न मिले सात सुर
न सप्तपदी हुई
साँस प्रेम की
हर साँस ठहरी रही
सुमिरन करुँ
प्रेम में मैं प्रवासी
मन को पाषाण
कर देह सन्यासी
जोगिया मुझसे मिलना
जब मिले देह काशी
घाट मणिकर्णिका
क्लांत पथ कोस चौरासी
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
न मिले सात सुर
न सप्तपदी हुई
साँस प्रेम की
हर साँस ठहरी रही
सुमिरन करुँ
प्रेम में मैं प्रवासी
मन को पाषाण
कर देह सन्यासी
जोगिया मुझसे मिलना
जब मिले देह काशी
घाट मणिकर्णिका
क्लांत पथ कोस चौरासी
अब इसे कोरापुट के फिल्मांकन का असर ही कहेंगे कि "मल्हारा" के बहाने सभी अपनी भावनाओं को खंगाल रहे हैं. कौन कहता कि समय के साथ प्रेम मुरझा जाता है ये तो और प्रगाढ़ हो जाता है. प्रेमी हमारा मल्हारा बन जाता है, हृदय का प्रीत राग झंकृत होता है जब उसकी आमद होती है. उस नेह को चूमने अकुलाई बारिश की बूँदे आकर गले लगती हैं.
इस प्रीत राग को शब्द दिए हैं, शब्दों के जादूगर अनूप कमल अग्रवाल "आग" ने. विश्वास नहीं होता कि बरखा और आग का संगम अनवरत चलेगा. लेकिन ये प्रयोग सफल रहा है ये इस गीत की चढ़ती लोकप्रियता बता रही है.
कविराज को गीतकार बनने की बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएं!
मैंने कभी नहीं सोचा था
मेरे भीतर प्रेम का एकलव्य सर उठायेगा
और मैं तुम्हें सौंपती रहूँगी अपना वादा
फिर एक दिन तुमने कुछ नहीं कहा
और तमाम दिन बीतते रहे
तुमने देने बन्द कर दिए शब्दों के शर
प्रेम में पूर्णता को आहुत होने
मैं तुम्हारे प्रेम की मूर्ति पूजती रही
तुम्हें अपना गुरु मानकर;
नियति ने तुम्हारे मौन को खण्डित किया
"प्रेम में उर्ध्वगामी बनना होगा तुम्हें
तुम मुझसे भी आगे बढ़ो" तुम्हारे आशीर्वचन
मेरा छिन्न-भिन्न 'मैं' आज तक न समझा
कि प्रेम में पुरस्कृत हूँ या तिरस्कृत!
एक बार फिर लोगों ने मुझमें एक नए
एकलव्य को जन्म दिया, ये कहकर
कि गुरु ने दक्षिणा में प्रेम ही ले लिया...
हर रात वो
लाइटर की आग से
जलाती है
कागज़ के चंद टुकड़े
और अपने मन को
समझाती है अक्सर
कि उसने जला दी अपनी
अंतिम प्रेम कविता भी;
देर तक काले टुकड़े
हवा में तैरते हैं
और उसे टीसते हैं
सिगरेट से भीगे होंठ.
रेत रेत लिख दिया
देह खेत लिख दिया
उँगलियाँ कलम हुईं
श्याम श्वेत लिख दिया
तार तार मन को जब
प्यार प्यार लिख दिया
दिल के ज़ख़्म में भी
तूने शहरयार लिख दिया
धानी, लहू को करके
दिन का उतार लिख दिया
इतना दिया प्यार तुमने
के कर्जदार लिख दिया
कुम्हार चाक पर कच्ची मिट्टी को हाथों की थाप से गढ़ा करता था. उसके बनाये हुए घड़े लोगों में इतने पसंद किए जाते थे कि बिना वजह ही लोग लेते थे. कुछ लोग तो बस देखने ही आते थे. उनकी सबसे बड़ी विशेषता एक ओर झुका होकर भी संतुलन बनाये रखना था. कुम्हार के अंदर न तो गर्व था न ही पैसों का लालच. एक दिन एक गायक उधर से गुजरा उसे भी ये कला पसंद आयी. वो वहीं बैठकर रियाज़ करने लगा.
एक दिन उसने कुम्हार के मन में ये बात डाल दी कि उसके गीतों से ही घड़ों ने संतुलन बनाना सीखा. कुम्हार मुग्ध था गायक पर उसकी बात मानता चला गया. फिर गायक बोला कि सभी के घड़े तो टेढ़े नहीं होते फिर तुम्हारे ही क्यों? कुम्हार को अपनी खासियत ही कमी लगने लगी...गायक को सुनकर उसकी चाक पर हाथों की थाप धीरे धीरे सीधी पड़ने लगी. गायक की रुचि घड़ों में कम हुई वो चला गया और एक दिन सब की रुचि भी...अब कुम्हार घड़े नहीं बनाता गीत गाता है.
चिड़िया पेड़ के प्रेम में इतनी मशगूल थी कि अपने पंख भूलती रही. पेड़ उसे सर्दी, गर्मी, बारिश से बचाता. अपने पत्तों की छाँव में आसरा देता. उसकी कोपलें चिड़िया को दुलारतीं. बहुत ख़ुश हुई चिड़िया और पेड़ को भी अच्छा लगा क्योंकि अब तक उसके पास सब अपने लिए आते थे मगर पहली बार चिड़िया पेड़ के लिए थी वहाँ. वो भी बहुत सारे प्यार के साथ. दोनों के प्रेम की चर्चा होने लगी. भौंरा, तितली, हवा, पर्वत सब दोनों को अलग करने की युक्ति सोचते. अब पेड़ को भी लगने लगा ये सही नहीं. चिड़िया पेड़ से और ज़्यादा प्रेम करने लगी. एक दिन एक चिड़ा ने पेड़ से मित्रता कर ली. पेड़ ने चिड़िया का भविष्य उस चिड़े के साथ सोच लिया. आकंठ पेड़ के प्रेम में डूबी चिड़िया और प्रेम करने लगी. पेड़ को उदासीन देख उसका प्रेम वेदना में बदल गया. सारे पंख झड़ गए. प्रेम की पुजारिन चिड़िया ने पेड़ की बात मानने की हामी भर दी. चिड़े के साथ पहली उड़ान भरे इससे पहले ही वो जमीन में आ गिरी. उसे पेड़ की आगोश में ज़मींदोज़ कर दिया गया.
आज तक वो पेड़ ख़ामोश खड़ा है. उसकी आवाज़ चिड़िया की मृत देह
मैंने इमरोज़ नहीं चाहा
न ही उसकी पीठ
तुम्हारा नाम उकेरने को,
तुम साहिर भी मत बनना
शायद ही कभी मैं
चूल्हे पर चढ़ा सकूँ
तुम्हारे नाम की चाय
बस यूँ ही बने रहना
मेरी सुबह, मेरी शाम और रात
मेरी आत्मा के साथी.
आज जैसे ही शादी के लिए हाँ बोला मैंने, सभी के चेहरे अचानक खिल उठे. तुम्हारा भी फ़ोन आ गया. बंद थी जो बात इतने दिन से कैसे शुरु कर पाऊँ दोबारा. मन में कुछ नहीं है अब. तुम लोगों ने जो निर्णय लिया और जिस तरह से मेरी स्वीकृति की मुहर लगवायी... मैंने अपनी नियति मान लिया इसे.
आने वाले सोमवार इंगेजमेंट की रस्म है और हर वक़्त की तरह मेरे मुँह से निकल गया, "जो पसन्द हो बनवा लेना. मुझे तो पहनना ही है बस." तुम सब मुझे शायद आख़री बार 'पागल लड़की' कहकर हँस रहे होगे क्योंकि रस्म की पहली पोशाक पहनने से पहले मुझे अपना मन उतार कर रखना होगा कहीं और...किसी के पास. मुझे ख़ुद पर दुनियादारी का लिबास डालना है.
जब मख़मल सी सुर्खियाँ
अम्ल के पार होती हैं
जब चाहत कलम में
तार तार होती है...
जब सरगोशियाँ न हों हवा में
और दिन पलट जाये
जब लफ़्ज़ का वरक़ पर
मरासिम ठहर जाये
जब तू न हो और मेरा वक़्त
बस तेरे साथ गुज़रे
जब तेरी आँखों में सब पढ़ें
मेरी ग़ज़ल के मिसरे
तब तो कहने देना तुम्हीं मेरे गुलज़ार हो
मेरी ज़िंदगी के चारों दिनों का एतबार हो!
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