अगर हम सब बाहर के लोग देखें तो. मगर वो शिया थी और लड़का सुन्नी. कहते हैं इश्क छुपाए नहीं छुपता उसका भी नहीं छुप पाया था. पहले भनक लगी भी तो किसको बाहर वालों को और वो ठहरे खासम ख़ास. नमक मिर्च लगाकर घर वालों को खूब भड़काया गया. वह मन से इतनी निश्चल थी कि मेरे बहुत करीब आ गई थी. सुबह शाम किसी भी वक्त अक्सर आ जाया करती थी और अपने साथ लाती अधपके इश्क के किस्से.

एक दिन मेरा भी दिल पिघला और मैंने उसकी अम्मी से बात चलाई. 'लाहौल विला कूवत, क्या तमाशा है कैसे हम सुन्नी के घर अपनी बेटी दे दें.' मैंने उस वक्त बात को वही ख़त्म करना ठीक समझा. जाते हुए अम्मी बस इतना कहकर गईं, अगर तुम सुन्नी भी होतीं तो हम अपने बेटे के लिए तुम्हारा हाथ जरुर मांगते.

मुझे पता था वह परिवार मुझे बहुत पसंद करता है. अम्मी की इस बात से मेरे दिल में उम्मीद तो जगी थी कि हो न हो आगे चलकर इस रिश्ते में कुछ गुंजाइश है. फिर तकदीर का कुचक्र शुरू हुआ और लड़के से मिलने पर पाबंदी लगा दी गई. मगर इश्क कब रुकने वाला था.

अब भी याद करती हूं वह दिन जब उस लड़के ने लड़की के ठीक पास वाला घर किराए पर ले लिया और पहली ही रात अपने घर से लड़की के घर में एक होल बना लिया. एक-एक लम्हे की गवाह थी मैं. लड़के ने लड़की को एक बहुत प्यारी सी पेंटिंग गिफ्ट की थी जिसे पहुंचाने का काम मेरा था. वह पेंटिंग मेरे नाम से उसी जगह फिक्स हो गई जहां वो घर वालों के सोते ही घंटों बैठी रहती थी. इश्क़ उरूज़ पर था. कुछ भी रुका नहीं और बंदिशों में प्यार करने का ख़ूब मजा आया.

इस बात को गुज़रे बीस साल हो गए. वो दो और उनका प्यारा आतिफ़ आज भी वजह बनते हैं मेरे मुस्कराने की.

पात-पात प्रेम मेरा


मैंने जिस गछ के गले लगकर

अपना दर्द कहा

बहुत रोया वो भी

उस पर आरी चली, ये बहाना बना


एक रोज उस काष्ठ की आँखें बहीं

तंतुओं को दबाया गया तब पता ये चला.


वो सिसकने लगा, मैं सहती रही

उसकी देह पर दर्द की नक्काशी उभरी

तराशे हुए सफ़हे पर बून्द-बून्द स्याही में

मुझे तुम्हारी झलक मिली

कभी लग नहीं पायी थी

तुम्हारे गले खुलकर

आज हरफ़-दर-हरफ़

ख़ुद मैं तुममें मिली.

आज फिर मुझे आती रही सिसकी

आज फिर टहलती रही नंगे पाँव मन पर

तुम्हारे नाम की हिचकी.

प्रेम ही तो ब्रह्मचर्य है

इस सदी का ब्रह्मचर्य

एक मात्र प्रेम ही तो है.

प्रेम कौमार्य नहीं भंग करता

सौहार्द्र बढ़ाता है,

संकीर्णता के

जटिल मानदण्डों को तोड़कर

समभाव की अनुभूति कराता है.

अब निकलना होगा प्रेम को

किताबों से, ग्रंथों से

और हम सभी के मन से भी बाहर…

यदि कम करनी है

दूरी हृदयों के मध्य की

तभी तो रुक सकेंगे ग्लेशियर पिघलने से

जब सम्पूर्ण को देखने की

हम सभी की दृष्टि एक ही होगी

ज़ायका

मैं खाने में ज़ायका मिलाती थी, वो सुकून तलाशते थे. मैं बिस्तर पर नींद बिछाती थी, वो जुनून तलाशते थे. जब भी होता था मेरा सर उनके कंधे पर, अपनी आँखों में वो कोई और तस्वीर बनाते थे.

अनकही से उपजा अनकहा सा कुछ

वो वाचाल था और मैं भी. हमारी भावनाओं के कितने नदी-समन्दर मिल जाते थे आपस में. हर बात पर हम उस शब्द को पकड़ते थे जो कहने से रह गए हों. बातों ही बातों में रुह-अफज़ा होते.


फिर एक दिन उसने मौन को दस्तक दी. मेरा वाचाल अकेला रह गया. मेरे कंधों पर भरम की तितलियाँ फड़फड़ाने लगीं. वाचाल मरने को था. मौन ने वाचाल को गले लगा लिया. मैं अपना स्व भूलती रही. मुझे पता था उसका वाचाल टकराया है किसी सुनामी से. सुन्न पड़ गया कंधों पर तितलियों का फड़फड़ाना.


और उस रोज उसका मौन मेरे कंधे पर आ बैठा. उसने मुझे वो मौन लौटाया जो उसके जीवन में आयी सुनामी का परिणाम था. मैं द्रवित हुई उस अनुभूति से. कैसे छुपा पाया होगा ये बवंडर वो अपने भीतर. सोंख लेना चाहती हूँ अब वो दर्द मैं सारा का सारा. श्री हीन हुई थी अब हीन भी हूँ. मैं और वो साथ-साथ समानांतर चल रहे हैं अब... मौन के अधिकतम पर. मेरी प्रतीक्षा को कोई सावन नहीं बना, कोई नक्षत्र नहीं न ही कोई राशि.

आग-- द हीरो ऑफ अनहीरोइक थॉट्स: २



संस्कृत के प्रकांड विद्वान और चारों वेदों की रचना करने वाले महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन है. वेदों की रचना के कारण ही उनका एक नाम वेद व्यास भी है. उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है. भक्तिकाल के संत घीसादास का भी जन्म इसी दिन हुआ था वे कबीरदास के शिष्य थे.

शास्त्रों में गु का अर्थ बताया गया है- अंधकार या मूल अज्ञान और रु का अर्थ किया गया है- उसका निरोधक. गुरु को गुरु इसलिए कहा जाता है कि वह अज्ञान तिमिर का ज्ञानांजन-शलाका से निवारण कर देता है अर्थात अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को 'गुरु' कहा जाता है.


"अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजन शलाकया,चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः "


गुरु तथा देवता में समानता के लिए एक श्लोक में कहा गया है कि जैसी भक्ति की आवश्यकता देवता के लिए है वैसी ही गुरु के लिए भी, बल्कि सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है. गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है.


आसान नहीं होता किसी को गुरु कह देना. किसी को गुरु कहकर उसका सम्मान बनाकर रख पाना उससे भी कठिन है. मेरे लेखक गुरु माननीय अनूप जी इस बात की महत्ता पर विशेष ध्यान देते हैं. आपका कहना है कि सिखाने के लिए आप सदैव तत्पर हैं परंतु गुरु शब्द से आपको बाँधकर न रखा जाए.


एक कविता सम्मानीय "आग" की कलम से उन्हें स्वयं को गुरु कहे जाने पर. असहज से हो जाते हैं जब कोई इस उपाधि से विभूषित करना चाहता है.


स्व केंद्रित हमारा मन जीवन में आए हुए जिन लोगों का खुलकर स्वागत करता है उनमें से सबसे अहम स्थान गुरु का होता है. गुरु के सामने लघु बनने का अवसर मिलना, इस परम अनुभव को जीकर ही समझा जा सकता है. एक पाँव से कभी एड़ियों तो कभी पंजों के बल खड़े रहकर अपने गुरु को समर्पित रहने का प्रेम अब किसी के हिस्से नहीं आता. मन का गुरु मिल जाना ही बहुत है. मेरा अपने मन के गुरु से साक्षात्कार हुआ. मैंने बून्द-बून्द अनुभव जिया. गुरु कहूँ या ईश्वर तुल्य, साधना में कमी नहीं आयेगी. मुझे एक वरदान की तरह ये नाम मिला और वो भी तब जब मैं किसी खोज में नहीं थी. मुझे जो मिला वो मुझे चाहिए नहीं था परंतु मन से इंद्रियों से ग्राह्य हुआ, यही सार्थकता है गुरु की. मैंने एकलव्य सी ही सही साधना प्रारम्भ की.


ये और बात है कि गुरु ने यह शब्द स्वीकार नहीं किया.



मैंने क्या किया यह बात हर मायनों में छोटी हो जाती है जब बात आपके करने की आती है. ये मुझे ही क्या आपसे जुड़ने वाले हर व्यक्ति को अनुभव हुआ. किसी की भी त्रुटि दिखाई देते ही आप अपना छोटा सा सितारे वाला बिंदु उसे दिखा देते हैं और त्रुटि सुधार होते ही आप तुरन्त वो बिंदु हटा लेते. मैं हतप्रभ थी कलम के धनी व्यक्तित्व को इतना नत देखकर. किसी बात का न कोई अभिमान न ही कुछ जताना. किसी के कुछ भी पूछने पर बिना लाग लपेट सब कुछ बता देना बस आप ही कर सकते हैं. मैंने पहली बार ऐसा व्यक्तित्व देखा जिसने लोगों को अपने कंधों पर चढ़कर आगे बढ़ने के अवसर दिए. आपके मुखारविंद से मैंने एक भी नाम नहीं सुना जिसके लिए आपने स्वीकार किया हो कि आपने लेखक बनने में उसकी मदद की. इतना ओज, प्रखर, सहयोग पूर्ण व्यक्तित्व एवम प्रतिभाशाली, सहृदयी... किसी को नमन करने के लिए इससे अधिक चाहिए भी क्या! नतमस्तक हूँ उस प्रकाश की जो आप बिना कहे बिखेरते रहे. कभी नहीं सोचा कि ये कोई सौदा नहीं आप तो बस दे ही रहे हैं. अपितु आपने इस परिपाटी को बचाकर रखा कि प्रकाश सोखने वाला हस्त भी कहीं किसी को तो आशावान करेगा. मैंने अंतःकरण से अनुभव किया इस सत्य को. सृजन के अतिरिक्त नैतिक मूल्यों पर भी आपकी तीसरी आँख रहती है. 


मेरा मन साँचा और मिट्टी कच्ची

ज्ञान कूप मिल गयी भक्ति सच्ची


भटक न रही जब संग चरण, गुरु

और न कुछ, प्रथम मंत्र मैं गुरु वरूँ


बस एक वो, दूजा समर्थ न कोई

शीत ज्यों भानु, अगन मार्तंड होई


दीप हो ज्योति, खग हो आकाश

दृग-दृग पसरी है, धैर्यता खास


ध्रुव सा अटल, धूम्र सा उज्ज्वल

उदधि है ज्वार तरणी सी कल-कल


अंतहीन स्नेही विनम्र सम अनुभूति

पीड़ा पर वार सम, लगती उद्भूति


सदसानिध्य अकिंचन को उपहार

ज्ञान का उपक्रम अज्ञानता पे प्रहार


गुरु ने रख लिया, लघुता का मान

दरस ऐसे हों जैसे बने सूर महान


गरल समन्दर से सुधा निकाल लाए

बीच भँवर में भी कश्ती न डगमगाए


एक अच्छा गुरु तरणताल में सीखने के लिए कभी शिष्य को नहीं उतारता वो बीच भँवर में डुबकियाँ लगवा सकने में सक्षम है. गुरु ने यदि मुझमें मोम के पंख लगाकर सूर्य तक उड़ान भरने की इच्छाशक्ति जगायी तो उनको विश्वास रहता है कि मैं दक्ष हूँ इसमें. 


गढ़ते नित्य विहान, दीप तुम जलना निरन्तर चिर स्मृति के गान कर रोष से उल्लास अंतर


आपके ये शब्द सद्प्रेरणा हैं जीवन के लिए कि अंत कुछ भी नहीं होता. सही मार्गदर्शन होने पर हर क्षण एक प्रारम्भ है.




आपका दर्शन मुझे बाध्य करता है हर बार कि मैं रिक्त मुठ्ठियों में भी प्रयास करती रहूँ. गुरु की बात आने पर सबसे लुभावने लगते हैं आपके शब्द जब आप कहते हैं कि प्रकृति से बढ़कर कोई गुरु नहीं. प्रकृति से हम क्षण-क्षण, कण-कण सीखते हैं.


अंततः नमन, वंदन और अभिनन्दन. 🙏





मेरी पहली पुस्तक

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