अब ए आई Perplexity
तुम्हें सुनेगा
और बतायेगा भी
कि लोग तुमसे क्या सुनना चाहते हैं
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
मैं मर रही हूँ
नवरात्रि के नौ दिन, जो भक्ति, नृत्य और उत्सव का एक जीवंत प्रदर्शन हैं, अपने मूल में एक गहरा व्यक्तिगत और गहन अभ्यास छिपाए हुए हैं: नवरात्रि का उपवास. इसे अक्सर धार्मिक या सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखा जाता है, लेकिन यह वार्षिक अनुष्ठान मानव मनोविज्ञान का एक आकर्षक अध्ययन भी है. यह एक ऐसी यात्रा है जो सिर्फ़ खान-पान के नियमों से परे है, जो हमारी इच्छाशक्ति, भावनात्मक नियंत्रण और खुद के साथ-साथ दुनिया के साथ हमारे संबंधों को भी छूती है.
विशेष रूप से लगातार नौ दिनों तक उपवास शुरू करने का कार्य, इरादे को स्थापित करने का एक शक्तिशाली अभ्यास है. कुछ खाद्य पदार्थों और आदतों से दूर रहने का निर्णय एक सचेत विकल्प है, जो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण की घोषणा करता है. यह आत्म-संयम, सज़ा का एक रूप होने के बजाय, सशक्तिकरण का एक स्रोत बन जाता है. मनोवैज्ञानिक रूप से, यह इस विश्वास को पुष्ट करता है कि हम अनुशासन और आत्म-नियंत्रण में सक्षम हैं. शुरुआती दिन चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन जैसे-जैसे उपवास आगे बढ़ता है, उपलब्धि की भावना बढ़ती है, जिससे हमारी क्षमता की भावना मजबूत होती है. यह मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण एक लहर जैसा प्रभाव डाल सकता है, जो जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी लागू हो सकता है जहाँ अनुशासन की आवश्यकता होती है, जैसे काम, अध्ययन या व्यक्तिगत लक्ष्य.
हमारा आधुनिक जीवन संवेदी उत्तेजनाओं का एक निरंतर प्रवाह है, खासकर भोजन से। हमें खाने के माध्यम से तत्काल संतुष्टि और आराम पाने के लिए वातानुकूलित किया जाता है. नवरात्रि का उपवास जान-बूझकर इस पैटर्न को बाधित करता है. सामान्य लालसाओं और आदतन खाद्य पदार्थों को खत्म करके, उपवास संवेदी अभाव का एक रूप बनाता है. यह अभाव अपने आप में नहीं है, बल्कि निरंतर उपभोग से उत्पन्न मानसिक कोहरे को साफ़ करने के बारे में है।
जब सामान्य संवेदी इनपुट कम हो जाते हैं, तो बाकी चीजों के बारे में हमारी जागरूकता बढ़ जाती है. "सात्विक" भोजन (शुद्ध और आध्यात्मिक रूप से उत्थान करने वाले भोजन) का साधारण स्वाद अधिक स्पष्ट हो जाता है। हम उन सूक्ष्म स्वादों और बनावटों की सराहना करना सीखते हैं जिन्हें हम अन्यथा अनदेखा कर सकते हैं. यह बढ़ी हुई जागरूकता भोजन से परे है; यह सामान्य तौर पर माइंडफ़ुलनेस की अधिक भावना पैदा कर सकती है। हम अपनी शारीरिक संवेदनाओं, अपनी भावनाओं और अपने परिवेश के प्रति अधिकF सचेत हो जाते हैं। यह सक्रिय ध्यान का एक रूप है, जो हमें ऑटोपायलट पर होने के बजाय वर्तमान क्षण में मौजूद रहने के लिए मजबूर करता है.
नवरात्रि का उपवास केवल इस बारे में नहीं है कि आप क्या नहीं खाते हैं; यह इस बारे में भी है कि आप कैसा महसूस करते हैं. बहुत से लोग उपवास के दौरान शांति, स्पष्टता और भावनात्मक संतुलन की भावना महसूस करते हैं. यह सिर्फ़ एक आध्यात्मिक घटना नहीं है; इसका एक शारीरिक आधार भी है. प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ, कैफीन और चीनी को कम करने से रक्त शर्करा के स्तर में स्थिरता आ सकती है, जिससे मूड में बदलाव और चिंता कम हो सकती है. शरीर की ऊर्जा पाचन से हटकर अन्य प्रक्रियाओं, जिसमें मानसिक स्पष्टता भी शामिल है, की ओर निर्देशित होती है.
इसके अलावा, उपवास आत्मनिरीक्षण के लिए एक निर्धारित समय प्रदान करता है. जब ध्यान बाहरी सुखों और भोगों से हट जाता है, तो यह स्वाभाविक रूप से आंतरिक रूप से मुड़ जाता है. उपवास अक्सर प्रार्थना, ध्यान और सामाजिक विकर्षणों में कमी के साथ होता है. यह शांत समय भावनात्मक प्रसंस्करण और आत्म-प्रतिबिंब की अनुमति देता है. यह उन चिंताओं, अनसुलझी भावनाओं, या बेचैनी की भावना का सामना करने का अवसर प्रदान करता है जिसे हम अन्यथा भोजन या अन्य विकर्षणों से छिपा सकते हैं. इस तरह, उपवास भावनात्मक नियंत्रण के लिए एक उपकरण बन जाता है, जो हमें भीतर से आराम और शक्ति खोजना सिखाता है.
हालांकि उपवास एक गहरा व्यक्तिगत यात्रा है, लेकिन यह एक सांप्रदायिक अनुभव भी है. भारत और दुनिया भर में लाखों लोग एक ही अनुष्ठान में भाग ले रहे हैं. यह साझा उद्देश्य समुदाय और अपनेपन की एक शक्तिशाली भावना पैदा करता है. परिवार और दोस्तों की सहायता प्रणाली, जो उपवास भी कर रहे हैं, प्रेरणा और प्रोत्साहन प्रदान कर सकती है. यह सामूहिक ऊर्जा अकेलेपन की भावना को कम करती है जो कभी-कभी आहार प्रतिबंधों के साथ हो सकती है.
सांप्रदायिक पहलू भी मनोवैज्ञानिक लाभों को पुष्ट करता है. अनुशासन की साझा कहानियाँ, विशेष व्यंजनों का आदान-प्रदान, और आध्यात्मिक उत्थान की सामूहिक भावना एक शक्तिशाली प्रतिक्रिया लूप बनाती है. प्रयास की सामाजिक मान्यता व्यक्ति के संकल्प को मजबूत करती है और सकारात्मक मनोवैज्ञानिक परिणामों को पुष्ट करती है.
मनोविज्ञान के लेंस से देखने पर, नवरात्रि का उपवास समग्र कल्याण के लिए एक परिष्कृत और प्रभावी अभ्यास है. यह इच्छाशक्ति बनाने, माइंडफ़ुलनेस विकसित करने, भावनाओं को नियंत्रित करने और समुदाय की भावना को बढ़ावा देने के लिए एक समय-परीक्षणित विधि है. यह हमारे दैनिक जीवन की लय में एक उद्देश्यपूर्ण विराम है, शरीर के साथ-साथ मन को भी शुद्ध करने का एक समय है। एक ऐसी दुनिया में जो हमें लगातार अधिक उपभोग करने के लिए प्रोत्साहित करती है, नवरात्रि का उपवास जानबूझकर संयम और आत्म-खोज की यात्रा में पाई जाने वाली शक्ति और शांति की एक गहन याद दिलाता है. यह एक मनोवैज्ञानिक पुन:स्थापन है जो हमें न केवल शारीरिक रूप से हल्का महसूस कराता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक रूप से भी अधिक स्पष्ट महसूस कराता है, जिससे हम नई ताकत और उद्देश्य के साथ दुनिया का सामना करने के लिए तैयार होते हैं.
हर साल 14 सितंबर को भारत में 'हिन्दी दिवस' मनाया जाता है, जो भारतीय संविधान सभा द्वारा 14 सितंबर 1949 को हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करने की याद दिलाता है. यह दिन हिन्दी भाषा के महत्व और गौरव को समर्पित है. लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि 'हिन्दी दिवस' के अलावा 'विश्व हिन्दी दिवस' भी मनाया जाता है? और इन दोनों के बीच क्या अंतर है?
हिन्दी दिवस: राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक
हिन्दी दिवस, जैसा कि नाम से स्पष्ट है, एक राष्ट्रीय पर्व है. यह 14 सितंबर 1949 को हुए ऐतिहासिक निर्णय का जश्न मनाता है. इस दिन देशभर में स्कूलों, कॉलेजों, सरकारी कार्यालयों और अन्य संस्थानों में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इन आयोजनों का मुख्य उद्देश्य हिन्दी भाषा के प्रयोग को बढ़ावा देना और लोगों को इसकी समृद्धि और सरलता से परिचित कराना है. यह दिन हमें हमारी सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की याद दिलाता है और हमें हिन्दी के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करता है.
विश्व हिन्दी दिवस: वैश्विक पहचान की ओर
'विश्व हिन्दी दिवस' हर साल 10 जनवरी को मनाया जाता है. इसका इतिहास 'हिन्दी दिवस' से थोड़ा अलग है, लेकिन इसका उद्देश्य भी हिन्दी को बढ़ावा देना ही है, बस एक वैश्विक मंच पर। 10 जनवरी 1975 को नागपुर में प्रथम 'विश्व हिन्दी सम्मेलन' का आयोजन किया गया था. इस सम्मेलन में 30 देशों के 122 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इसका मुख्य उद्देश्य हिन्दी को एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करना था.
इस ऐतिहासिक सम्मेलन की याद में, तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को 'विश्व हिन्दी दिवस' के रूप में मनाने की घोषणा की. तब से, यह दिन हर साल दुनियाभर में मनाया जाता है. इसका उद्देश्य हिन्दी को केवल भारत की सीमा तक सीमित न रखकर इसे एक वैश्विक भाषा के रूप में पहचान दिलाना है.
क्यों और कैसे अलग हैं ये दोनों दिवस?
दोनों ही दिवस हिन्दी को समर्पित हैं, लेकिन उनके उद्देश्य और आयाम भिन्न हैं.
क्यों? हिन्दी दिवस का उद्देश्य भारत में हिन्दी के महत्व को स्थापित करना और राजभाषा के रूप में उसके प्रयोग को बढ़ावा देना है. वहीं, विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य हिन्दी को एक वैश्विक भाषा के रूप में मान्यता दिलाना और विदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देना है.
कब? हिन्दी दिवस 14 सितंबर को मनाया जाता है, जबकि विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी को.
कैसे? हिन्दी दिवस मुख्य रूप से भारत में सरकारी और शैक्षणिक संस्थानों में मनाया जाता है. वहीं, विश्व हिन्दी दिवस भारत के अलावा विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों और उच्चायोगों द्वारा विशेष रूप से मनाया जाता है, जहाँ विभिन्न कार्यक्रमों और सम्मेलनों का आयोजन होता है.
'हिन्दी दिवस' हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता है, जबकि 'विश्व हिन्दी दिवस' हिन्दी की वैश्विक यात्रा का प्रतीक है, जो इसे भारत की सीमाओं से परे एक नई पहचान दिलाता है. दोनों ही दिवस मिलकर हिन्दी के महत्व को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सशक्त करते हैं.
•एक उचाट सा मन लिए
कोने कोने घूमता हूँ
मैं गैटविक हवाई अड्डा
हर गुज़रने वाले चेहरों में
ए आई वन सेवन वन के यात्रियों को खोजता हूँ
जो उस रोज उड़ा था
सरदार वल्लभभाई पटेल हवाई अड्डे से
एक सामान्य सी उड़ान “अहमदाबाद टु लंदन”
मगर पहुँच न पाया
न ही कभी पहुँचेगा
कुछ तो हुआ होगा असामान्य
कि वो नहीं पहुँचा अपने गंतव्य
सबने कंधे झाड़ लिए कहकर
‘सब कुछ तो ठीक था हमारे एण्ड से’
फिर क्यों हुआ उसका द एण्ड
आस थी भरपूर उसके डैनों में
अपनी इच्छा का आसमान मापने की
फिर क्यों न चल सकी
दस घंटों की उड़ान दस मिनट भी
ध्वस्त हो गये प्रतीक्षांकुर
हँसी मरी
दुःख जमा
पिघल गयी आँसुओं की लैबोरेट्री
देहों का खून हो गया काला
दरकी खिड़कियों पर पसरी गूँज
दरवाजों ने फेंके क्षत विक्षत शव
दुत्कारे गये प्रार्थनाओं के नियम
इतनी निष्ठुर नियति
कि निगल गयी
एक उस दोपहर के साथ अंतहीन दिनों को
कुछ जीवन से विदा हो गया
भोर का लालित्य
सांझ का स्मित
बदले में देकर अवसाद का ब्लैकहोल
सोचो मौन के दीर्घायु होने से पहले
कितना चीखी होगी बेबसी
एक ग़ैरजरुरी बात की तरह
कितनी जल्दी भुला दिया तुमने
कैसे भूल गये तुम
और कैसे भूल जाऊँ मैं
मेरी छाती पर लोटती है फुसफुसाहट
कि वो नहीं आये
शापित महसूसता हूँ
कौन देगा मुआवजा
मेरी उम्मीद को ओवरटाइम का
जो सुस्ताती नहीं, रुकती भी नहीं
मैं गैटविक हवाई अड्डा, लंदन
उन आगंतुकों की फाइल्स में
तमाम थ्योरीज पढ़कर भी नहीं होऊँगा संतुष्ट
जिनकी पदचाप जब्त कर गया समय
जिन्हें घटना था
मगर घटकर रह गया
सामान्य तो नहीं हो सकता
एक साथ इतनी पदचापों का ठहर जाना
किसने रोका होगा
किसने किया होगा स्वागत
रुकने से पहुँचने के अंतराल तक
जाते हुओं को यदि कोई दे सका प्रगाढ़ आलिंगन
तो वो थीं उस छात्रावास की दीवारें, छत
और वो चुनिंदा लोग
जो कल चिकित्सक कहलाते
उन्हें भी असमय पहनना पड़ा
मृत्यु का ताबीज
मेरी आतुरता
कातर दृष्टि में कलप कर रह गयी
जीवन के सिलेबस में
अजीवित हो जाने की ऐसी दारुण कथा
कभी कभी लगता है
कि मनुष्यों को बनाकर ईश्वर
स्वयं भी सीख रहा है मनुष्य होने की कला
भाव प्रणव मनुज से अनसाॅल्व्ड रुब्रिक तक की
अकथनीय टीस का मर्म
जरुर सुलझा सकोगे तुम
पर बागेश्वर से ग्रोक तक
कोई मत कहना
कि तुम्हें सब है पता
इंसान होकर इंसान बने रहने को चाहिए
टाइटैनियम का कलेजा
फिर मेरे वेटिंग एरिया में भी हो सकेगा
दर्द का एटमिक टेस्ट
ईश्वर ने भगवद्गीता बचा ली
सच कितना बड़ा चमत्कार ईश्वर का!
मगर इंसानों को
ऊँचाई पर ले जाकर
पहले तो नीचे पटका
फिर आग के हवाले कर दिया
यह कोई कविता नहीं पीड़ा है
टीआरपी के विरुद्ध
सच टीआरपी बटोरने के चक्कर में
भूल जाते हैं लोग
कितनी पीड़ा पहुँच रही होगी
उन मृतकों के परिवार जनों को
यह एक ख़बर पढ़कर
पीड़ा तब भी हुई थी
जब कुंभ में मोक्ष मिली
आम बात हो गयी है ऐसी पीड़ा
कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ होता रहता है
आम आदमी मोक्ष को प्राप्त होता है
क्योंकि आम आदमी के लिए
बस एक ही सच है
कि अधिकतम पीड़ा के क्षणों में
ईश्वर नहीं भूलता है उन्हें क्लोरोफॉर्म सुंघाना
मुझे भी तुमसे कुछ ऐसा सुनना है
जैसे मार्केज़ ने कहा था मर्सिडीज़ से
और मैं ख़ुद को उसके बाद
झोंकना चाहूँगी
इंतज़ार की भट्टी में
वह इंतज़ार
जो क़िस्मत से पूरा हो
वह इंतज़ार
जिसकी क़ीमत
कई एक साल हो
तुम लिखो इस दरमियाने में
‘नाइट्स आफ सॉलिट्यूड’
बंद रखो ख़ुद को
कहीं दूर सबसे अलग
और मैं कर दूँ एक जमीन-आसमान
पता हो हम दोनों को
आख़िर में आना ही है एक साथ
तुम कहो तुम चाहते हो मुझसे शादी करना
और मैं पूछ बैठूँ, क्यों
फिर तुम कहो कि तुमने पढ़ ली हैं
मेरी सारी कविताएँ
और फिर मैं लिखने लग जाऊँ
कविताएँ
बस तुम्हारे लिए
सृष्टि की सबसे सुंदर कविताएँ
कितना अधूरा होता होगा वो
जो नहीं लिख पाया होगा
विरह की पीड़ा
कितना अभागा होगा वो भी
जो नहीं जी सका होगा वह चुंबन
जो प्रेमिका के होठों की सूखी पपड़ी से
आ गया होगा छिलकर
प्रेमी के होठों पर
मैं नहीं घबराऊँगी
उन क्रन्दनों से
उस पीर से
रच लूँगी तुम्हारे नाम का एकांत
अपने आसपास
तुम लिख सको प्रेम
अपनी कविताओं में मेरे नाम का
…और फिर
हम कभी नहीं मिल पायेंगे
जैसे नहीं मिल पाये थे
सोनी और महिवाल
जैसे नहीं मिल पाये थे
हीर और रांझा
और फिर हमें
कभी जुदा ना कर सकेगा कोई
जैसे जुदा नही हुए थे मार्केज और मर्सिडीज़
लेकिन उसके लिए तुम्हें
कर जाना होगा मुझे अमर
मेरे लिए लिखी अपनी कविताओं में
अच्छा सुनो
बहुत हुआ ये सब
धर्म पूछकर मारा
नाम पूछकर मारा
कलमा पढ़वाकर मारा
या मारने से पहले कुछ भी नहीं पूछा
मगर मारा तो
या इससे भी मुकर सकता है कोई?
मुझे यह सब नहीं कहना
मेरा कंसर्न है कि 'वो' कहाँ है
कहाँ है 'वो'?
जब भी कुछ होता है
बैठ जाता है 'वो' दुबककर
किसी को नहीं बचा पाता!
अब मुझे भी नहीं बचाना है 'उसे'
अपने भीतर
कह देना जाकर
अगर कह सको,
"तुम्हारा एक फाॅलोवर कम हो गया है ईश्वर"
~अभिलाषा
मुझे याद नहीं
कब जन्मी थी मैं
पा ने कहा मार्च की अट्ठारह को
माँ ने कहा इग्यारह रही होगी
नानी माँ ने बतलाया,
हम लोग बसौढ़ा की तैयारी में लगे थे तब
माने होली के आठों वाली सप्तमी को,
आसान नहीं था मेरा जन्म
माँ के गर्भ में बीतने को था
लगभग दस माह का समय
किसी भी सूरत में हो ही जानी थी जचगी
आम प्रसव से अधिक पीड़ा झेली थी माँ ने
कभी जताया नहीं
पर लाड़ करती है इतना ही
कोख से निकाल कर भी
लगाये रही छाती से
कई बार घुटन तक महसूस की मैंने
मुझे याद नहीं कुछ भी
यह भी नहीं कि पा के तबादलों संग
कितना अकेलापन झेला होगा माँ ने
यहीं से पा के पाँवों में
आ गया था राजनीति का चक्र
अपने विभाग के यूनियन लीडर्स से लेकर
इंदिरा जी तक से मिलना
उनका पसंदीदा शगल बन गया था
मैं थी कि बड़ी ही होती जा रही थी
कोई और रास्ता था ही कहाँ
फिर एक दिन,
यक़ीन मानो बहुत बड़ी हुई थी
पहली बार उस दिन,
पंडिज्जी ने कहा,
“जन्म राशि कुंभ के अनुसार ये ग्रह…”
माँ ने “इसकी जन्म राशि तो वृश्चिक है”
कहकर उनके मुँह पर जड़ना चाहा
'शट अप'
पर अब क्या
हो चुका था जो होना था
क्योंकि मुहर लगा दी थी नानी माँ ने
सत्य वर्सस संभावना के वार ज़ोन में
पछाड़ खाकर पस्त हो चुका था
सत्रह बरसों का सहेजा सच
जो एक झटके में सच नहीं रह गया था
मैं जन्म के अट्ठारहवें साल में
पूरे सात दिन और बड़ी हो गयी थी
मुझे और सीखना था
बहुत कुछ
मग़र मैं बनकर रह गयी पैसिव लर्नर
उन सात दिनों के क्षेपित सच के साथ
कैसा लगता है सुनने पर,
तुम वो तो हो ही नहीं जो अब तक होते आये हो
~अभिलाषा
देखना
एक दिन
तुम सब मारे जाओगे
हाँ तुम सब
मैं भी
लेकिन सबसे पहले
वे मारे जायेंगे
जिनका नाम शुरु होगा “र” से
मैं डरता हूँ
थर्राता हूँ
नींद नहीं आती है
तो रातों में उठ बैठता हूँ
मेरा किसी काम में
मन नहीं लगता
यहाँ वहाँ भागता रहता हूँ
कम हो गयी है मेरी प्रोडक्टिविटी
गुस्सा तो बहुत करने लग जाता हूँ
बैठ नहीं पाता एक जगह टिककर
और तुम्हें पता है
दो महीने पहले
उस नौकरी से निकाल दिया जाता हूँ
जहाँ मैंने दिये थे अपने 20 साल
और पिछले महीने
तीन और नौकरियों से
फारिग कर दिया जाता हूँ मैं
अब कोई काम नहीं
दिन भर खुद से ही उलझता हूँ
झल्लाता हूँ
सिर धुनता हूँ
अब मेरे पास बहुत वक्त है
कि बता सकूँ सभी को
घूम-घूम कर
चिल्ला-चिल्ला कर
कि मार दिए जायेंगे सब
कोई नहीं बचेगा
लेकिन सबसे पहले वे ही मारे जायेंगे
जिनका नाम “र” से शुरू होता है
जितना मानसिक व्यग्र दिख रहा हूँ मैं
मुझे देख कर हर कोई यही कहेगा
हाँ जरुर इसके साथ कुछ हुआ होगा
इस तरह मेरी बात
बातों ही बातों में
देर तक चलती रहेगी
दूर तक निकल जायेगी
और इसे मान लिया जायेगा सच
झूठ की चाशनी में लिपटा हुआ
आज का निर्लज्ज सच
कहीं खौफ़नाक मुस्तक़बिल न हो जाये
जीवन की भूख कब रही मेरे भीतर
एक भूख से भरा जीवन रहा
इन कोमल उंगलियों पर पड़ी कठोर गाँठे
याद दिलाती रहीं ध्रुव तारे को छू लेने की ज़िद
न तो हम प्यार से बैठे कभी पास-पास
न ही पास बैठकर प्यार कर पाये
बस अपनी अपनी खिड़कियों से मापते रहे
रात का एकाकीपन
और
तब तक चलता रहेगा यह सिलसिला
जब तक चाँद करता रहेगा स्पांसर मेरे दर्द को
•लिखो विरुपा, विलक्षणी को
नायिका अपनी कविताओं की,
जुगनू की डाह पर गुदड़ी सीती
म्लेच्छ को लिखो
नवें माह के गर्भ पर नवीं जनने को तैयार
उस विरल पर, उसकी मंथरा सास पर लिखो
तुम आधे पूरे शब्दों में कुछ कच्चा पक्का भी लिखना
तुम जन्नत जैसी हूरों पर कुछ अच्छा सच्चा भी लिखना
लिखना तो
सरकंडे की आँच पर रोटी बेलती
उस स्त्री पर लिखना
जिसने चूल्हे की रोशनी में पढ़कर
अभी-अभी यूपीएससी की परीक्षा निकाली है
तुम ढ़लते यौवन की बाला पर गिरती हाला भी लिखना
तुम चम चम चमकाती आँखों की मधुशाला भी लिखना
पर उसके तुम बनो शूलपाणि
और फेंक दो कवच उस स्त्री की अस्मिता पर
जिसने किया है सौदा भूख के बदले
मत बनो चिरकुटों के प्रयोग का अस्त्र
मत स्वीकारो ‘वाह’ कुशीलियों की
ना बन पाना स्वर किसी स्त्री के ओज का
तो मत लिखना
कभी किसी स्त्री के लैक्मे आई लाइनर के बारे में,
कजरारे नैन से पहले
नशीली चितवन से पहले
स्त्री की भृकुटी, ललाट पर लिखो
तुम लिखना किसी अबोली का भय शब्दों में अपने लिखना
तुम लिखना किसी अपाहिज को और चिंतन भी उसका लिखना
तुम लिखना पंगु नहीं चढ़ते गिरि पर
तुम लिखना उनका नहीं कोई ईश्वर
वेद, ऋचा झूठी हैं आयतें
उनमें विद्रोह भयंकर है, उनकी उदासी का स्वर
तुम लिखना पशुवत मानव को उसके भीतर के दानव को
तुम लिखना उस ईश्वर को और आउटडेटेड अप्प दीपो भव को
भय, वेदना, विसंगति ही क्या
छूटना और प्राप्ति ही क्या
जब लिखना किसी नायिका को तब सर्वप्रथम भार्या लिखना
कुछ लिखने का मन हो तो फिर, प्रेम उसी से प्रायः लिखना
मैंने पहले मौन चुना
तब ईश्वर छोड़ा
बहुत शौक़ रहा उसे
सफेद संगमरमर के
बुतों के पीछे छुपने का,
बुत बनने का
अब बनता रहे बुत
मैं नहीं बुलाती उसे
काहे का ईश्वर है वो
जब उसे यह तक नहीं पता
कब सड़कों पर निकलना है
कब बनना है तमाशबीन
मजाक बनाता है
अपने लिए रची आस्था का
यह कथा तो बहुत सुन ली
कि कृष्णा की पुकार पर भागा आया
मगर कहाँ जाये
कलयुग की द्रोपदी;
कहाँ होता है वो
जब बढ़ रहा होता है
गरीबों की थाली में छेद;
तब-तब भी नहीं आता
जब-जब उजड़ती है किसी माँ की गोद
कभी-कभी लगता है
इल्युमिनाटी स्कूल का है ईश्वर
स्वयं भी उपासक है लूसिफर का
और रहता है धनाढ्य में कलयुग बनकर
हँसी आती है
सो कॉल्ड संतों के उपदेशों पर
जब कहते हैं
‘माया के पीछे मत भागो’
ज़रा सोचो
कितनी माया बटोरी होगी
इस भीड़ से माया छुड़ाने के लिए
माया की गोद में बैठकर
कह देते हैं, माया बुरी है
जाने वो ईश्वर के पीछे हैं
या ईश्वर उनके पीछे
ईश्वर सत्ता का है
तभी तो प्रमाणपत्र दिलवा देता है
आस्तिकता-नास्तिकता का
श्श्शशश
यह पूँजीपतियों का ईश्वर है
यह बाहुबलियों का ईश्वर है
अगर कभी आ गया सामने
तो मत समझे कि पूछूँगी
‘कहाँ रहे इतने दिन’
लौटने वालों से बस इतना ही कहना है
‘अब आये ही क्यों’
करना चाहे कोई मेरा विरोध
तो गुरेज़ नहीं मुझे
क्या है कि मेरा
डी एन ए ही अलग है
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