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माँ का संदेश


घण्टी बजते ही मैंने अख़बार किनारे रखकर दरवाज़ा खोला.

"अरे माँ तुम, पहले बता देती तो मैं स्टेशन पर लेने आ जाता" पैर छूकर उनका सामान ले लिया.

"तुम परेशान थे तो हम आ गए. अग़र पहले से बता देते तो तेरी ये ख़ुशी कहाँ दिखती"

"ये इतना क्या सामान लाई हो?" मैंने कौतूहलवश निकालना शुरु किया.

"अरे ये तो मेरी बचपन वाली ड्राइंग कॉपी है. इस पर मैं तुम्हारे चेहरे बनाया करता था, गुस्से वाला, प्यार वाला, हँसी वाला…"

"हाँ और जब हम किसी को दिखा देते थे तो तुम रूठ जाया करते थे"

"सब लोग मुझे हँसते जो थे बस एक तुम्हीं तो थीं जो हर ख़राब ड्राइंग की भी तारीफ़ करती थीं. अब समझ में आया कि तुम माँ थीं, तुम्हें तो अपने बेटे में कोई बुराई दिखती ही नहीं थी. माँ, इधर बैठो मेरे सामने आज फ़िर तुम्हारा चेहरा बनाता हूँ"

"नहीं, इसे रखो किनारे. तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाए हैं"

"क्या है इसमें?"

"पुलाव. तुम्हें बचपन से बहुत पसंद है न!"

"माँ अपने हाथों से खिलाओ मुझे"

माँ मुझे पुलाव खिलाती रही और मैं खाता रहा. आज बहुत दिनों के बाद मैंने इतना खा लिया पर मन नहीं भरा. माँ की गोद में सर रखकर बैठा रहा और वो मेरा माथा सहलाती रही. उसकी हथेली इतना सुकून दे रही थी कि अब कभी सर दर्द नहीं होगा. मेरी सारी परेशानियां उसकी गोद में रह गईं और मैं उनकी तस्वीर बनाने को उठ खड़ा हुआ.

"माँ अब बनाने दो ना अपनी तस्वीर"

"नहीं तुम तो ख़ुद मेरी तस्वीर हो. अब अपने बच्चों की माँ की तस्वीर बनाओ. तुम्हारे जीवन में रंग उनको भरने हैं. अब अपनी पत्नी में तुम एक औरत नहीं बल्कि माँ को देखो. अपने बच्चों को वो प्यार दो जो तुम मुझसे चाहते हो. अपनी पत्नी को वो सम्मान दो जो मुझे देते हो. मानसिक संताप और क्रोध किसी समस्या का अंत नहीं स्वयं में एक समस्या ही है"

"...और हाँ व्हाट्स एप और फ़ेसबुक का प्रयोग भी सीमित कर दो. जिन समस्याओं से भागकर उनके पास जाते हो, सच तो ये है कि वही समस्याओं का कारक हैं" माँ अपनी बात कहती जा रही थी और मेरी नज़रें दीवाल पर चुभ गई थीं.

"...तुमने बहुत परेशान होकर हमको याद किया तो हमें आना पड़ा. अब हमारे लिए परेशान मत हो उनके बारे में सोचो जो तुम्हारे पास हैं…" इतना कहते ही माँ की आवाज़ दूर चली गई और मेरी नींद खुल गई. तब मुझे याद आया माँ तो तारा बन चुकी है, शायद वो मुझे यही संदेश देने आई थी.

आज क्रिसमस है

'सुनो आज की चाय हम साथ नहीं पी सकते क्या...एक समय, एक ही मेज पर जिसका एक हिस्सा तुम अपने लैपटॉप के लिए रखते थे और दूसरा मैं यूं ही मोबाइल पर उंगलियां फिराते हुए तुम्हें कनखियों से ताकने के लिए रख छोड़ती थी, हूबहू एक ही स्थिति में बैठे हुए...याद है पिछले साल...?' मेरा संदेश अग्रसारित होते ही त्वरित उत्तर आ गया.
साथ ही एक चित्र भी... वही मुस्कुराता हुआ चेहरा, मेज की उसी छोर पर...जैसे अपलक मेरी आंखों में देखते हुए दिल में उतर रहा हो...और एक चाय का प्याला मेरे लिए...
शहर बदल गया तो क्या हुआ सर्द रातों का गर्म अहसास तो अब तक वही है.

सोने से पहले


'अरे फ़िर भूल गई.'
अपने आप से बड़बड़ाते हुए बैग की ज़िप लगाते-लगाते ईश को फोन लगाने लगी तभी डोर बेल बजी. फ़ोन बिस्तर पर डालकर दरवाजा खोला रुबीना दी रात के दस बजे आने की माफ़ी मांगते हुए अपने डिज़ाइन किए तीन सूट देते हुए बोलीं,
'ये तेरे टूर के लिए परफेक्ट हैं. मुझे लगा पैकिंग हो जाएगी तभी इस वक़्त आ गई. चलती हूं तेरी सुबह की ट्रेन है न, अब सोना भी होगा.'
'न ऐसा कुछ नहीं दी अगर आपके पास वक़्त है तो प्लीज़ बैठिए.'
'इतना कहती है तो एक कॉफी पी लेती हूं तेरे साथ, फिर तो तू एक महीने बाद आएगी.' मैं किचन में कॉफी बनाते हुए ईश को सोच रही थी. बस दी चली जाए अभी बात करती हूं. कितने कमज़र्फ दिन बीत रहे हैं मैं चाहकर भी उसे वक़्त नहीं दे पा रही. मिलना तो दूर फ़ोन भी... बस ये टूर निपटे किसी तरह.
दी कॉफी की तारीफ़ किए जा रही और मैं उसमें ईश को देख रही थी. उसे भी तो... हे भगवान, मेरे अंदर से ईश कम जैसा हो रहा है...मैं घुट जाऊंगी... दी के जाते ही दरवाजा बंद कर ईश को फ़ोन मिलाने लगी...लो बैट्री...चार्जर हाथ में उठाया ही था कि लाइट चली गई. अंधेरे में किसी तरह कदमों की गिनती करके हैंडबैग तक पहुंची. पॉवर बैंक शायद ऑफिस में रह गया था. मन की पीड़ा से छटपटा रही थी मैं. दरवाजा खोलकर बालकनी में आ गई. आंखों से नींद, पलों में व्यस्तता दोनों ही गायब हो चुके थे. शायद यही वो वक़्त होता है जब मन खत्म हो जाता है और हम बचते हैं महज एक शरीर. 
बालकनी में ही एक पिलर पर टिकते हुए बैठ गई. मेरी बालकनी कंक्रीट सी दिखती है मुझे पौधों के लिए वहां कोई जगह कभी पसंद ही नहीं आयी. एक कंक्रीट की उभरी हुई संरचना पर बैठकर टेरिस की फेंसिंग रॉड पर सर टिका लिया. मैं, ईश और प्यारा अतीत...जब दो घंटे भी आवाज न सुनें तो पेट में बटरफ्लाई घूमने लगती थीं...क्योंकि तब हमारे बीच सब कुछ था और मेरे पास वक़्त भी था. आज समय प्रेम और समर्पण पर हावी हो चला था. सुबह 5 बजे मुझे ट्रेन पकड़नी थी और 3 बजे तक...मैं खुद को ही छोड़ चुकी थी. ईश तुम्हारी गुनहगार हूं मैं... अब कोई सफ़र नहीं बस मुख्तसर सी जिंदगी को अपना बनाऊंगी. सोने से पहले ही सब कुछ कर दूं. नींद का क्या भरोसा कहीं मुकम्मल हो जाए तो?
लाइट आते ही मोबाइल चार्ज करके ऑफिस मेल किया कि मैं व्यक्तिगत कारणों से 15 दिन की छुट्टी लेना चाहती हूं ये डरे बग़ैर कि इस गैर-जिम्मेदाराना हरकत के लिए मुझे सज़ा मिल सकती है. सोचा सोने से पहले ईश को खुशखबरी दे दूं. हमारे बीच समय कोई मानक नहीं रहा. बात करते हुए कभी घड़ी नहीं देखी. 
दो-तीन बार की मशक्कत के बाद फोन लगा.
'मैडम ये जिन साहब का नंबर है उनका ऐक्सिडेंट हो गया है. उनको पुलिस की गाड़ी ले गई मोबाइल यही गिर गया था.'
फोन रिसीव करने वाले ने जो लोकेशन दी वो मेरे घर के पास हाईवे की थी. जरूर ईश मुझे सी ऑफ करने आ रहा होगा. ईश तक पहुंचने के लिए मोबाइल लेने जाना जरूरी था. 
मेरे गले से छाती तक बस अम्ल रिस रहा था. समय के बहाव के शोले हर मीठी याद पर भारी पड़ रहे थे.

काश कि मां रेगिस्तान हो जाती...!

"कहां था बेटा...फोन तक नहीं उठाया..." मां की आवाज डूब रही थी पर तीन हफ़्ते बाद लौटे बेटे को देखकर आंखें चमक उठीं.
"अब बच्चा नहीं रहा मैं और बात-बात पर फोन करना मेरी आदत नहीं. वैसे भी अगर कुछ हो जाता क्या कर लेती. ट्रेन पलटने लगती तो हाथ लगाकर रोक लेती क्या?" बेटा सप्तम स्वर में बोल रहा था तभी फो
की घंटी बजी.
'हां जान, ठीक से पहुंच गया हूं. मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था. और मॉम कैसी हैं...मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था कि इस हालत में तुम्हें छोड़कर आऊं. कैसे देखभाल करोगी उनकी...' कहता हुआ बेटा एक हाथ में ट्रॉली बैग, दूसरे में हैंड बैग और कान के नीचे मोबाइल दबाए हुए कमरे में चला जा रहा था उधर दरवाजे के पीछे खड़ी मां की सांसे घुट रहीं थीं. गर्लफ्रेंड की मां की तीमारदारी के लिए पिछले तीन हफ्ते से 500 किलोमीटर दूर अनजान सी आबो-हवा में जीकर अब शायद वो दर्द की चाशनी में भीगे आंसू अनदेखा कर सकता है. काश कि मां भी रेगिस्तान हो जाती!

बेड नंबर एट...और तुम


...अक्षत पिछले दो दिन से आई सी यू के आठ नम्बर  बेड पर मरणासन्न पड़ी तृषा की देखभाल कर रहा था...माँ के बाद अक्षत के अलावा था ही कौन उसका...डॉक्टर्स का मानना था उसके रहते तृषा के शरीर में नामालूम सी ही सही पर हरकत होती है...
"बेड नम्बर एट..." अक्षत सिस्टर की बात पूरी होने से पहले ही आई सी यू के कपड़े पहनता हुआ अंदर की ओर भागा...दिल-जान से चाहता था वो किसी तरह तृषा को बचा सके...हर बार की तरह उसकी हथेलियों की छुअन भर से ही उन बेजान हाथों में हल्की सी सुगबुगाहट हुई...अक्षत का कलेजा मुँह में आ गया...ज़र्द सा पड़ा तृषा का नीचे का होंठ थरथराया...
"...बोलो न तृषा...एक बार 'अक्ष' कहो न... देखो मैं तुम्हारे पास आ गया...बस एक बार बोलो..." डॉक्टर का हाथ कंधे पर महसूस होते ही वह फफककर रो पड़ा...
"देखिए आज पूरे 21 दिन के बाद जो हरकत इनके अंदर हुई है...हम इससे ज़्यादा एक्सपेक्ट भी नहीं कर सकते... इट्स टोटली मिरेकल...अब हम इनके जल्द ठीक होने की उम्मीद कर सकते हैं..."
"देखिए इनकी फैमिली से मैंने बार-बार ये जानने की कोशिश की कि इनके इस अवस्था में आने के पहले आखिर ऐसा क्या हुआ था...बट दे टोल्ड नथिंग..."
"मे हिप्नोथेरेपी आर अदर थिंग्स डू समथिंग फ़ॉर बेटरमेंट?"
"इट्स नॉट अ गुड टाइम फ़ॉर दीज...ये शॉक दो तरह से होता है पहला तो ये जब ऑल ऑफ सडेन कुछ ऐसा अनएक्सपेक्टेड सुना या दूसरा तब जब कॉन्टिनुअसली किसी से ये बोला जाता रहे...यू आर यूज़लेस, यू आर गुड फ़ॉर नथिंग, नोबडी लव्स यू...एन्ड समबडी को-रिलेट दिस विद एन इंसिडेंट...तो ये बातें अनकॉन्शस माइंड में एक ट्रुथ की तरह एक्सेप्ट कर ली जाती हैं फिर अपने आपको कितना भी कन्विन्स करना चाहे मुश्किल होता है...नेगेटिव बिलीफ सिस्टम और सेल्फ डाउट, डिप्रेशन एंगजाईटी जैसे साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर डेवलप करते हैं और यह सब कुछ लम्बे समय तक चलता रहे तो रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें भी वो अपनी नाकामी से को-रिलेट करने लगता है...ऐसे में पेशेंट सब्कांशस अवस्था में आ सकता है और हिप्नोथेरेपी से कैसे, किस हद तक लाभ मिलेगा ये कन्फर्म करने के लिए डॉ लूसिया को बुलाया है..."
"थैंक यू सो मच डॉक्टर..." क्या मैं ही इसके पीछे जिम्मेदार हूँ... मैंने तो उसकी हर बात सुनी फिर वो मुझे गलत क्यों समझती थी...उस दिन मैंने फोन पर बस इतना ही तो कहा था कि हर वक़्त खाली नहीं रहता हूँ तुम्हारे जैसे...उफ़्फ़ देखो तृषा मैं सब कुछ छोड़कर तुम्हारे लिए ही हूँ यहाँ डॉक्टर के जाते ही अक्षत का मन भारी हो गया वह तृषा की ओर मुड़ा... हड़बड़ी में ऑक्सीजन का पाइप पैर से उलझकर निकल गया...
तृषा का सर्द चेहरा अक्षत की बाहों में था...वो सचमुच जीत गई थी...आज वो सिर्फ उसके लिए वहाँ था...तृषा की एक ही ख्वाहिश थी कि वो ज़िंदगी की आख़िरी साँस अक्षत को महसूस करते हुए ले.
"डॉक्टर तृषा को होश आ गया, वो मुझे देख रही है..." अक्षत पागलों की तरह चीख रहा था और नर्स उसे हिलाकर बताने की कोशिश कर रही थी...
तृषा ज़िंदगी से हार चुकी थी और अक्षत अपने आपसे...

क्या यही प्यार है?

'सुनो न, ये मेहंदी कैसी लग रही'
'आज तुम पूरी की पूरी बहुत खूबसूरत लग रही हो' कहते हुए हैंग आउट पर ही कुछ उबासी ली।
'अच्छा देखो...तुम्हें नींद आ रही है थक गए होगे...आराम करो'
'नहीं डार्लिंग तुम्हारे लिए तो...' कहते हुए एक और उबासी।
'...अच्छा इतना कहती हो तो ठीक है सुबह बात करते हैं' हैंग आउट ओवर...पत्नी को नींद नहीं आई, उसने अपनी बहुत पुरानी आई डी लॉगिन की...सामने पति की ही आई डी दिख गई...मजाक के मूड में फ्रेंड रिक्वेस्ट कर दी..रिक्वेस्ट एक्सेप्टेड..और एक के बाद एक मैसेज आने लगे...
गलती से पत्नी ने मैसेज कर दिया 'आप सोए नहीं अब तक'
'मतलब...क्या कहना चाहती हैं आप?'
'सॉरी मेरा मतलब रात के दो बजे रहे..तभी पूछा'
15 मिनट तक फॉर्मल बातें और सफेद झूठ की रंगीनियां चलती रहीं...अचानक ही स्क्रीन पर एक मैसेज दिखता है..
'क्या इतनी रात तक भी तुम फॉर्मल ही रहती हो बेबी...अब कुछ रोमांटिक भी हो जाए'
'रोमांटिक उफ़्फ़ वीडियो चैट पर आते हैं...'
वीडियो चैट पर आते ही पति की आँखों से नींद गायब और उसे अब तक मदद की दरकार है करवा-चौथ पर अपनी पत्नी का सामना कैसे करे।

मारक ज़हर

'बापू सहर जात हौ पेड़ा लेत आयो' कलुआ की बात सुनते ही नन्हकू ने खाली जेब में हाथ डाला।
'सुनत हौ बप्पा की खांसी गढ़ाई रही न होते कौनो सीसी लाय देते सहर ते...इत्ते दिन ते परे-परे खाँसत हैं..करेजा हौंक जात है..'
'हम सहर बिरवा हलावे नाइ जाइ रहेन..देखी जाय डॉकटर अम्मा का कब लै छुट्टी देइ.. जैसे जेब फाटी जाय रही नोटन ते..यू सब लेत आयो..' सारी खीझ अपनी पत्नी पर निकालते हुए नन्हकू शहर जाने के लिए पगडंडी के रास्ते बढ़ा जा रहा था। लाचार पिता घर पर पड़ा था, माँ शहर के सरकारी अस्पताल में आखिरी साँसे गिन रही थी। इस समय उसकी चिंता का सबब बस एक ही था...अगर माँ को कुछ हो गया तो उसे शहर से गांव लाने और अंतिम संस्कार का खर्च कहाँ से आएगा, उसका रोम-रोम कर्ज से डूब गया था...अब कौन देगा पैसा...ईमान के अलावा और है ही क्या उसके पास?
वह मुक्ति चाहता था। अपना रास्ता बदलकर सीधा दवा की दुकान पहुँचा। मारक जहर लेकर घर की रास्ता पकड़ी। दरवाजे पर पहुंचते ही सन्न रह गया। शायद बड़कू अम्मा के मरने की खबर लाया था। पिता को देखकर कलुआ पेड़ा लेने की आस में उससे लिपट गया। जेब में हाथ डाला और खुशी-खुशी घर के अंदर भाग गया। घर के बाहर लोगों का जमावड़ा था, मिट्टी लाने की बात चल रही थी। 
कुछ देर बीता ही था कि कलुआ की माँ चीखते हुए बाहर भागी, 'हमार कलुआ के मुँह से फेना काहे आ रहा..कलुआ के बापू?' नन्हकू की घिग्गी बँध गई और वह अचेत होकर गिर पड़ा...कलुआ वो मारक जहर खा चुका था।

मेरा अस्तित्व

आज बच्चे को अस्पताल ले जाना था..ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी..पहुंचने में देर हो गई नम्बर आने में वक़्त था..पतिदेव मुझपर बरस पड़े, 'तुम्हारी वजह से हुआ ये, ऑफिस में लंच के बाद पहुंचने को बोला था अब क्या करूं?'
'मैडम आप प्लीज किनारे आकर लड़ाई कर लीजिए, मुझे झाड़ू मारना है' मैं स्वीपर की बात पर किटकिटा कर रह गई।
'तुम गेम खेल रहे हो और तुम्हारी वजह से मैं टॉर्चर हो रही हूं। सौ बार बोला है वक़्त देखकर काम किया करो।' बेटे के हाथ से मोबाइल लेकर मैं सुकून की तलाश में फेसबुक लॉग इन करके किनारे बैठ गई।
यही कोई 10 मिनट के बाद बॉस की प्रोफाइल पर एक अपडेट आती है, '.... निःसन्देह एक कर्मठ एम्प्लॉई थीं पर ऑफिस से बेटे की बीमारी का बहाना करके छुट्टी लेकर फेसबुक पर सक्रिय पाई जाती हैं। मैं नहीं चाहता कि इनकी इस हरकत का असर फर्म के अन्य एम्प्लॉई पर पड़े। इनकी सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जा रही हैं।'
'तभी कहता हूं एक भी काम सही से नहीं होता तुमसे। क्या जरूरत थी इसकी...' पतिदेव का तंज मेरे रोष को और बढ़ा गया। बहुत मुश्किल से हाथ आई जॉब मेरे सपनों को किरच-किरच तोड़ रही थी और मेरा अस्तित्व प्रश्नचिन्ह के घेरे में था।

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- III

अंतिम भाग
शिव अपनी बात कह चुके हैं और शायद सही भी कहा..बुरे वक़्त की भरपाई कहीं से भी नहीं होती। कितनी अच्छी सी थी वो कॉलेज की लाइफ..हमारी बाल-सुलभ हरकतें और फिर एकाएक किसी अजनबी इंसान के इतना करीब आ जाना कि जीवन को छोड़कर एक-दूसरे को जीने लगना। मेरी आँख ही इसीलिए खुलती थी कि शिव की सुबह कहीं हुई होगी। एक जूनून था कॉलेज जाने का, उसके साथ वक़्त बिताने का। कितना रोई थी उस दिन मैं जब बस-स्टॉप पर शिव का पैर स्लिप कर गया था...व्रत रखा यहाँ तक कि मंदिर जाकर भगवान जी से भी बोला शिव को तुरंत ठीक करें चाहे मुझे चोट लगा दें...जबकि शिव बोलता रह गया था मामूली चोट है। एक अलग ही अनुभव से गुजर रही थी मैं। कहते हैं माँ की आँखें सब पढ़ लेती हैं, माँ सरीखी दीदी ने मेरी आँखों में शिव को पढ़ लिया था बाकी की सारी औपचारिकताएं उन्होंने पूरी कर दी थीं। अपना बचपन उन्हीं की गोद में जिया था मैंने, माँ-पापा को तो बस तस्वीरों में देखा। मुझसे लिपटकर बेपनाह रोई थी वो जब मेरे हल्दी लगे हाथों को शिव ने थामा था...मेरे सास-ससुर को बार-बार यही समझाती रही कि ये बच्ची है, नादान है गलतियाँ करेगी आप समझा देना, माफ़ कर देना...शिव को भी ढ़ेर सारी हिदायतें दीं थीं। मेरी विदाई के कुछ दिन बाद ही चल बसी शायद इतना अकेलापन न सह पाई। मेरे लिए शादी न करने का फैसला तो उसने कर लिया था पर क्या उसे छोड़कर मेरा शादी करने का निर्णय सही था, मुझे ये सवाल कचोटने सा लगा। ये मैंने तब नहीं सोचा था। प्रेम का आवरण इतना मखमली होता ही है कि एक बार पैर रख दो फिर वापसी नामुमकिन। मैं शिव के खोल में इस कदर समाई और कुछ न देख सकी।
शिव और उनकी फैमिली बरेली से दिल्ली शिफ्ट हो गई, सबका यही मानना था कि एनवायरनमेंट चेंज होने से मुझे अलग फील होगा। मुझे इन लॉज़ के रूप में माँ-पापा दिखाई देते, बहुत कम्फ़र्टेबल रहने लगी उनके साथ। शिव को नॉएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिल गई, उसके लिए नॉएडा से दिल्ली का सफर मुश्किल हो रहा था। सभी की सहमति से नॉएडा में एक फ्लैट लेकर मैं और शिव रहने लगे। शायद यहीं से नींव पड़ी मेरी आँखों के उन काले घेरों की जो वक़्त की बेबसी की दास्तां लिख रहे थे। शिव काम में व्यस्त रहने लगे और मैंने खुद में ही खालीपन इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। उस टू बेडरूम फ्लैट को कितना सजाती सँवारती, बस यही काम बचता था मेरे हिस्से। शिव ने शुरुआत में बहुत कोशिश की कि मैं भी अप्लाई कर दूँ पर मुझे तो बस शिव की पत्नी बनना था। जब भी बात होती मना कर देती, पहले तो हर वीक-एन्ड पर दिल्ली जाना होता था फिर व्यस्तता इतनी बढ़ी कि महीने में भी एक बार मुश्किल से जा पाते। मैंने वक़्त न देने की शिकायतें करना शुरू कर दिया तब यही जवाब मिलता...कुछ दिन माँ-पापा के पास जाकर भी रह सकती हो। इसी तरह दिन बीतते रहे और हम लोगों के बीच दरार ने जगह बनाना शुरू कर दिया। दुखता तब नहीं जब हम दूर होते बल्कि पास होकर भी दूर होना बहुत तकलीफ देने लगा जैसे रिश्ता कहीं रिस रहा हो भीतर। 
उस दिन का इंतज़ार 364 दिनों से कर रही थी मैं, शिव का बर्थडे था। एक दिन पहले ही रिटर्न गिफ्ट का प्रॉमिस ले लिया था मैंने। बहुत मन से तैयार हुई थी बाहर जाने के लिए, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब ऑफिस से शिव जल्दी घर आ गए थे। हम दोनों अपने फेवरिट रेस्टोरेंट की कार्नर टेबल पर थे। एक अरसे के बाद शिव रोमांटिक मूड में थे। मेरी ख़ुशी आसमान में टँगे इंद्रधनुष की तरह खिली नज़र आ रही थी तभी ऑफिस से फोन आया, कॉर्पोरेट सेक्टर से किसी की मीटिंग थी और शिव ने उसे हमारे साथ डिनर पर बुला लिया। उस दिन पहली बार मैंने बहुत बेइज्जत महसूस किया था क्या शिव मुझे अपना एक दिन भी नहीं दे सकता..कुछ घंटे भी नहीं? किसी तरह डिनर कम मीटिंग का समय ओवर हुआ हम घर आ गए।
..'मालि तुम मुझे समझने की कोशिश क्यों नहीं करती, अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। मैं जानता हूँ तुम्हें अकेलापन लगता है बहुत कोशिश करता हूँ तुम्हें वक़्त देने की पर ये जिम्मेदारियां भी तो समझो। जानती हो जिन्हें मैंने डिनर के लिए इनवाइट किया था उन्हीं की वजह से मैं मॉरीशस जा पाउँगा'..मैं चिढ़कर उठ बैठी थी...'अभी बेकार बताया था जब पहुँच जाते तब बताते..' 
...'उफ़्फ़ कुछ समझोगी भी...तुम्हें सरप्राइज देना था..' ये कहते हुए तुमने वो जेब से वो लेटर निकालकर मेरी गोद में डाल दिया था। तुम्हारी सफलता पर मेरा मन झूम गया था पर मैं सहज नहीं हो पा रही थी।
'...तुम्हें ख़ुशी नहीं हुई क्या?' तुम्हारे इस प्रश्न पर मैं कुछ नहीं बोल पाई थी। शायद मेरे अंदर तुम्हें खोने का दर्द बढ़ता जा रहा था। मुझे तुमसे दूर जाने की शिकायतें थीं और तुम्हें मेरे बदल जाने की। किसी रेलवे ट्रैक की दो समानांतर पटरियों की तरह हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तुम अपने मॉरीशस जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गए मैं पहली बार अपने फ्लैट पर आई माँ की तीमारदारी में। याद है जब उन्होंने बच्चे की फरमाइश की थी...चाहती तो मैं भी यही थी पर तुम्हारा इतना कड़क न सुनकर मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई थी....
मैं शिव के जाने से पहले ही माँ के साथ दिल्ली आ गई। बातों ही बातों में मैंने माँ से बोला कि मैं हमेशा के लिए बरेली शिफ़्ट होना चाहती हूँ और ये बात शिव को इतनी बुरी लग गई कि बरेली आते ही मुझे तलाक के पेपर्स मिल गए। मुझे ज़िन्दगी खेल सी लगने लगी थी और तलाक़ भी उसी खेल का एक हिस्सा। शिव का साथ न होने की भरपाई करने के लिए घर के पास ही एक क्रच ज्वाइन कर लिया। 
इन चार दीवारों के अंदर पल रही नौ महीने की उदासी बादलों की खामोशियों में छितर गई थी। मेरी बाहों में सोया हुआ शिव इतना प्यारा लग रहा था जैसे पहली मुलाक़ात में लगा था...सही तो कह रहा है शिव मैं अगर उसको अपना पति नहीं मानती तो उसके नाम का सिंदूर क्यों लगा रखा है...ये बिछुआ, मंगलसूत्र सब तो उसी के नाम का है पर मुझे महज इनके नाम पर ज़िन्दगी को रीतते नहीं जाना है बल्कि समय को जीना है। शिव के मोबाइल पर हो रही रिंग ने मुझे वर्तमान में ला पटका।
"हैलो"
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"जी मैं बोल रहा हूँ"
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"नहीं, मैंने 15 दिनों की लीव ले रखी है।"
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"नहीं__बट स्पेशल ही है। मैं शादी करने जा रहा। आप 21 तारीख तक सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दीजिए। मैं अवेलेबल नहीं रहूँगा।" मेरा चेहरा दर्द, पछतावे और गुस्से से लाल हो गया। आँखों से आँसू बह निकले... क्या इतने करीब पाकर मैं शिव को फिर खो दूँगी।
मोबाइल गद्दे पर पटककर शिव ने मुझे बाहों में भर लिया।
"देखो शादी के लिए मुझे फ्रेश लड़की चाहिए...ह्म्म्म याद आया एक थी नीलिमा।"
"शिव"
खिड़की से छनकर हल्की सी धूप चेहरों पर आ गई और हम दोनों के मन में जमी यादों की सीलन को गरमाहट मिल गई।

कहानी समाप्त

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- II

गतांक से आगे
ये वक़्त ऐसे लग रहा था जैसे प्रेम का एक सिरा छोड़कर दूसरा थाम लिया हो, मेरे और शिव के होने में बस मैं और शिव ही थे। हमारे बीच मैं और तुम की सीमा-रेखा गायब सी लगी जैसे इस कमरे में उदासी कहीं हवा की रस्सी का फंदा बनाकर झूल गई। कभी-कभी अंतिम साँसें भी तो अलग सा सुकून देकर जाती हैं। कहीं से भी ये अहसास नहीं हो रहा था कि हम नौ महीने के एक लंबे अंतराल के बाद मिल रहे थे। एक लंबी सी ख़ामोशी का लिहाफ़ ओढ़े हम दोनों एक-दूसरे की बाहों में ऐसे समाए थे कि मौत भी आ जाए तो साँसें टूटने का अफ़सोस न हो। शिव की गर्म साँसें प्रेम से थरथराता मेरा बदन सम्हाले हुए हैं। उसकी बाहों का घेरा जो सुख और सुरक्षा दे रहा है उसकी तुलना मैं चहचहाते हुए चिड़ियों के बच्चों से कर सकती हूँ। कितना शोर करते हैं जब उनका शिव उनसे दूर हो जाता है। शिव, हाँ यही तो नाम है प्रेम का और सुरक्षा का। उसके होने भर से ही तो खिल उठा है घर, चहक गया है घर का हर कोना...आँखें खोलकर मैंने शिव का चेहरा देखा। सुकून से बंद उसकी पलकें देखकर साहस ही न हुआ कि उसे छोड़कर कहीं जाऊँ...क्या मेरी तरह शिव भी आज नौ महीने बाद ज़िंदा हुआ है...
"...मालि"
"हुं"
"कहाँ हो तुम?"
"यहीं तो हूँ...अपने शिव के पास"
"फिर....तुम महसूस क्यों नहीं हो रही मुझे...मेरे अंदर...मालि पास होकर भी पास क्यों नहीं लग रही..." शिव क्या नींद में बड़बड़ा रहा है ये देखने के लिए मैं अचकचाकर उठ गई। अपनी कुहनी गद्दे पर टिकाकर उसका चेहरा देखने लगी..मुझे लगा शायद मेरा सोचना सही था तभी उसने मेरा हाथ खींचकर अपने ऊपर लगभग लिटा सा लिया। मैं अपने पैरों की उँगलियों से गद्दे पर पड़ी चादर सही करने लगी। असहाय सी पड़ी हूँ उसके ऊपर, अपने बदन का बोझ उसपर ऐसे डाल रखा है जैसे मुझसे सम्हलेगा ही नहीं। सामने दीवार पर टंगी बड़ी सी काले रंग की घड़ी में लगातर चलती हुई सुईं ही एक ऐसी थी जो पूरे कमरे के जीवन्त होने का आभास दे रही थी। मिनट की सुईं से कचनार के पेड़ पर चीं-चीं करते बच्चे दिन के आगे बढ़ने का बखान कर रहे  हैं और घंटे की सुईं सा सोया शिव...उफ्फ्फ कितना मासूम और प्यारा लग रहा..जी करता है पूरा इश्क़ उड़ेल दूँ इस पर अभी का अभी...
"ये क्या तुमने अब तक पहन रखा है इसे?" शिव का पैर मेरे टो रिंग पर पड़ गया था।
"और ये मंगलसूत्र भी..." मेरे गले पर हाथ फिराते हुए बोला।
"क्यों, तुम्हें क्या लगा था मैं..."
"क्या तुम इसे उतार नहीं सकती...अभी?
"ये क्या कह रहे हो शिव?"
"मेरे कहने पर भी नहीं..."
"ये मेरे ब्याहता होने की निशानी है।"
"यू आर अ वेल एजुकेटेड गर्ल..."
"सो व्हाट...एजुकेशन नेवर टीचेस अस टु बी अनकलचर्ड..."
"मालि...ट्राय टू अंडरस्टैंड"
"शिव...प्लीज"
"मालि..."
"शिव मैं उन सब बातों को जीते रहना चाहती हूँ। मैं प्रेम करते रहना चाहती हूँ।"
"तो ऐसा बोलो न, तुम्हें जीवन की नीरसता से प्रेम है..मन की उचाटता से प्रेम है...जो थम गया उसे लेकर कुछ नहीं हासिल होने वाला...यादें मन का कोना घेरती हैं...जो जगह प्रेम की होनी चाहिए..."
"लेकिन शिव जो वक़्त हम जी चुके होते हैं वो भुलाना इतना आसान नहीं होता..."
"ये कब बोला मैंने..भुलाओ मत उन्हें..उनसे सीखो...अक्सर ऐसा होता है न मालि कि हम खुद ही खुद को उलझाकर रह जाते हैं.. ये सोचकर कि अब कुछ भी अच्छा नहीं होगा, जो बीत गया बस वही ठीक था। अब ऐसे सोचो न...जब वो वक़्त हमारा प्रेजेंट था तो क्या हम सैटिसफाइड थे?"
"हाँ सही कह रहे हो..वैसे भी तुम सही ही कहते हो..पर परिस्थितियां भी जिम्मेदार होती हैं बहुत कुछ होते रहने के लिए?"
"ह्म्म्म मान लिया पर क्या तुम्हारे या हमारे सोचने भर से परिस्थितियां कुछ कॉम्पेनसेट करने आएंगी....नहीं न! फिर तो अपना ही नुकसान हुआ।"

कहानी जारी रहेगी...

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- I

जाने क्यों आज इतवार के दिन भी मन किया कि बिस्तर जल्दी छोड़ दूँ। चाय का पैन स्टोव पर रखा पर 'खुद बनाना खुद पीना' का खयाल मन में आते ही लाइटर अपनी जगह पर लटका रहने दिया। रेफ्रिजरेटर से नीम्बू निकालकर बॉल की तरह खेलते हुए बॉलकनी तक आ गई। 'क्या मुझे किसी का इंतज़ार है?' अपने आपसे एक बेतुका सा सवाल कर खुद में ही मुस्कराने लगी। कुछ देर बोगनविलिया के पौधों से आँख-मिचौली खेली फिर उंगली के इशारे से छुई-मुई का फैलना-सिमटना देखने लगी। जैसे कोई इंसान किसी अपने के ख्याल भर से ही खिल उठता है और उसकी गैरमौजूदगी सारे रंगों को समेटकर पीपल के पेड़ पर टाँग आती हो कि ये उसके वापिस आने का टोटका हो। धीरे-धीरे वो रंग फीके पड़ने लगते हैं और मन में एक मनुहार सी जागे कि कुछ तो हो ऐसा जिसे अच्छा कहा जाए। आखिर क्या चाहता है मन ये समझने की बेताबी अंदर इतनी बढ़ गयी कि अपने आपको अपनी ही बाहों में जकड़ लिया। मन की आँखों से अपने चेहरे के कोने पर फैली मुस्कान देखी और सच कहूँ तो बेपनाह तसल्ली सी लगी। अगर इस वक़्त पैन में चाय की पत्ती, चीनी और दूध के साथ उँगली से मिक्स कर दूँ तो बिना स्टोव ऑन किए ही चाय खौल जाए। इस तरह मेरे अंदर कुछ हिलोरें ले रहा था। वो हॉट ब्राउन सा मिक्सचर पीने की तलब इतनी तीब्र थी कि खुशबू नाक तक आ गयी। मन आसमान में घिरे बादलों में अटक गया। यूँ तो मैं ऑफ द ट्रैक रहने वाली लड़की नहीं पर कोई बात तो है जो मुझे स्टांस की पोजीशन में छोड़कर सूं-सूं करती हुई निकल रही है। खुद को किचन तक खींचकर लाना बड़ा ही मुश्किल काम था ऊपर से सामने पार्क में छितरे कचनार पर बैठी गौरैया अपने इशारों से रोक रही थी। उसे दो मिनट बोलकर मुड़ी ही थी कि सोसाइटी के गेट पर शिवांश दिख गया। बालों को लॉक करते हुए नाईट ड्रेस में ही दो फ्लोर सीढियां उतर आई तब तक शिवांश वहाँ तक आ गया। 
जाने रह-रह कर क्या कचोट रहा था भीतर कि शिवांश को इतना करीब पाते ही बदहवास सी होकर अपना बदन उसकी बाहों में झुला दिया। उसने मुझे कसकर जकड़ लिया। एक मीठी सुबह थी मेरे लिए और उसका आना किसी ख्वाब से कम नहीं। 
"बहुत सेक्सी लग रही हो इस ड्रेस में।" मैंने झेंपकर खुद को अलग किया। हम अपनी मंजिल पर आ गए। पाँच मिनट पहले के बेजान से कदम हवा से बातें करने लगे। चाय कब उबलकर ट्रे में सज गई, सोचने का मौका ही न मिला।
अब कमरे से अभागिन खामोशी जा चुकी थी। वृद्ध समय युवा सा हो चला है। कितने ही दिनों के बाद दो चाय के कप आपस में चीयर्स कर रहे हैं। मैं किसी का होना महसूस रही हूँ और वो मेरे चेहरे पर जाने क्या पढ़ रहा है। 
"सुनो, तुमने मुझे बताया था क्या?"
"क्या?"
"यही कि तुम आज इस वक़्त यहाँ आने वाले हो।"
"ह्म्म्म" 
उसका ह्म्म्म कहकर चुप हो जाना, बहुत प्यार आया इस अदा पर। 
"अच्छा तुम्हारे यहाँ कचनार खिलते हैं।" दूर लगे पेड़ पर नजर डालते हुए शिवांश बोला फिर सन शेड को छूती हुई खिड़कियों पर नजर डालते हुए जमीन पर पड़े गद्दों पर खुद को पसार लिया। मैं कमरे की तरफ फैले हुए गद्दे के एक छोर पर बैठी रही।
"एक अलग सा सुकून मिल रहा है आज। कितने ही दिनों के बाद लग रहा है कि सुबह नींद छोड़कर कुछ तो अच्छा हासिल हुआ।"
".....बहुत भागमभाग सी हो गई है ज़िन्दगी और भाग क्यों रहे हैं ये नहीं पता, मंजिल का भी कोई ठिकाना नहीं।"
"तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?"
"बस तुम औरतें एक ही बात जानती हो।"
"हाँ तो इसमें गलत क्या बोला?"
"कुछ सही भी है?"
"ठीक है मत करो।" मैं उसके चेहरे पर उभरे भाव समझने की कोशिश करने लगी। एक बंजर सी खामोशी है, पछतावा है या फिर सच की टीस। कुछ नहीं पा सकी क्योंकि कभी-कभी ये बेहद घातक कैरेक्टर हो जाते हैं। ख़यालों से सरकते हुए मैं गद्दे के उसी छोर पर जा चुकी थी जहाँ शिवांश है, खिड़की के शीशे से सिर टिकाए बाहर जाने क्या निहार रहा शायद वही जो कुछ देर पहले मैं...
"मालि...." 
"बोलो न...." आज कितने ही दिन के बाद अपना नाम सुन रही हूँ। शिव ने मुझे कभी भी मेरे नाम से नहीं बुलाया..हमेशा मजाक उड़ाता..नीलिमा, ये भी कोई नाम होता है इससे अच्छा तो मालिनी कह दूँ... पहली बार सुनकर बहुत बुरा लगा था फिर उसने एक नया नाम दिया मुझे...मालि। प्यार हो गया मुझे इस नाम से और उसके उस अंदाज़ से....कॉलेज के पीछे वाले पार्क में एक बड़े से कचनार के पेड़ की छांव में मेरे पैरों को तकिया बनाकर लेटा था और मैं सकुचाई सी घंटे भर उसके बालों में उँगलियाँ फिराती रही थी। तभी उसने हौले से मुझे मेरे नए नाम से पुकारा था, 'मालि अब तो तुम्हारा फाइनल ईयर है, कुछ सोचा है आगे क्या करना है?' मैंने भी झट से जवाब दिया था...शादी और क्या...! 'तुम्हारी भी सोच न लड़कियों सी रहेगी।' बहुत अजीब सा लगा अगर लड़की हूँ तो ऑब्वियस सी बात है कि वही सोचूँगी।
"मालि कभी ये कचनार तुम्हें उन बीते हुए दिनों में नहीं ले जाता क्या जब हम घण्टों घास पर लेटकर निकाल दिया करते थे, कभी बात करते हुए तो कभी एक-दूसरे की ख़ामोशी को पढ़ते हुए, याद है तुम्हें जब लोगों को अपने साथ-साथ होने पर जेलसी होती थी और तब तो सब कोयला हो जाते थे जब हर बार फर्स्ट रैंक के लिए तुम्हारा नाम अनाउंस होता था..."
".....तुम्हारी आँखों में तिरती हुई ख़ामोशी मुझे जोकर तक बनने पर मजबूर कर देती थी। भले ही तुम भूल गई हो पर मैं तुम्हारे लंच का वो टेस्ट आज तक नहीं भूला" शिव पुरानी यादों की पोटली खोल चुका है, सारी बातें याद आ रही हैं कुछ ओरिजिनल हैं तो कुछ रफू की हुई। सही कह रहा है वो तब तो खुशियों की वो रफ़्तार थी कि समय को पर लग गए। कैसे प्रेम का बीज पड़ा, कब अंकुरित हुआ और एक नए पौधे का जन्म हो गया। 
पर कहीं कुछ सीलन भरी यादें भी तो हैं, दर्द की ऐसी दीवारें जहाँ स्नेह का गारा लगा ही नहीं। आज बहुत दिनों के बाद शिव का आना उस मोम के दर्द और डर को पिघला गया।
"क्या हुआ मालि, सुनो न, कुछ तो बोलो, नहीं कुछ तो शिकायत ही करो पर ऐसे आँखों को उदास मत करो, प्लीज्!" कचनार से नज़र हटाकर शिव मेरे चेहरे की सहमी सी हाँ की लकीर को पढ़ने लगे। मैं प्रेम और दर्द के बीच बैलेंस बनाने की कोशिश में हूँ और खुद को कमज़ोर भाँपते ही शिव के कंधे पर अपना सिर रख दिया। हर स्त्री का ये अधिकार होता है कि उसे उसके पुरुष की रक्षा का कवच मिले और जब वही स्त्री सच का सामना नहीं कर पाती तो सिर झुकाकर कंधे पर टिका देती है कि जैसी भी हूँ, दासी हूँ तुम्हारी और शरणागत भी रक्षा करो। शिव ने अपनी बाहें फैला दीं।
"कुछ मत बोलो! हम-दोनों के बीच जो समय ठहर गया था बह जाने दो उसे पर अब मुझे अपने करीब महसूस करो।"
"शिव"
"मालि"
एक बार फिर शिव के होने में मैं पिघल रही थी। 

इंसाफ

महिला: साहब हमारे मरद ने हमको बेल्ट से बहुत पीटा। इसकी रिपोर्ट लिखिए।

थानेदार: मगर तेरा मरद तो कुर्ता-पायजामा पहनता है।

पति: वही तो हम भी जानना चाहते हैं थानेदार साहब कि हमारी झोपड़ी में बेल्ट आया कैसे?

थानेदार साहब असमंजस में आकर कुर्सी से उठ खड़े हुए। इंसाफ तो ईश्वर के हाथों होना चाहिए क्या आज मेरा ईश्वर मुझे एक गुनहगार के साथ खड़ा कर रहा है?

स्वीकृति

बदन दर्द से तप रहा है और बुखार है कि उतरने का नाम नहीं ले रहा। उठने से मजबूर हूँ डॉक्टर के यहाँ तक भी नहीं जा सकती। इतनी गर्मी में भी खुद को कम्बल में लपेट रखा है। विजय दरवाजा खटखटाए बगैर अंदर दाखिल हो गए। मैंने कम्बल को और करीने से बदन से चिपका लिया। बहुत उम्मीद थी कि एक बार पलट कर हाल तो पूछेंगे ही। चेहरे के किनारे एक हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोले,
'सुधा सर दर्द से फटा जा रहा है। चाय की तलब लगी है।'
'मग़र मुझे...'
'ये अगर-मगर छोड़ो बस एक प्याली पिला दो। तुम तो जानती हो न तुम्हारे हाथ की चाय मेरी कमजोरी है।'
मैं चाय के पैन में उबलते हुए पानी को देख रही हूँ साथ ही ये भी सोच रही हूँ कि एक स्त्री का परम सुख तो बस उसके पुरुष की आँखों में पढ़ने वाली स्वीकृति में है।

माँ तो बस माँ होती है..

तान्या बहुत खुशी-खुशी नेल पेंट कर रही थी और बीच-बीच तुषार की आवाज भी सुनती जा रही थी। वो पास वाले कमरे में अपनी बूढ़ी माँ को डांट रहा था, 'आखिर तुम चाहती क्या हो, हम घर छोड़कर चले जाएं? जो भी हो साफ कह दो अब मुझसे रोज का ये सब नहीं देखा जाता इससे तान्या का भी बी पी हाई हो जाता है।'
तभी फोन की घण्टी बजी। उधर से उसकी माँ की रोती हुई आवाज सुनाई दी। उसके भाई-भाभी ने उन्हें घर से निकाल दिया था।
'हौसला रखो माँ, हम अभी दस मिनट में पहुँचते हैं।'
'नहीं बेटा मैं ही आ रही हूँ।' तान्या ने मना किया पर फोन कट चुका था। डोरबेल बजते ही दरवाजा खोला। माँ दरवाजे पर ही तान्या से लिपटकर रोने लगी।
'ऐसा कैसे कर सकता है भाई। माना भाभी गैर है पर वो तुम्हारा बेटा है।' तान्या ने भाई को जी भरकर गाली दी।
'सही कहा तुमने। पर क्या तुषार समधन जी का बेटा नहीं है?'
ये सुनकर तान्या का दिल बैठ रहा था और तुषार पास खड़ा मुस्करा रहा था।
'कल रात मुझसे बात करने के बाद तुम फोन काटना भूल गयीं थी शायद। मैंने तुम्हारी सारी बातें सुनी। फिर तुषार से बात करके ये प्लान बनाया। तुम्हें सबक सिखाना जरूरी हो गया था।'
'अब बस भी करिए समधन जी। हमारी बहू इतनी भी बुरी नहीं।' सास ने ये कहकर तान्या को गले से लगा लिया।

तुम साथ हो जब अपने...

इस रिवाल्वर में बस दो ही गोलियां हैं..अभी नहीं विशेष आ जाएं तब..एक उनके लिए और एक मेरे लिए, ये ठीक रहेगा
बहुत प्यार करती थी अनु विशेष से पर जाने क्यों कुछ दिनों से वो फील कहीं मिस हो रहा था। एक दशक पुराना रिलेशनशिप कभी गहन खामोशी तो कभी तानों में सिमटकर रह गया था। अनु साँसों से तो दूर रह सकती थी मग़र ज़िन्दगी से नहीं। रोज ही झगड़ती थी उससे पर दूर एक पल को भी नहीं रह पाती थी। शादी, मंगलसूत्र, सिंदूर ही कोई रीज़न तो नहीं होता कि सामनेवाला उसे प्यार करता रहे। कहीं रिश्ते में प्यार खो तो नहीं गया। उसे बस एक ही सवाल परेशान करता है ..जब विशेष अपनी साइकोलॉजिकल नीड्स के लिए उस पर डिपेंडेंट था फिर अब छोटी-बड़ी हर बात उससे छुपाने क्यों लगा है, क्या कोई है जिसे उसने ये हक़ दे दिया?? तिलमिला उठती है अनु इस बात से। विशेष का गैर-जिम्मेदारी वाला रवैया काफी है कि अनु अपना डेली रूटीन छोड़कर बस यही सोचती रहे।
आज सुबह भी विशेष बिना कुछ बताए ऑफिस के लिए निकला। कुछ ही देर में बॉस का फोन आया कि उसने छुट्टी ली है और फोन भी ऑफ कर रखा है। इतना सुनते ही अनु के पूरे बदन में सनसनी फैल गयी जैसे किसी ने हजारों सुईंया चुभा दी हों।
जब से मेड डस्टिंग करके गयी अनु हाथ में रिवाल्वर लिए आराम कुर्सी पर झूल रही है। वो विशेष को मारकर खुदकुशी करना चाहती है। उसे लगता है शायद मरने के बाद अपना खोया हुआ प्यार पा सके। मोबाइल की लगातार बजती घण्टी सुनकर आँखें खोलीं।
"मैडम अगर आप अपने पति से मिलना चाहती हैं तो तुरंत होटल उत्सव रूम नंबर 209 में पहुंच जाइए।"
खयालों की तेजी के साथ अनु 209 के सामने पहुँचकर डोंट डिस्टर्ब के टैग को तोड़ चुकी थी। दरवाजा खुलते ही गोली चलने की आवाज के साथ उसके कदम लड़खड़ा गए। अगले पल आँखें खुलते ही खुद को विशेष की बाहों में महफूज पाया। वो किरकिरी और फोम से नहा चुकी है। हैप्पी बर्थडे का मेलोडियस साउंड बज रहा है। पूरा हॉल रंग-बिरंगी लाइट्स से जगमगा रहा पर उसे विशेष की आँखों में जलते प्रेम के दिए दिख रहे थे बस। इन सब उलझनों में उसे अपना बर्थडे तक नहीं याद रह गया था।
"तुम ठीक तो हो न विशू!" उसका चेहरा छूकर फील करना चाहती थी कुछ बुरा तो नहीं हो गया।
"तुम हो न फिर..." कहते हुए विशेष ने अनाया को अपनी बाहों में जकड़ लिया।

सरहद हो या घर बंटते तो दिल हैं...

बहुत दर्द में हूँ मैं, कराह उठा है मन, हर पल छटपटा रही हूँ। एक-एक कर सारे अपने साथ छोड़ चले। रिश्ते रेत की मानिंद हाथों से फिसल रहे हैं। पल-पल से मौत माँग रही हूँ मगर ज़िंदगी का क्या कहूँ मौत भी तो कोसों दूर खड़ी है। मेरा मन एक ही खयाल से घिरा है हर पल कि सज-संवर कर मेरी अर्थी निकल रही है, लोग मातम कर रहे हैं, मेरे अपने मुझे कांधा दे रहे हैं, मैं सबसे आगे हूँ और सब मेरे पीछे चल रहे हैं। झक सफ़ेद रंग में लिपटी हूँ मैं.. सफेद, हाँ यही तो होता है शांति का रंग...नहीं जीना है अब मुझे न अपने लिए न किसी अपने के लिए।
अपनी चोक होती साँसों को रोकना चाहा पर घुटन बढ़ रही है। कुछ समझ नहीं आ रहा पास पड़ी नींद की गोलियों से भरी शीशी पर नज़र डाली..हाँ यही ठीक रहेगा, एक खामोश नींद फिर कभी नहीं उठना.. कोई शिकायत नहीं और कोई दर्द भी नहीं..हाथ में शीशी उठाई ही थी कि दरवाजे पर आहट हुई..शीशी अपनी जगह वापिस रख दी, कौन होगा रात के दस बजे, इंसान तो दूर परिंदे भी यहाँ का पता भूल चुके हैं, महीनों हो गए कोई तो नहीं आता फिर कौन और क्यों आ सकता है इस वक़्त। मैं बिस्तर का छोर पकड़कर बैठ गयी। दूसरी आहट हुई, तीसरी, चौथी लगातार और उठते हुए स्वर में होने लगीं। मन तमाम अनजानी आशंकाओं से घिर गया। डर और रोष का मिला-जुला भाव था। डर इस बात का कि कौन और क्यों आया होगा, रोष इसका कि जब सबने मरने के लिए छोड़ दिया फिर ज़िन्दगी की तलाश में यहाँ क्यों?
दरवाजे पर आहट कुछ थमी तो मैंने तसल्ली की साँस ली। तभी मोबाइल फोन के वाइब्रेशन ने डर और विस्मय की लकीर दोगुनी कर दी, दौड़कर फोन देखा भाई का नंबर स्क्रीन पर फ़्लैश कर रहा था..क्यों फोन किया होगा इसने अब तक इतने दिन कोई खबर न ली फिर आज अचानक मुझे फोन...आखिर हूँ क्या मैं इन सबकी नजर में एक मिट्टी की गुड़िया..जब जितना और जैसे चाहो सजा दो, संवार दो और जब जी चाहे मसल दो..मेरा अपना कोई सावन नहीं.. मेरे जीवन का कोई मधुमास नहीं..जब चाहें लोग बोलें और जब चाहें मुंह फेरकर निकल जाएं..मेरे होने या न होने का कोई मतलब ही नहीं।
अभी तो एक महीना भी नहीं हुआ जब भाई की गरजती हुई आवाज कानों में पड़ी थी..'अब और नहीं सह सकता मैं, तुम लोगों के लिए अपनी बीवी को तो छोड़ नहीं दूँगा।'
'किसने कहा अपनी बीवी को छोड़ गुलाम बनकर रह।' पापा को इतना चीखते हुए अपने जीवन में पहली बार सुन रही थी। मैंने बहुत कोशिश की शांत करने की पर एक नहीं सुनी थी। लग रहा था जैसे आज फाइनल करके ही छोड़ेंगे। रोज-रोज की किट-किट हो चली थी, खुद का ही खर्च करते और खुद ही सफाई देते। झगड़ा बस इस बात का होता था कि उनको ज़्यादा मुझे कम। मुझे तो आज तक ये बात समझ ही नहीं आयी थी कि जिसको जितनी भूख होती है उतना ही तो मिलता है फिर ज़्यादा कम का क्या। जितनी जरूरत उतना तो मिल ही जाता था अब अगर एक एनीमिक है तो जरूरी तो नहीं कि दूसरे को भी आयरन की डोज़ दी ही जाए मगर ये तो कोई समझने वाला ही नहीं था। ये दो भाइयों के बीच का मसला था मैं तो इसमें कहीं आती ही नहीं थी। मैं खुद कमाउँ और उड़ाऊँ यही तो संतुष्टि थी मेरी। मेरे सामने उम्मीद करने वाला कभी खाली नहीं जाता फिर वो उम्मीद चाहे भावनाओं की हो या अर्थ की हाँ अपनी सत्ता बरकरार रखती थी। किसी जगह से कदम नहीं हटाती थी अगर हटाया भी तो वापिस टिकाने नहीं आती थी। उस दिन भी मेरे होने या न होने पर कोई सवाल नहीं उठा था। बँटवारा तो उन लोगों के बीच और मेरा होना था। तब मुझे समझ आया था कि मैं जो अस्तित्व को ढाल बनाकर बैठी हूँ वो कुछ नहीं है, मैं घर में बिखरी साज-सज्जा भर हूँ, कहने को किसी की बेटी और किसी की बहन। बहुत कोशिशें की थी मैंने कि पापा के सामने ये सब न हो पर मुझे सुनने वाला कोई नहीं था। दोनों भाइयों के बीच मतभेद की दीवार इतनी गहरी हो चली थी एक बार यही लगा कि बँटवारा का इज्जतविहीन आवरण ढक देने से जिंदगी तो बची रहेगी। मैंने उसी वक़्त घर का एक कोना पकड़ लिया था ठीक वैसे ही जैसे दस साल पहले माँ के न रहने पर पकड़ा था। जब से माँ गयी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कौन मेरा दुख देखने वाला था, कभी-कभी तो ये लगता कि ज़िन्दगी में कोई दुख ही नहीं है। मैं साधारण इंसान रह ही नहीं गयी थी। जिस लड़की के पिता और भाई उसकी डोली न उठा सके तो उन्हें रिश्ते के नाम पर क्या नाम देती मैं?
एक-एक कर सारा चक्र आँखों के सामने घूम रहा था कि मैंने कभी रिश्ते के नाम पर किसी के साथ कोई कोताही नहीं की फिर मुझे समझने वाला कोई क्यों नहीं है। मैं इमोशनल थी और इमोशन्स ही मुझे छल गए। मैंने कभी बैंक-बैलेंस को सीरियसली नहीं लिया हाँ रिलेशनशिप को सर्वोपरि माना। हर रिश्ते को बराबर समझा। अपने तो अपने गैरों को भी गले से लगाया ये देखे बगैर कहीं इनके हाथ में छुरा तो नहीं।
फोन पर एक दो तीन नहीं पूरी दस कॉल हो चुकी थी। मैं बात करने का कलेजा कहाँ से लाऊं। तभी मोबाइल की स्क्रीन पर मैसेज दिखा...मैं कितनी देर से नॉक कर रहा हूँ। दरवाजा खोलो...भाई का मैसेज था। अब तक ये क्लियर हो चुका था कि दरवाजे पर भाई है। मेरे पैर नम्ब पड़ चुके थे...अब क्यों आया है ये यहाँ उस वक़्त कहाँ था जब पापा बंटवारे का दर्द नहीं सह पाए थे और निढ़ाल होकर इन्हीं हाँथों में झूल गए थे...और इसकी बीवी इसे ये कहते हुए घसीटकर ले गयी थी कि हम लोगों को रोकने का नाटक है...उस वक़्त तो पलटकर भी न देखा था इसने... फिर अब..मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहे थे। एम्बुलेंस में डालकर पापा को हॉस्पिटल पहुंचाया। तीन दिन तक वेंटिलेटर पर रहने के बाद कब आँखे बंद हुईं और हॉस्पिटल के बाद का सफ़र मुझे कुछ याद नहीं। कई दिनों के बाद जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को बुआ जी के साथ घर पर पाया था। पापा की तस्वीर हार के साथ दीवार पर थी। शांति पाठ के बाद बुआ जी भी चली गयी थीं। तब से आज तक मैं धुत अकेली हूँ। बीच में कई बार दोनों भाइयों के मेसेज आए कि मैं चाहूँ तो बारी-बारी से दोनों के साथ रह सकती हूँ पर मेरा मन रिश्तों से उचाट हो चला था। मैं सम्बन्धो के बीच किसी भी तरह का पुल नहीं बनाना चाहती थी।
इस बीच भाई के मैसेज लगातार आते रहे, फोन भी बजता रहा मैंने कोई रिप्लाई नहीं किया। दरवाजे पर एक बार फिर से आवाज़ें आने लगीं। मेरे कानों की थकान ने दरवाजा खोलना ही ठीक समझा। मन साथ नहीं दे रहा था पैरों को घसीटकर दरवाजे तक ले गयी। खोलते ही पीछे पलट गयी। अंदर आते ही उसने कुछ पेपर्स मेरी तरफ बढ़ा दिए।
"ये कुछ पेपर्स हैं इसपर तुम्हारे साइन चाहिए। दिशी का मेडिकल में एडमिशन कराना है, मुझे पैसों की जरूरत है। मैं इस घर पर लोन करवा रहा हूँ।"
उसने अपनी बात कह दी थी पर मैं चुप रही। मेरे अंदर दर्द और रोष दोनों मर चुके थे। सामने बैठा बेग़ैरत चेहरा मैं सह नहीं पा रही थी। मन में तो आया कि उन पेपर्स के टुकड़े करके मुंह पर मार दूँ मग़र इतनी हिम्मत कहाँ से लाती। वो कोई इंसान नहीं एक रिश्ता है जो रिसता है। माँ-पापा सब कुछ तो खो दिया मैंने, एक यही तो अपनी छत बची है। कहाँ जाऊँगी इससे बाहर निकलकर, इन लोगों के टुकड़ों पर पलने...मेरे अंदर की शून्यता दीवार से टकरा रही है। मैं अब खंडहर बनने से कुछ भी नहीं रोक पाऊँगी न ही इस घर को न खुद को। भाई को मेरी चुप्पी न समझ में आ गयी थी शायद तभी तो वो उठा और तेज कदमों से बाहर ये कहते हुए निकल गया कि सुबह तक सोच-समझकर मैं साइन कर दूं वो उठा ले जाएगा।
मुझे अपनी गुलामी के दस्तावेजों पर साइन नहीं करने हैं। जब मन में ये इरादा कर लिया तो पलटकर मेज पर पड़े हुए पेपर्स भी नहीं देखे। क्यों सोचूँ मैं उसके बच्चे के बारे में क्या उसने पापा के लिए एक बार भी सोचा था। अगर जीती रहूँगी तो लोग जीने की कीमतें वसूल करते रहेंगे...माँ-पापा माफ़ करना मुझे मैं स्वार्थी होना चाहती हूँ...ये सोचकर मैंने नींद की गोलियों वाली शीशी खाली कर दी एक चुप शांति के लिए, एक मुक़म्मल नींद के लिए।

मेरी पहली पुस्तक

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