लेखक: एक योद्धा

एक लेखक
योद्धा होता है विचारों का
उसके रगों में दौड़ती है विद्युत
इतनी ही चपलता से
जैसे कोई अश्व दौड़ रहा हो युद्ध भूमि में
विरोधी सेना को परास्त करने के उद्देश्य से

रण क्षेत्र में विरोधी सेना होती है
एक समूचा, संगठित विपक्ष
जबकि लेखक के युद्ध में
उसे पार पाना होता है अपने ही उन विचारों से
जिन्हें वो स्वयं हाशिये पर रखना चाहता है

एक लेखक नहीं लिख पाता मन की यथावत
क्योंकि वो एक विचारक भी है
और लोगों की अपेक्षा में दृष्टा भी
वो परिष्कृत करता है भावनाओं को
उन्हें विचारो का मूर्त रूप देने के लिए

छिद्रों से बने एक घड़े सा मस्तिष्क
तरल-तरल बहता बहता है समाज में
और ठोस वो स्वयं में रखता जाता है
कभी-कभी इतना भर जाता है लेखक
कि इस नियम को धता बता देता है
'लेखक को अवसाद नहीं होता
लेखक आत्महत्या नहीं करता'

योद्धा भी तो मारा जाता है.

हमारे रास्ते


यूँ ही अलग अलग रास्तों से
फिर कभी मिल जायेंगे

तुम जम्हाई बोना मेरे चेहरे पर
अपने पास बिठा लेना
हम ख़्वाब में भी बस तुम्हें
हाँ तुम्हें गुनगुनायेंगे

वो जो कविता गायी थी
तुमने एक रोज मेरे लिए,
उसके सुरों से एक सड़क बनायी है
उसके इर्द-गिर्द तन्हाई बिछायी है
हम चलेंगे एक दिन उस सड़क पर
साथ-साथ

यूँ ही अलग अलग रास्तों से
फिर कभी हम मिल जायेंगे

संगीत के सादा नोट की तरह

सबक

एक नाराज बच्चे ने एक हृदय की धड़कन सुनी और वह खुश हो गया. वह बच्चा धड़कते हृदय से कहने लगा, "मैं तुम्हारे प्यार में पड़ गया हूँ"

धड़कते हृदय ने कहा, "जानते ही कितना हो मुझे? क्यों मेरे प्यार में पड़ गए हो? क्या हमेशा प्यार कर पाओगे मुझे?

नाराज बच्चे को पहली बार ख़ुशी मिली थी. पहली बार उसको कोई बात अच्छी लगी थी. उसने इसे ही सब कुछ मान लिया और झट से बोल पड़ा, "यकीन से तो नहीं कह सकता लेकिन अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा"

अब धड़कते हृदय को यकीन हो गया. उसे पता है क़ामयाब वही होता है जो कोशिश करता है. उसने नाराज बच्चे को अपने अंदर एक कमरा दे दिया. नाराज बच्चे और हृदय की धड़कन का संयोजन प्रेमपूर्वक बहने लगा. यह देखकर कुछ और भी लोग थे जो नाराज बच्चे की तरह धड़कन की तरफ आकर्षित हुए. धड़कन ने पहले ही नाराज बच्चे को जगह दे रखी थी. धड़कन जानती थी उसके पास इतनी जगह नहीं है कि वह सभी को बुला सके उसने माफी माँगते हुए सबको कोई और धड़कता हृदय ढूँढने की सलाह दी. वह सब कहाँ मानने वाले थे. वहीं मँडराते रहे. नाराज बच्चे को धड़कन अपना प्रिय मानती थी. वह उसकी आवभगत में लगी रहती बस इसीलिए कि नाराज़ बच्चे को जो खुशी उसके पास आकर मिली है वह कभी कम न हो और बढ़ती ही रहे. लेकिन अब उन दोनों के बीच बहुत से लोग आ गए थे. बहुत से लोग इस ताक़ में भी थे कि कब नाराज़ बच्चा धड़कन से नाराज़ हो जाये. कुछ नाराज़ बच्चे को अपने कमरे में धड़कन की तरह जगह देना चाहते थे. वहीं कुछ नाराज़ बच्चे बनकर धड़कन के कमरे को ख़ाली कर उसमें अपनी जगह बनाना चाहते थे. रास्साकशी का माहौल था. ठीक उसी तरह जैसे समुद्र मंथन के समय हुआ था. वासुकि की जगह किसी ने ले ली, मंदराचल पर्वत की जगह धड़कता हृदय है. अमृत निकला. विष भी निकला. धड़कते हृदय ने किसी भी मोहिनी को आगे नहीं आने दिया. सब अमृत नाराज बच्चे पर उड़ेल दिया और विष एक कोने में रख दिया. सभी ने विष चख लिया. नाराज बच्चा भीड़ की ओर देखने लगा. उसे लगा धड़कते हृदय ने मेरे साथ नाइंसाफी कर दी. मुझे केवल अमृत दिया और बाकी सभी को जाने क्या-क्या मिला है. भीड़ ने नाराज बच्चे को अपनी तरफ आता देख गले से लगाया. हाथों-हाथ लिया. उसे बेवजह उदास करके उसकी खुशी का कारण बनी और इस तरह नाराज बच्चा उनकी ओर आकर्षित हो गया. अ ब स द कितने ही लोग हैं यहाँ. नाराज बच्चे को बहुत अच्छा लगने लगा. उसे लगा वह यही तो चाहता था. यह बात उसके मन की है. कितने सारे लोग उसके अपने हो गये. उस एक धड़कते हृदय के चक्कर में वह तो बेचारा अकेला ही रह जाता. कैसा था वह धड़कता हृदय कितना बड़ा मक्कार...मुझे कमरे में बिठाकर बंद कर लिया. अब नहीं आऊँगा उसकी बातों में. सचमुच मैं तो ठगा गया. कितनी बड़ी दुनिया है लेकिन उस मूर्ख ने तो मेरी दुनिया ही छोटी कर दी थी. अब भीड़ ने यह अनुभव कर लिया था कि नाराज बच्चा धड़कते हृदय से कुछ असहमत है और इसी बात का फायदा भीड़ अपने-अपने तरीके से उठाने लगी. भीड़ फायदे उठाने लगी. नाराज बच्चा मजे लेने लगा. धड़कता हृदय अकेला रह गया. उसका कमरा खाली था. वह नाराज बच्चे को बहुत याद करता था. कितने दिनों से उसे नाराज बच्चों के साथ हँसते-खेलते, उसका मन बहलाते धड़कता हृदय खुद भी खुश हो जाता था. धड़कते हृदय ने कभी नाराज बच्चे के सामने यह नहीं कहा कि वह अकेला है, उसे भी साथी की जरूरत है. लेकिन धड़कता हृदय अब भी चाहता है कि नाराज बच्चा अपने कमरे में वापस आ जाये. मगर भीड़ नहीं चाहती है. वह नाराज बच्चे का मखौल उड़ाती है कि धड़कते हृदय की क़ैद में वह रहा. अब नाराज बच्चा आज़ाद है. धड़कता हृदय आज़ाद है और भीड़ भी आज़ाद है तीनों की आज़ादी अलग-अलग है. नाराज बच्चे की आज़ादी यह है कि उसे धड़कते हृदय से मुक्ति मिल गयी. धड़कते हृदय की आज़ादी यह है कि अब वह बिल्कुल अकेला हो गया और भीड़ की आज़ादी यह है कि उन्होंने नाराज बच्चे को धड़कते दिल से अलग कर दिया. 
किसी का साथ पाना फिर उससे दूर हो जाना हर किसी को यह बात तकलीफ नहीं देती है लेकिन उसको बहुत देती है जो रिश्ते जल्दबाजी में नहीं बनाता, किसी लालच में नहीं बनाता लेकिन षड्यंत्र करने वाले लोग नहीं समझते. बात-बात पर किसी को दोषी ठहरने वाले लोग नहीं मानते कि अपनापन ऐसा भी होता है. 
धड़कता हृदय अब नाराज बच्चे से कभी यह सवाल नहीं करेगा कि वह सभी की बातों में क्यों आया, और जब एक दिन छोड़ना ही था तो एक दिन आकर मिला ही क्यों था? सवाल नहीं करेगा तो इसका मतलब यह भी नहीं कि नाराज़ बच्चा खुद से भी यह सवाल न पूछे.
नाराज़ बच्चा कभी भी धड़कते हृदय से यह सवाल नहीं करेगा कि वह पक्षपाती क्यों बना, इतना अमृत क्यों दिया कि उसका दम घुटने लगा? अगर नाराज़ बच्चा नहीं पूछेगा तो क्या इसका मतलब यह भी नहीं कि धड़कता दिल अपने आप से यह सारे सवाल न करे और ख़ुद को गुनहगार मानते हुए कभी दोबारा नाराज बच्चे के सामने भूल कर भी जाये.
जो सबक हमें जिंदगी रोजमर्रा की बातों में दे जाती है उसमें कहीं ना कहीं गुरु हम स्वयं ही होते हैं.

प्रेम में मैं

तुम्हें पढ़ा ही कितना है मैंने अमृता
मग़र कहीं होतीं तुम मेरे आसपास
तो यक़ीनन तुम्हें प्रेम कर बैठता
इतना प्रेम जितना इमरोज भी न कर पाया हो
मेरी माँ की कोख ने मुझे कहाँ
प्रेम को जन्म दिया था
चढ़ते घाम का हर घूँट
ढ़ुलकती चाँदनी का रूप
उदरस्थ किया मैंने
प्रेम का नाम लेकर
सर्द पहाड़ों पर फहरायी है पताका
प्रेम की हवा गुजारने को मैदानों में,
मेरे भीतर का मैं नामालूम सा हूँ
तुम चाहो तो खोज लो मुझे
देवदारों से चिनारों तक
शीत, उष्ण, बयारों तक

मुझे इमोशनल एनेस्थीसिया दे दो

देव तीसरी सिगरेट निकालने ही जा रहा तभी सुरीली ने आगे बढ़कर उसका हाथ रोक लिया.

"यह क्या देव हद होती है किसी बात की. जब तुम मेरे सामने इस तरह से अपने फेफड़े जला रहे हो तो बाद में जाने क्या करते होगे"

"नहीं तुम गलत समझ रही हो. मैं फेफड़े नहीं जला रहा. मैं तो उसकी यादों को जला रहा हूँ"

"तो क्या इस तरह सब कुछ भूल जाओगे? ऐसे तो तुम अपना जिस्म गला दोगे और मजबूती से पाँव टिकाकर खड़े रहने के लायक भी न रह पाओगे"

"तो क्या करुँ मैं सुरीली? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा"

"कुछ मत करो. अभी कुछ मत सोचो"

"कहना आसान है. अच्छा एक बात बताओ, मेरी जगह तुम होतीं तो क्या करतीं"

"पहली बात तो यह कि तुम्हारी जगह मैं नहीं हूँ. दूसरी बात मैं कुछ नहीं करती. जिंदगी में कभी-कभी ऐसा वक्त आता है जब हम और तुम कुछ नहीं कर पाते. सब कुछ होता रहता है. वक्त करता है सब"

"सुरीली तुम तो समझो मुझे. मैं जी नहीं पा रहा. मेरी साँसे चुभती है मुझे. यह ख़ाली वक्त, रातों का सन्नाटा, मुझे लगता है हर पल मैं ब्लैक होल में जा रहा हूँ. क्या करुँ यार कुछ समझ में नहीं आ रहा. मुझे इमोशनल एनेस्थीसिया दे दो, मैं कुछ महसूस ना कर पाऊँ सुरीली. सुरीली मुझे बचा लो उसकी यादों से. बच्चा बना लो मुझे. छुपा लो मुझे"

सुरीली ने लड़खड़ा रहे देव को संभाला. फुटपाथ के किनारे बेंच पर उसको बिठाते हुए दोनों कंधों पर अपने हाथ रख दिये और उसकी आँखों में देखने लगी. यह ममत्व और स्नेह से लबरेज आत्मविश्वास का वो लम्हा देव को देने की कोशिश है जो एक दोस्त की जिम्मेदारी है और उसका हक़ भी. देव अपने मन का गुबार हल्का करता जा रहा है और सुरीली उसके बालों में हाथ फिरा कर उसे सांत्वना देती जा रही है. जितना देव को पता है उतना ही सुरीली को भी पता है कि अब देव की जिंदगी में तोशी का आना नामुमकिन सा है. वह गयी कहाँ, उसने तो मुँह फेरा है. अपनी रंगत बदली है.

सुरीली किसी तरह देव को उसके घर तक ले आयी. कल फिर मिलने का वादा करके बोझिल कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ी. यादें हैं कि पीछा नहीं छोड़ रहीं. कितना खुश रहा देव पिछले दो सालों में. बहुत प्यार करने लग गया था तोशी से और वो है कि… लगता है दुनिया में किसी को सच्चा प्यार डाइजेस्ट ही नहीं होता है. पर तस्वीर का दूसरा रुख भी तो होता है. सुरीली का माथा ठनका, तोशी भी तो बहुत खुश रही है देव के साथ. कहीं ऐसा तो नहीं मैं देव को अपने दोस्त की तरह देख रही हूँ! कहीं ऐसा तो नहीं मैं देव का पक्ष वज़न करके देख रही हूँ! कुछ तो ऐसा हुआ ही होगा वरना तोशी कल तक तो देव पर जान लुटाती थी. अब जबकि सुरीली के मन में यह बात आ ही गयी है तो असमंजस बढ़ गया है. क्या करे, क्या ना करे. देव ने भी तो पूरी तरह से मना कर दिया है कि तोशी से देव को लेकर कोई चर्चा न करे. पीछे पलटती है तो देव की ओर जाती है और आगे बढ़ती है तो वह रास्ता तोशी की गली का भी तो हो सकता है. कुछ भी हो सुरीली ने मन ही मन ठान लिया, कहानी का दूसरा रुख जरुर देखेगी. सोचते सोचते उसका स्टॉप आ गया. बस से उतर कर अपने घर चली गयी मगर छूट गयी है थोड़ी सी देव के पास. किस हालत में उसे छोड़ कर आयी है.

उसने देव को फोन किया, "हेलो देव कैसे हो?"

"और कैसा? जैसे छोड़ कर गई थी. सुरीली आज पहली बार मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ. मुझे ख़ुद में तुम्हारी भी कुछ कमी सी लग रही है"

"अरे पागल मत बन. मैं और तुम अलग हैं क्या"

"सब कुछ अलग होता है कुछ भी एक सा नहीं होता. हम जैसा सोचते हैं वैसा तो कुछ भी नहीं होता. क्या-क्या नहीं सोचा था पर… उसके लिए तो मैं आकाश को भी लाल रंग में देखने लगा था. मैं उसकी आँखों के गुलाबी डोरों से चमकते आँसू देख पा रहा हूँ. मुझे हर कहीं वो दिख रही है. आँखें बंद करता हूँ वो जोर जोर से हँसते हुए मेरे बिस्तर के पास खड़ी हो जाती है. सुरीली वो मुझसे दूर नहीं गई है. वह मुझे यह एहसास करा रही है कि उसके बिना जीना है. मुझे चिढ़ा रही है. मेरे प्यार की इंसल्ट कर रही है"

"देव तुम उससे प्रेम करते हो और प्रेम में यह सब शोभा नहीं देता. वह भला क्यों चिढ़ायेगी तुम्हें, क्यों नाटक करेगी दूर जाने का? वो भी तो तुमसे बहुत प्यार करती थी. अभी यह सब सोचने का वक्त नहीं है. तुम आराम करो मैं सुबह बात करती हूँ. कोई ना कोई रास्ता निकलेगा ही"

"मुझे रास्ता नहीं मुझे तोशी चाहिए" यह सुनते ही सुरीली को समझ में आ गया था कि आगे क्या करना है. वह समझ चुकी है कि देव और तोशी के बीच प्यार खत्म नहीं हुआ बल्कि कोई गलतफहमी आ गयी है.

अच्छी ख़ासी रात उभर आयी है मगर बिस्तर पर मन नहीं लग रहा है. कॉफी बना लायी. लैपटॉप ऑन किया, 'हर कहीं तो देव है. लैपटॉप में बस उसी की पिक्चर्स, उसी के प्रेजेंटेशन. तोशी के साथ उसके कितने सारे फोटो. जब भी फोटो क्लिक करता है सबसे पहले मुझ से पूछता है, देखो मैं कितना डीसेंट लग रहा. यह वाली देखो हैंडसम हूँ ना! तोशी के साथ की सारी पिक्चर्स यह कहते हुए भेज देता है, मैं जानता हूँ तुम मेरे इन खूबसूरत लम्हों को अपने पास संजोकर रखोगी और उसके सारे प्रेजेंटेशन्स… मुझसे बिना पूछे कहीं भेजता भी तो नहीं और यह ब्लैक जैकेट में… कितना खुश था उस दिन तोशी के साथ पहली बार डेट पर गया था और तैयार होने से पहले मुझे फोटो दिखायी थी और मैंने भी किस तरह मजे लेने के लिए उसे बोल दिया था, इस कबूतर को कौन पसंद करेगा और उसने छेड़ते हुए कहा था, तो क्या तू ही हमेशा मेरी कबूतरी बनी रहना चाहती है. और मैं हँसती रही थी. कभी हमारा कोई हिडन सीक्रेट नहीं रहा हम दोनों के बीच. बातों ही बातों में कई बार उसने जानने की कोशिश करी थी कि मैं अकेले क्यों रहना चाहती हूँ. मैं हर बार यही कहती कि अकेले रहना मेरा चुनाव है मेरी नियति नहीं, जो मैं साथी ढूँढने के लिए संघर्ष करुँ. जब मुझे अकेले रहना ही पसंद है तो कुछ और सोचना क्या! यह बात कभी-कभी उसे कचोटती भी थी लेकिन मैं अपनी बेफिक्री से उसे रिलैक्स करवा देती थी. सभी की चिंता रहती है उसे फिर तोशी तो उसका प्यार है. 

अब कोई सूरत नहीं दिख रही. दिन भर बातों में डूबे रहने वाले तोशी और देव को अलग हुए पूरे तीन दिन हो गये 'ओह तोशी के सोशल अकाउंट्स चेक करती हूँ शायद कही कुछ क्लू मिल जाए, इंस्टा, ट्विटर, एफ बी कहीं भी तोशी ने न तो मुझे रिक्वेस्ट किया था न ही मेरी रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की थी. हम फ्रेंड नहीं थे पर फर्क ही क्या पड़ता. वो अपने अकाउंट्स कभी प्राईवेट नहीं रखती थी. पिछले दो सालों में हम बस तीन बार मिले थे. पहले देव हर बात में उसकी बातें किया करता था फिर प्यार पुराना पड़ने लगा और बातें कम होने लगी लेकिन जब भी दोनों का मिलना होता तो हर बात मुझे बताता था और तस्वीरें भी दिखाता था. आह इंस्टा पर तो पिछले तीन महीने से कोई पोस्ट ही नहीं. रील और स्टोरी भी नहीं. फेसबुक स्टोरी खोलते ही, सुरीली की हथेलियों से पसीना छूटने लगा. यह कविता नुमा कुछ लिखा है एक ही साँस मे कविता पढ़ ली…

रस्सी देखी है ना
मतलब हाथ में लेकर
कोई कूदता है
कोई लटकता है
आज मेरे हाथ में भी है रस्सी
पर मैं कूद नहीं सकती

आज पहली बार सुरीली ने तोशी की एफ बी स्टोरी देखी है. 
यह क्या सुरीली तो बहुत अपसेट है, इस तरह के भाव पब्लिक में लिखे मीन्स मैटर सीरियस है. जो रस्सी कूदता नहीं वो लटकता है और यह भी लिखा कि वो कूद नहीं सकती… तो क्या, ओह नो. सुरीली ने चाय का कप दोनों हथेलियों के बीच ऐसे जकड़ लिया जैसे चाय खत्म होने पर भी वो कप को छोड़ने वाली नहीं. 'शायद इन सब से बात नहीं बनने वाली. मुझे तोशी से बात करनी ही पड़ेगी. क्या कर लेगा देव, ज्यादा से ज्यादा गुस्सा करेगा तो सुन लूँगी. कहीं ऐसा ना हो कि उसकी हाँ के चक्कर में देर हो जाए. नहीं-नहीं मुझे तोशी से अभी बात करनी है' सुरीली ने मन ही मन सोचते हुए तोशी को फोन लगा दिया. तोशी तो जैसे फोन हाथ में लिए ही बैठी थी. उसने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. सुरीली ने फिर से फोन लगाया फिर से डिस्कनेक्ट और इंगेज टोन. मगर सुरीली कहाँ हिम्मत हारने वाली थी. उसने कई बार फोन लगाया. तोशी ने फोन अटेंड कर बस इतना ही कहा, 'सब कुछ खत्म करके भी तुम्हारा मन नहीं भरा? अब क्या चाहती हो तुम मुझसे? देख ली ना मेरी स्टोरी? यही सच है मेरा. बस यही… खुश रहो जाकर अपने देव के साथ'

सुरीली के सामने कहानी स्पष्ट हो गई थी. अब कुछ भी समझना नहीं रह गया. इसे क्लियर कैसे किया जाये यही समझना था. सोशल अकाउंट से बढ़कर हिंट कहाँ मिल सकती थी. चाय का कप टेबल पर पटक कर सुरीली लैपटॉप के साथ बेड पर बैठ गयी. फेसबुक इंस्टा अलग-अलग विंडो पर खोल रखी हैं. इंस्टा तो ज्यादा कुछ नहीं बता रहा अलावा इसके कि देव से मिलकर आसमान में उड़ रही थी. फेसबुक पर टर्न करते ही स्क्रॉल करने लगी. पिछले 3-4 दिन से कोई एक्टिविटी नहीं. यह क्या पिछले हफ्ते का पोस्ट इस पर देव, तोशी और प्रांजल की नोकझोंक हुई है. देव इतनी जल्दी किसी की बात पर रिएक्ट तो नहीं करता फिर प्रांजल के कहने पर… और तो और तोशी से भी भिड़ गया. मुद्दा सुरीली को बनाया गया. हो क्या गया है इस प्रांजल को. हम दोनों के रिश्ते को इतनी अच्छी तरह से समझने के बावजूद भी कैसे तोशी को भड़का रहा है. वह अच्छी तरह से जानता है पर किस तरह से कह रहा है कि देव तोशी के साथ ज्यादा वक्त बिताने लगा बेचारी सुरीली अकेली पड़ गई. क्या ख़ाक अकेली पड़ गई मैं. क्या मैं देव की जिम्मेदारी हूँ. उसकी अपनी लाइफ है मेरी अपनी. दोस्ती का मतलब क्या यह होता है. मेरे साथ सिंपैथी की आड़ में कितना गंदा खेल खेल गया प्राँजल. गॉड देव के रिश्ता टूटने की वजह मैं हूँ लेकिन इसमें गलती तोशी और देव की भी तो है. एक दूसरे पर विश्वास न करके किसी तीसरे की बातों पर रिश्ता तोड़ने लगे. सुरीली ने देव की प्रोफाइल देखी. वहाँ पाॅटर के अलावा कुछ नहीं मिला. प्राँजल की प्रोफाइल देखते ही उसके होश उड़ गए. पिछले कई दिनों से वह लव ट्रायंगल वाली पोस्ट लगा रहा था. इस बीच तोशी से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी. लगभग हर पोस्ट में तोशी का कमेंट जरुर चिपका था. उनमें से अधिकतर में लंबी-लंबी बातें. पूरा का पूरा ट्रायंगल सीन तोशी के दिमाग में प्रांजल में इंजेक्ट किया था. अभी हाल ही में उसका ब्रेकअप हुआ था और मूव ऑन करने का इससे बेहतर क्या तरीका होता. सुरीली को समझ में नहीं आ रहा था कि लोग अपने मजे के लिए किसी के इमोशंस के साथ कैसे खेल सकते हैं और तो और प्रांजल ने हँसी हँसी में ही यह भी प्वाइंट आउट कर दिया था कि तोशी देव को छोड़ कर तो देखे, देव सीधा सुरीली की बाहों में जायेगा और फिर सुरीली उसे मनाने का ड्रामा करेगी.

थोड़ा और स्क्रॉल करके ऊपर जाने पर सुरीली को उस स्वेटर की पिक्चर दिख गयी जो उसने देव को उसके बर्थडे में अपने हाथों से बनाकर गिफ्ट किया था. और तो और यह कैप्शन देखो, कौन करेगा ऐसा प्यार जैसा सुरीली देव से करती है! दोस्ती की अनूठी पेशकश. और उसके नीचे तोशी और देव दोनों के कमेंट्स. कमेंट में देव को कितना प्रोवोक किया गया है मेरी दोस्त तो नहीं करती ऐसा. बहुत डेडीकेटेड फ्रेंड है सुरीली. काश मेरी भी ऐसी ही फ्रेंड होती. 'सच बहुत बड़ा खिलाड़ी निकला प्राँजल' सोचते हुए सुरीली अपना माथा पकड़ कर बैठ गयी. तक़लीफ़ तो बहुत हुई यह सब देखकर मगर सुरीली को रास्ता मिल चुका है कि किस तरह देव को उसकी मंजिल तोशी तक पहुँचाना है. उसकी आत्मा चीख रही है देव को कभी सखा, कभी बहन तो कभी माँ बनकर स्नेह दिया. बदले में कुछ नहीं चाहा. इतना सब कुछ होता रहा और देव ने एक पल के लिए भी दोस्त की तरह मुझसे आकर बात नहीं की. उसकी नज़र में मेरी दोस्ती से ज्यादा वैल्यू उन बातों की हो गयी. देव, सुरीली का प्यार नहीं प्राउड था.

देव को तोशी से मिलवाकर सुरीली ने स्नेह की पथरीली डगर को अलविदा कहा. इतना आसान नहीं था देव को भुलाना… विपरीत दिशा में भागते हुए बस यही कहती गयी, 'मुझे इमोशनल एनेस्थीसिया दे दो.'

नपुंसक

मत भांजो लाठियाँ 
नपुंसकों पर
एक दिन ये
स्वयं ही मर जायेंगे,
मत बाँधो 
इनकी पीठ पर
आलोचनाओं को बोझ
क्योंकि जब ये जायेंगे
तो ले जायेंगे साथ अपने
जनन की आशा

प्रार्थनायें

मेरी प्रार्थनाओं में
कभी नहीं आये
मंदिर-मस्जिद,
गिरजाघर-गुरुद्वारे
बल्कि इन स्थानों पर
पनपी हैं याचनायें
मुझे प्रार्थनाएं आयीं
वहाँ-वहाँ
जहाँ-जहाँ
लिखा मैंने
कोई प्रेम गीत
तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए

वो

नज़्म में
लिपटकर
रोटियाँ नहीं आतीं

कोई तो जगह
बता दो साहब
जहाँ बेची,
बेटियाँ नहीं जाती

है वो कौन सा
यौम-ए-आशूरा
जब काटी
बोटियाँ नहीं जाती

दिल होता
तो पिघलता
इन नामुरादों का
युग बदलता
और खींची
द्रोपदियों की
चोटियाँ नहीं जाती

हाथी नहीं हैं ये
कुत्ते भी नहीं हैं
नथुनों में
इनके रेंगने
चीटियाँ नहीं जातीं

आदिवासी: एक सभ्यता

आदिवासी, पता नहीं आपको सुनने में यह शब्द कैसा लगता है पर हमें इस शब्द में विशेष रुचि है। जाने क्यों सुनते ही मन को लगता है यह शब्द। मन करता है एक बार उन गलियों में जाने का, उन बस्तियों में जाने का जहाँ वो लोग रहते हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है। हमारी सभ्यता का विस्तार हमें गाँव से शहर तक ले आया। यहाँ तक आते-आते बहुत कुछ खो गया, बहुत कुछ छूट गया। हमारी जो असल सभ्यता है वही पीछे छूट गयी और उसके भी पीछे जो रह गया या यूँ कह लें कि छोड़ दिया गया, वही आदिवासी रह गया। समाज की मुख्य तो क्या किसी भी धारा से जुड़ ही नहीं पाया।

हमारी समझ में आगे बढ़ने के नाम पर मूल संस्कृति को ढकता हुआ जो विनाश शुरु होता है वो एक अंत है और वही अनंत है। जो हम पीछे छोड़ कर आए हैं, जल-जंगल और जीव, इन सभी को बचाने का दायित्व आदिवासियों को सौंपा है, लेकिन उनके बचने का क्या? क्या हमने कभी उनके बारे में सोचा है? हम में से कितने ही लोग सजग है इस बारे में? कितने लोग जानते हैं उनके वास्तविक जीवन के बारे में? कितने लोग उनसे मिले होंगे कभी? कितने लोगों ने उनके बारे में सुना होगा? कितने लोगों को उनकी बातें बताई जाती होंगी?

हम उनकी बात नहीं कर रहे जो वहाँ से पलायन कर बाहर की दुनिया में आ गए हैं, जिन्होंने स्वयं को मूलभूत आवश्यकताओं को पा सकने के जुगाड़ वाली चक्की में छोंक दिया है। अब वह शहरी मानसिकता के दूषित होते जा रहे हैं। इन सब की ओर नहीं, हमारा ध्यान आज उन लोगों की ओर जा रहा है जो मूल रुप से अपनी जगहों पर रह रहे हैं। जिन्होंने अपने जीवन में तारकोल की बनी हुई सड़क पर पाँव नहीं रखा, जिन्होंने अपने जीवन में बिजली नहीं देखी, गाड़ी नहीं देखी, बस नहीं देखी, जो हवाई जहाज के बारे में नहीं जानते हैं, जो नुक्कड़ चौपाल आदि से दूर हैं, जो अखबार, मीडिया, टीवी बहस संसद नहीं जानते हैं।

सुनकर अजीब सा लग रहा होगा ना लेकिन चौंकिए मत। ऐसे बहुत से लोग हैं, ऐसी बस्तियाँ हैं, दूर जंगलों में बनी बस्तियाँ। बस्ती के नाम पर दूर-दूर दीवारों जैसे कच्ची मिट्टी की दीवारों जैसी कुछ आकृति दिख जाती हैं। फूस की छतें, घरों में दरवाजे नहीं, जानवरों से बचाने के लिए कुछ लगा दिया। कोई यदि भूला भटका शहरी इंसान, शहरी बाबू पहुँच भी जाए तो आदिवासी हक्का-बक्का से देखते रह जाते हैं। उन्हें नहीं आता 'आइए बैठिए' कहने वाली मीठी वाणी का कलफ़, उन्हें नहीं आता तैयार होकर मेहमान नवाजी करना। हम लोगों जैसी सो-कॉल्ड सभ्यता नहीं आती उन्हें लेकिन सही मायनो में वो ही विरासत को जीवित रखे हैं। उन्होंने जंगलों को बचाए रखा है, उन्होंने पेड़ों को बचाए रखा है, जीवों को शरण मिली है उन्हीं के आसरे। उनके चेहरे पर ईर्ष्या नहीं, द्वेष नहीं, तिरस्कार नहीं। उनकी आँखों में निश्छलता है। कोई कटाक्ष नहीं बोलते वो। हम अगर उन्हें कुछ देना भी चाहें तो वह नहीं लेते। अगर उन्होंने हमारे लिए कुछ किया है तो हम कदाचित उन्हें कुछ दे सकते हैं। वह हमसे कुछ नहीं लेते बल्कि अगर हम और आप पहुँच जाए उनके आसपास कहीं, तो हमें वह बहुत कुछ देते हैं, सब कुछ देते हैं। जीवन का आधार बताते हैं वो। सादगी निश्छलता, अपनापन, स्नेह इन सबके मायने बताते हैं। एक ठौर पर टिका हुआ उनका जीवन हमें सिखाता है... जीना तो यह भी है संतुष्टि है, चमक है, काम है, आराम है, कोई तनाव नहीं, कोई जल्दी नहीं, कहीं आना जाना नहीं, 24 घंटे हैं, अपने अनुसार हैं। यहीं रहना है। वन जीवन बचाना है। अच्छा लगता है उनसे मिलकर। अगर कभी मिलिये तो, वहाँ शुद्धता है, शुचिता है। कुछ भी बनावटी नहीं। कुछ भी दिखावटी नहीं।

विलंब

 क्या चाहिए तुम्हें?


विलंब


किस बात का?


निशा के पारण का


क्यों?


नदी के उस पार कोई मेरी प्रतीक्षा में है। प्रभात फेरी के समय नौका का आगमन है


तुम जाना चाहती हो?


हाँ, पर नाव को पानी से बाँधना होगा


तो तट से क्यों बाँधी?


जब जान गये तो प्रश्न क्यों?


तुम्हारा प्रतिप्रश्न सुनने के लिए 


हिश्श, कहीं ऐसे होता


फिर कैसे होता


ऐसी बातें तो वो करते जो प्रेम करते किसी से


यही समझ लो


अच्छा तो यहाँ क्या कर रहे? तुम्हें तो अपनी प्रेमिका के पास होना चाहिए। धवल चाँदनी, मंद पवन, शीतल जल...ये सब तुम्हारा मन आलोड़ित नहीं कर रहे प्रियसी की मुस्कान के लिए?


कर रहे थे तभी तो यहाँ आया


और यहाँ तो मैंने रोक लिया


वही तो


अब जा सकते हो। किसी को तो उसका प्रेम मिले!


नहीं, मुझे तुम्हारी बातें आनन्दित कर रहीं। ऐसा लग रहा मानो भोर की बेला तक मुझे प्रेम हो जायेगा


भोर तो होने वाली है


उसमें विलंब है। भूल गयीं, अभी तो तुमने माँगा


अच्छा हाँ...


धवल चाँदनी, मंद पवन, शीतल जल...ये सब तुम्हारा मन आलोड़ित नहीं कर रहे प्रिय की मुस्कान के लिए?


कर रहे हैं न...तभी तो नाव तट से बाँध दी। जो पास है वही साथ है


प्रिये तुम्हारी आँखों में स्वयं को देख पा रहा हूँ मैं


तुम्हारा स्पर्श मेरे भीतर उन्माद की कल-कल उत्पन्न कर रहा


प्रिये, मुझे क्षमा कर दो। मैं कभी तुमसे अपना प्रेम प्रकट नहीं कर पाया


मुझे भी क्षमा कर दो, यह जानते हुए भी कि मैं समुद्री डाकू से मिलने जा रही, घर से निकल चुकी थी। तुम्हें मेरे पीछे भेजने का पिताजी का निर्णय एकदम सही था


एक रात को ये आज की रात ठहर क्यों नहीं जाती!

स्मृति

 •स्मृति क्या है?


°बीते हुए कल के शोर की प्रतिध्वनि


•शोर क्यों स्वर क्यों नहीं?


°जिस प्रकार हमारी सूक्ष्म देह होती है ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म कान भी। स्वर उनसे टकराये भी तो हम विचलित नहीं होते और उनके बारे में बार-बार नहीं सोचते


•हमारी स्मृति में कुछ बातें ही क्यों होती हैं, सब क्यों नहीं?


°जिन बातों के लिए हमारा मन अति संवेदनशील होता है, वही बातें हमारे मन में अनवरत चलती रहती हैं


मेरी पहली पुस्तक

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