अब रील्स स्क्रॉल करना बंद, सर्वे से कमाना शुरु
मैं तुम्हें पढ़ती रहूँ
कभी अपने बिस्तर की सिलवटों बीच सिमटकर
कभी सूर्य नमस्कार करते हुए
कभी मंदिर की सीढ़ियों में
कभी दातुन फिराते हुए छज्जे पर
कभी कप में चाय उड़ेलते हुए स्लैब पर
कभी दफ़्तर के रास्तों में
कभी लंच की गप शप पर ठिठककर
कभी छुट्टियों में समय भर पसरकर
कभी मनाली लेह मार्ग के तंगलंगला दर्रे पर
कभी बादलों के घर में उड़ते उड़ते
कभी बुर्ज खलीफा की छाँव में
कभी जीवन के ठहराव में
कभी मृत्यु के पड़ाव में
....
कभी भी कहीं भी
बस इतने ही अनायास तुम आ जाते हो
जैसे बोल रहे हो कानों में
'अभी अभी कुछ लिखा है
बताओ भला कैसा लिखा है'
तुम्हारे शब्दों में जकड़ी हुई मैं
तुम्हारे शब्दों में स्वतंत्र होती हूँ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें