ओ स्त्री!
जब तुम रोते हुए
किसी पुरुष को देखना
तो बिना किसी
छल और दुर्भावना के
उसे अपनी छाती में
भींच लेना
और उड़ेल देना उस पर
वो सारा स्नेह
जो तुम अपने कोख़ के
जाये पर लुटाती...
कोई पुरुष जब रोता है
तो धरती की छाती
दरकती है
तुम्हें बचाना होगा स्त्री! दरार को.
पुरुष, पुरुष ही नहीं ईश भी है
वो ही न हो तो तुम स्त्री कैसे बनो?
9 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(२०-११-२०२१) को
'देव दिवाली'(चर्चा अंक-४२५४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
वाह! बहुत सुंदर प्रिय अभिलाषा। पुरुष का रोना अटल हिमालय का दरकना भी है!
कोई पुरुष जब रोता है
तो धरती की छाती
दरकती है
एकदम सही कहा आपने
बहुत ही उम्दा और सरहानीय रचना
आभार प्रिये!
बहुत स्नेह, आभार अनीता जी!
बहुत सुंदर प्रस्तुति
पुरुष पर अब तक मैंने इतनी भावुक व सार्थक रचना नहीं पढ़ी ।।।। बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं आदरणीया।।।।
बहुत खूब
पूर्णता सहमत...!
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