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वो

नज़्म में
लिपटकर
रोटियाँ नहीं आतीं

कोई तो जगह
बता दो साहब
जहाँ बेची,
बेटियाँ नहीं जाती

है वो कौन सा
यौम-ए-आशूरा
जब काटी
बोटियाँ नहीं जाती

दिल होता
तो पिघलता
इन नामुरादों का
युग बदलता
और खींची
द्रोपदियों की
चोटियाँ नहीं जाती

हाथी नहीं हैं ये
कुत्ते भी नहीं हैं
नथुनों में
इनके रेंगने
चीटियाँ नहीं जातीं

आदिवासी: एक सभ्यता

आदिवासी, पता नहीं आपको सुनने में यह शब्द कैसा लगता है पर हमें इस शब्द में विशेष रुचि है। जाने क्यों सुनते ही मन को लगता है यह शब्द। मन करता है एक बार उन गलियों में जाने का, उन बस्तियों में जाने का जहाँ वो लोग रहते हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है। हमारी सभ्यता का विस्तार हमें गाँव से शहर तक ले आया। यहाँ तक आते-आते बहुत कुछ खो गया, बहुत कुछ छूट गया। हमारी जो असल सभ्यता है वही पीछे छूट गयी और उसके भी पीछे जो रह गया या यूँ कह लें कि छोड़ दिया गया, वही आदिवासी रह गया। समाज की मुख्य तो क्या किसी भी धारा से जुड़ ही नहीं पाया।

हमारी समझ में आगे बढ़ने के नाम पर मूल संस्कृति को ढकता हुआ जो विनाश शुरु होता है वो एक अंत है और वही अनंत है। जो हम पीछे छोड़ कर आए हैं, जल-जंगल और जीव, इन सभी को बचाने का दायित्व आदिवासियों को सौंपा है, लेकिन उनके बचने का क्या? क्या हमने कभी उनके बारे में सोचा है? हम में से कितने ही लोग सजग है इस बारे में? कितने लोग जानते हैं उनके वास्तविक जीवन के बारे में? कितने लोग उनसे मिले होंगे कभी? कितने लोगों ने उनके बारे में सुना होगा? कितने लोगों को उनकी बातें बताई जाती होंगी?

हम उनकी बात नहीं कर रहे जो वहाँ से पलायन कर बाहर की दुनिया में आ गए हैं, जिन्होंने स्वयं को मूलभूत आवश्यकताओं को पा सकने के जुगाड़ वाली चक्की में छोंक दिया है। अब वह शहरी मानसिकता के दूषित होते जा रहे हैं। इन सब की ओर नहीं, हमारा ध्यान आज उन लोगों की ओर जा रहा है जो मूल रुप से अपनी जगहों पर रह रहे हैं। जिन्होंने अपने जीवन में तारकोल की बनी हुई सड़क पर पाँव नहीं रखा, जिन्होंने अपने जीवन में बिजली नहीं देखी, गाड़ी नहीं देखी, बस नहीं देखी, जो हवाई जहाज के बारे में नहीं जानते हैं, जो नुक्कड़ चौपाल आदि से दूर हैं, जो अखबार, मीडिया, टीवी बहस संसद नहीं जानते हैं।

सुनकर अजीब सा लग रहा होगा ना लेकिन चौंकिए मत। ऐसे बहुत से लोग हैं, ऐसी बस्तियाँ हैं, दूर जंगलों में बनी बस्तियाँ। बस्ती के नाम पर दूर-दूर दीवारों जैसे कच्ची मिट्टी की दीवारों जैसी कुछ आकृति दिख जाती हैं। फूस की छतें, घरों में दरवाजे नहीं, जानवरों से बचाने के लिए कुछ लगा दिया। कोई यदि भूला भटका शहरी इंसान, शहरी बाबू पहुँच भी जाए तो आदिवासी हक्का-बक्का से देखते रह जाते हैं। उन्हें नहीं आता 'आइए बैठिए' कहने वाली मीठी वाणी का कलफ़, उन्हें नहीं आता तैयार होकर मेहमान नवाजी करना। हम लोगों जैसी सो-कॉल्ड सभ्यता नहीं आती उन्हें लेकिन सही मायनो में वो ही विरासत को जीवित रखे हैं। उन्होंने जंगलों को बचाए रखा है, उन्होंने पेड़ों को बचाए रखा है, जीवों को शरण मिली है उन्हीं के आसरे। उनके चेहरे पर ईर्ष्या नहीं, द्वेष नहीं, तिरस्कार नहीं। उनकी आँखों में निश्छलता है। कोई कटाक्ष नहीं बोलते वो। हम अगर उन्हें कुछ देना भी चाहें तो वह नहीं लेते। अगर उन्होंने हमारे लिए कुछ किया है तो हम कदाचित उन्हें कुछ दे सकते हैं। वह हमसे कुछ नहीं लेते बल्कि अगर हम और आप पहुँच जाए उनके आसपास कहीं, तो हमें वह बहुत कुछ देते हैं, सब कुछ देते हैं। जीवन का आधार बताते हैं वो। सादगी निश्छलता, अपनापन, स्नेह इन सबके मायने बताते हैं। एक ठौर पर टिका हुआ उनका जीवन हमें सिखाता है... जीना तो यह भी है संतुष्टि है, चमक है, काम है, आराम है, कोई तनाव नहीं, कोई जल्दी नहीं, कहीं आना जाना नहीं, 24 घंटे हैं, अपने अनुसार हैं। यहीं रहना है। वन जीवन बचाना है। अच्छा लगता है उनसे मिलकर। अगर कभी मिलिये तो, वहाँ शुद्धता है, शुचिता है। कुछ भी बनावटी नहीं। कुछ भी दिखावटी नहीं।

विलंब

 क्या चाहिए तुम्हें?


विलंब


किस बात का?


निशा के पारण का


क्यों?


नदी के उस पार कोई मेरी प्रतीक्षा में है। प्रभात फेरी के समय नौका का आगमन है


तुम जाना चाहती हो?


हाँ, पर नाव को पानी से बाँधना होगा


तो तट से क्यों बाँधी?


जब जान गये तो प्रश्न क्यों?


तुम्हारा प्रतिप्रश्न सुनने के लिए 


हिश्श, कहीं ऐसे होता


फिर कैसे होता


ऐसी बातें तो वो करते जो प्रेम करते किसी से


यही समझ लो


अच्छा तो यहाँ क्या कर रहे? तुम्हें तो अपनी प्रेमिका के पास होना चाहिए। धवल चाँदनी, मंद पवन, शीतल जल...ये सब तुम्हारा मन आलोड़ित नहीं कर रहे प्रियसी की मुस्कान के लिए?


कर रहे थे तभी तो यहाँ आया


और यहाँ तो मैंने रोक लिया


वही तो


अब जा सकते हो। किसी को तो उसका प्रेम मिले!


नहीं, मुझे तुम्हारी बातें आनन्दित कर रहीं। ऐसा लग रहा मानो भोर की बेला तक मुझे प्रेम हो जायेगा


भोर तो होने वाली है


उसमें विलंब है। भूल गयीं, अभी तो तुमने माँगा


अच्छा हाँ...


धवल चाँदनी, मंद पवन, शीतल जल...ये सब तुम्हारा मन आलोड़ित नहीं कर रहे प्रिय की मुस्कान के लिए?


कर रहे हैं न...तभी तो नाव तट से बाँध दी। जो पास है वही साथ है


प्रिये तुम्हारी आँखों में स्वयं को देख पा रहा हूँ मैं


तुम्हारा स्पर्श मेरे भीतर उन्माद की कल-कल उत्पन्न कर रहा


प्रिये, मुझे क्षमा कर दो। मैं कभी तुमसे अपना प्रेम प्रकट नहीं कर पाया


मुझे भी क्षमा कर दो, यह जानते हुए भी कि मैं समुद्री डाकू से मिलने जा रही, घर से निकल चुकी थी। तुम्हें मेरे पीछे भेजने का पिताजी का निर्णय एकदम सही था


एक रात को ये आज की रात ठहर क्यों नहीं जाती!

स्मृति

 •स्मृति क्या है?


°बीते हुए कल के शोर की प्रतिध्वनि


•शोर क्यों स्वर क्यों नहीं?


°जिस प्रकार हमारी सूक्ष्म देह होती है ठीक उसी प्रकार सूक्ष्म कान भी। स्वर उनसे टकराये भी तो हम विचलित नहीं होते और उनके बारे में बार-बार नहीं सोचते


•हमारी स्मृति में कुछ बातें ही क्यों होती हैं, सब क्यों नहीं?


°जिन बातों के लिए हमारा मन अति संवेदनशील होता है, वही बातें हमारे मन में अनवरत चलती रहती हैं


जीवन का सत्य• भाग (1)

हम मानने में
विश्वास रखते हैं
सच मानना हो,
किसी रिश्ते को मानना हो
अथवा गणित का एक्स
हमने माँ के गर्भ में
स्वयं को नहीं देखा
पर सभी ने जिन्हें माँ कहा
हमने माना
पिता ने हमें
जन्मते नहीं देखा
परिचारिका ने मुझे
उनकी गोद में डालते हुए
मुँह मीठा कराने को कहा
पिता जी ने मान लिया;
इस मानने में
मन ने सदैव
प्रश्न नहीं प्रेम किया,
संदेह नहीं
विश्वास किया

क्रमशः

चंद क्षणिकाएँ

 



•प्रेम

ऐश्वर्य के पाँव में पड़े

छालों का नाम है


•नदियाँ धरा का सौंदर्य हैं

और पड़ाड़ो तक पहुँचने का

सुगम मार्ग


•दर्द के मार्ग पर

चलते हुए

प्रिय का प्राकट्य होता है


•कोई तो है

जो इस सृष्टि पर

दृष्टि रखे है


•प्रेम में

तुम्हें याद करना ही

मेरे प्रेम की अधिकतम सामर्थ्य है


आख़िरी से पहले की ख्वाहिशें

"मैं तुमसे बात नहीं कर पाऊँगा, हाँ ये जानता हूँ तुम मुझसे बहुत प्यार करती हो और शायद यही वजह भी है"

"ठीक है तुम शब्दों में लिखते रहना, मैं आँखों से चूम लिया करुँगी, जीती रहूँगी अपने आप में तुम्हारी होकर"

"मुझे अफसोस है कि मैं कभी तुम्हारे सामने भी न आ पाऊँगा"

"मैं अपने आज़ाद ख़यालों में पा लिया करुँगी तुम्हारी झलक"

"कब तक बनाती रहोगी उम्मीद के मक़बरे?"

"तुम्हारे ख़यालों में तर साँसों के चलने तक"

"फिर?"

"फिर थोड़ी सी मुझे ज़मींदोज कर देना वहाँ, जहाँ चूमते हैं ये पाँव अलसुबह की ओस. महसूस लूँगी हर रोज तुम्हारी छुअन, थोड़ी सी मुझे जला देना उस पेड़ की लकड़ियों संग जिसे सींचा है तुम्हारे बचपन ने, गले लगाया है तुम्हारे यौवन ने, अपने आँसुओं से भिगोयी हैं जिसकी पत्तियाँ तुमने, मेरी हड्डियों से बनाना काला टीका… जो लगाया जाये प्यार भरी पेशानी पर. बाक़ी बची मुझ से बनाना एक नजरबट्टू..जहाँ भी रहो तुम मेरी आज़ाद रुह के साथ वहाँ रखना.
पूरी कर देना मेरी आख़िरी से पहले की ख्वाहिशें"

"----?----"

"मेरी आखिरी ख्वाहिश तो बस 'तुम' है"

तिल वाला लड़का

उसके दायें कंधे पर तिल नहीं था मगर ये तो बस उसे पता था. मुझे इतना मालूम है कि आज लिखने की मेज पर जब बैठी तभी अचानक मेरे मन में एक रुमान उभरा...अगर प्रेमी के दायें कंधे पर तिल हो, प्रेमिका अपने होंठ उस पर रखे तो प्रेमी के मन की सिहरन मेरी कविता के पन्नों को कितना गुलाबी कर सकेगी...
फिर क्या लोगों ने आँखों के खंजर से कुरेदना शुरु किया अब उसके दायें कंधे पर तिल होने से कौन रोक सकता है. तिल काला हो, भूरा हो या लाल क्या फर्क पड़ता, गुलाबी मोहब्बत ने तो जन्म ले लिया.
वो मोहब्बत नहीं जो दिल से आँखों में उतरकर स्याही बनी बल्कि वो मोहब्बत जो क़ागज़ पर बिन आग के धुएँ सी जली. हाँ, ये और और बात है कि तुम अपनी गर्दन पर हाथ फेरकर सोच रहे होगे कि कहानियों के रुमान में भीगी पागल सी लड़की कहीं इसी तिल की बात तो नहीं कर रही!

जिज्ञासा

रात क्या है?
शाम की पाती
जो सुबह तक
ख़ुद ही
चलकर आती

सुबह क्या है?
ईश्वर के
विश्वास का
टूटता हुआ तारा

विश्वास क्या है?
किसी की
परेशानी सुनकर
हाथों का यकायक
एक-दूसरे से जुड़ जाना

हाथ क्या है?
हमारी मौजूदगी का
विस्तार
जिसके भीतर
दुनिया है हमारी

दुनिया क्या है?
उम्र क़ैद
काटने के लिए
गुजर करने को
मिली जगह

उम्र कैद क्या है?
विंडो सिल पर
कप के
निशान के भीतर
जमी हुई धूल

चाय क्या है?
मैं और मेरे तुम,
मौन सा झरका,
बिछड़ने से
ठीक पहले की मिठास

प्रेम क्या है?
किसी अछूत द्वारा
मंदिर के भीतर
लगे घंटे का
पहला स्पर्श

स्पर्श क्या है?
वह पल जब
अलग हो रहा होता है 
माँ की गर्भनाल से
कोई शिशु

चाय के बहाने प्यार

आओ उफानते हैं
केतली भर प्यार आज
कविता दिवस के दिन
तुम मेरी बाहों में सोना
मैं सर रख लूँगी अपना
तुम्हारे सीने पर,
उबलते रहेंगे
हम दोनों के मन देर तक
पका लेंगे उसमें
प्यार, नोकझोंक,
तकरार की मीठी बातें
और छान लेंगे
एक दूसरे के मन में;
कड़वाहटें अलग करके

इंसान बनना है मुझे

माँ ने कृतज्ञ होना सिखाया

और यह भी सिखाया कि

नदी, वृक्ष, प्रकृति की तरह बनो

देना सीखो,

पशुओं की तरह बनो

अनुगामी रहो

अब उलझन में हूँ मैं

क्या इंसान नहीं बन सकती!

एक और सुझाव मिला

गीता का सार समझो,

ईश्वर कहता है

….

कदाचित कुछ नहीं कहता ईश्वर

अलावा इसके कि

कर्म प्रधान रहे

निर्णय स्वयं से हो और

संतुलन बना रहे

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php