हाँ, साहस है मुझमें

क्यों बनूँ मैं प्रेम में अमृता
और ओढ़ लूँ 
उस प्रेम की उतरन
जो किसी ने किसी से किया...
आज कोई ले मेरी प्रेम रज
और माथे रखकर कहे
'मुझे स्नेह पगी अभिलाषा स्वीकार है'
हाँ, मुझमें साहस है 
प्रेम में अभिलाषा बनने का
...और उससे एक दिन नहीं मिलूँगी मैं
मिलती रहूँगी आँखें पनीली होने तक
जैसे साँझ से मिलती है रात.

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 1.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4539 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
धन्यवाद
दिलबाग

Anita ने कहा…

सुंदर सृजन

Onkar ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति

Asharfi Lal Mishra ने कहा…

बहुत खूब!

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php