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तुम्हारी चुप्पियों का विस्तारित आकाश
भर देता है मुझे दर्द के नक्षत्रों से
आकाश गंगा की समग्रता
भंग करती है मेरी एकाग्रता और
पैदा करती है मुझमें एक नयी चौंक
बात-बात पर इतनी सजग तो कभी न हुई मैं
मैंने देवदार के पत्तों पर भी
अपना मन भर आहार जिया है
मैं रखना चाहती हूँ उस पर अपना बड़बोलापन
कितनी भी प्रेम की गागर भर लूँ मन में
थाह गहरी तो तुम्हारे मौन की रही है सदैव
भुला दी हैं तुमने मुझे वायुमंडल की समस्त भाषाएँ
रात्रि की मेरुदंड पर अधाधुंध दर्द लिखती हूँ
क्यों देखते हो तुम उसे कलंक
मैं सोना चाहती हूँ मृत्यु की एक पूरी नींद
तुम जागकर भटकते रहते हो मुझमें
इतना कि बन जाते हो मेरी सुबहों का मंगल
मैं औषधि का प्याला बढ़ाती हूँ तुम्हारी ओर
तृप्त होऊँ तुम्हें पीते देखकर और
ले लूँ चुम्बन तुम्हारे अधरों का
अमरत्व चखना है मुझे सृष्टि का
तुम्हारे होने तक उत्सव मना सकूँ मैं भी.
तुम्हारे मन का गृहस्थ मौन है न
और मेरे मन का सन्यास, मोह भर उपजी पीड़ा.