कितना मुश्किल होता है
जीते जी किसी को अच्छा कहना
और मरते ही
टैग हो जाता है उसका नाम
स्वर्गीय जैसे शब्द के साथ
ये जाने बगैर
कहीं उसकी आत्मा
नर्क में वास तो नहीं कर रही,
मुझे भी कभी किसी आत्मा के साथ
नारकीय अभिव्यक्ति
या फिर नर्क में होने जैसा महसूस नहीं हुआ;
जाने क्यों इंसान
अपने पास होने वालों की वैल्यू नहीं करता
काश, कि हम अच्छा सोचें!
करें इंसान के साथ इंसान जैसा व्यवहार
परोसें उसकी थाली में
थोड़ा और आदर, थोड़ा और प्यार,
उसकी उम्मीदों पर हाँ की मुस्कान चस्पा करें,
अपनी उपस्थिति से
उसके आसपास खुशियों के गुब्बारे सजाएं,
फ़िर
फ़िक्र नहीं होगी....कि
चील-कौओं को खाना नहीं दिया पितृपक्ष में,
मरने वाले के लिए दुआ नहीं मांगी,
अकेले में पछताना न पड़े;
कि कर नहीं पाए अच्छा कुछ भी उसके साथ
स्वीकार नहीं पाए उसकी अच्छाई भरी सभा में,
स्वर्ग या नर्क के बंटवारे में पड़ने से बेहतर है,
जीते जी स्वर्ग की अनुभूति दान करना
मृत्यु पर बस नहीं पर....
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
स्वर्ग... नर्क के बीच..
तू हँसती रहे मुझ पर...
ये रोशनी
ये सवेरा
और अंधेरे में
चमकता हुआ
ये तुम्हारा चेहरा।
वो एक शाम पुरानी सी
लगने लगी है
जैसे एक कहानी सी।
वो किनारे, वो सितारे
और वो एक मैं
जो तेरी आंखों में ढूंढता था सहारे
आज सब खामोश है।
इन खामोशियों के बीच भी
तुम चुपके से आकर
कर जाती हो कई सवाल
मेरी आँखों में ढूँढती हो
उस गुनाह का पश्चात्ताप
जो मैंने कभी किया ही नहीं
और मेरा प्रेम बदहवास सा
तुम्हारी आँखों में मेरा फ़रेब ढूंढता है
ये जानते हुए भी
कि मैंने तो बस प्रेम किया है।
आ जाओ कि इक बार
मेरे दर्द को कफ़न पहना दो
ये मुर्दानगी
ये आँसुओं के सैलाब
मुझसे नहीं जिए जाते
ये पल-पल की तिश्नगी
ये घूँट-घूँट का ज़हर
मुझसे नहीं पिए जाते।
इस कदर पनाह मत देना मेरे दर्द को
कि मैं तेरा आदी हो जाऊँ
तू हँसती रहे बेपनाह मुझ पर
और मैं तेरा फरियादी हो जाऊँ।
नारीत्व मेरा अहम है
कभी सिर उठाने की कोशिश करती
तो ये कहकर रोक दिया जाता
लड़की हो तुम
चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे
फिर भी बेहया समाज से
मुझ अकेले को ही लड़ना पड़ता,
अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
मेरे अंदर भी आठ लोग बोलते हैं
भेज दी उस कोमला की मृत देह
उन चार लोगों के काँधों पर
अब मैं काया विहीन
जुल्म के ख़िलाफ़ तांडव करती
एक आत्मा भर हूँ
मेरे नारीत्व को
चुनौती देने की भूल मत करना
यही तो मेरा अहम है,
गर साधारण औरत समझो मुझे
तो ये तुम्हारा वहम है।
अतीत के झरोखे से
यादों की डायरी में हर पन्ना एक अतीत बन जाता है। उनमें से कुछ तो हम अक्सर पलटते हैं और कुछ मात्र अवचेतन मन का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। अक्सर याद करने वाले मेरे अपने प्रिय सितारों में एक नाम जो अमिट है इस सदी के हस्ताक्षर के रूप में वो है...व्यंग्यकार, डायलॉग राइटर, महान लेखक और बहुत अच्छे इंसान माननीय स्वर्गीय के. पी. सक्सेना जी का। आज चाचा जी (मैं उन्हें इसी सम्बोधन से बुलाती थी) का जन्मदिवस है, मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकती पर हृदयतल से आभार प्रकट करती हूँ कि मुझे कुछ समय के लिए उनके सानिंध्य का अवसर मिला।
बात सितम्बर 2000 की है जब लखनऊ में एफ. एम. रेनबो का प्रसारण शुरू हुए एक महीना ही हुआ था। स्वर्गीय राजीव सक्सेना जी (इनका परिचय आगे पढ़ने को मिलेगा) और रमा अरुण त्रिवेदी जी ने चाचाजी का इंटरव्यू लिया था। उन दिनों चाचा जी लखनऊ से मुम्बई की खुशहाल उड़ानों में व्यस्त थे। आशुतोष गौरीकर की फ़िल्म 'लगान' के डायलाग लिखने का काम पूरा हो गया था और फ़िल्म प्रमोशन का सिलसिला जोरों पर था। इंटरव्यू सुनते ही मेरे मन में जोरों की इच्छा हुई बात करने की। मैंने तुरन्त पत्र लिखकर प्रेषित किया। ठीक अगले हफ्ते नीले रंग की स्याही से लिखा हुआ लाल रंग की सजावट वाला और मोती सरीखे अक्षरों में लिखा हुआ अपना नाम वाला पत्र देखकर मैंने गौरान्वित अनुभव किया। ढेर सारे आशीष के साथ उसमें एक फोन नं भी लिखा हुआ था। पत्र पढ़कर जितनी प्रसन्नता का अनुभव हुआ था बात करने के बाद उससे भी कहीं अधिक। पहली ही बार में इतनी सहजता से बात की। हर बात में बेटी का सम्बोधन, इवनिंग वॉक से तुरन्त ही लौटे थे। बोलने में हांफ रहे थे। मैंने बोला भी कि मैं बाद में बात करूँ पर जब तक मैंने खुद फोन नहीं रखा हर प्रश्न का बहुत तल्लीनता से उत्तर देते रहे। ये पहला मौका था इसके बाद तो अक्सर बात होती रहती थी। एक दिन बहुत खुश होकर बताया 'मैंने आमिर और रीना (आमिर खान की x-wife) के साथ हॉल में लगान देखी।' मुझे कुछ ईर्ष्या का अनुभव हुआ तो तपाक से बोले, 'परेशान मत हो मैं तुझे आमिर से मिलवा दूँगा। बहुत अच्छा लड़का है वो। मेरा बहुत सम्मान करता है....।'
अगर एक हफ्ते तक फोन न करूँ तो खुद ही खैरियत पूछते थे। मुझे चाचा जी की शक्ल और आवाज बहुत कुछ मेरे नानाजी जैसी लगती थी। मुझे आज भी चाचा जी के लिखे हुए व्यंग्य के धारदार चरित्र बहुत याद आते हैं। उनसे की हुई ढेर सारी बातें और लिखे हुए पत्र मेरे मानस पटल पर अंकित हैं। जब भी पत्रों को पलट कर देखती हूँ एक अपनेपन की महक से भर जाती हूँ कि सफलता के शिखर पर आरूढ़ होकर भी लेश-मात्र घमण्ड नहीं। लखनऊ से मुम्बई का सफर, विभिन्न आयोजनों में शिरकत, फ़िल्म का ऑस्कर तक का सफर तय करना जैसी व्यस्तताओं के बावजूद हर पत्र का त्वरित उत्तर देना, हर फोन कॉल का सम्मान करना ये एक बहुत बड़ी मिसाल है। हाँ कुछ समय के लिए संदीप जी की अस्वस्थता को लेकर विचलित अवश्य दिखे।
आप हमारे बीच नहीं है ये सच है पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये किरदार आज भी सजीव है। चाचाजी आपकी लेखनी और सहृदयता को शत-शत नमन।
तुम तो बस...
आँखों की कोर से आँसू छलकता है
इस देह के अंदर एक मन भी है
जो तुमसे बावस्ता होने को मचलता है
कोई कुण्डी नहीं है द्वार पर
बस सांकल हटा देना
नेह तो हिय में हर पल दिए जाते हो
आओ न कि हमें
अपने होने का इल्म करा देना
उन बातों को कसम देकर पूछते हो
बहुत भोले हो तुम भी
कहाँ चुभता है तो कहाँ लगता है
जब पीर दोगे तभी न लगेगी
हाथ रखो न इधर
इन बढ़ती हुई धड़कनों की कसम
हम अनजान हैं अब तक
उस दर्द-ए-सुखन से
आकर हमें भी तसल्ली करा देना।
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर!
जब भी देखती थी
मैं अपनी हथेली को
नहीं दिखती थी मुझे रेखाएं
न हथेली का रंग
और न ही दिखा कभी
भाग्य का कोई निशान.
जाने क्यों
हर बार
मेरा ध्यान चला जाता था
उस पर
जो था...
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर
तब मैं नहीं जान पायी थी
इसका मतलब
जैसे-जैसे
तुम्हारी उपस्थिति बढ़ी
हाथ की रेखाएं
रंगत बदलने लगी
सिमटती गयी
मेरी दुनिया
सिर्फ तुममें
तुमने भी तो आसरा दिया
मेरी इच्छाओं को,
खुशियों से भर दी
मेरी छोटी सी
सपनों की दुनिया
पर आज मुझे लगता है
कि वो 'अक्षर'
महज हथेली पर है
मेरी बन्द मुट्ठी से
सरक जाता है
क्योंकि तुम भी तो
बस मेरी यादों में हो
मेरे आज में नहीं,
नहीं चाहिए मुझे
अपनी हथेली पर
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर
मुझे तो संवारना है
तुम्हारे नाम के साथ
अपना नाम
जन्म-जन्मांतर...
डायरी के पन्नों से
© May 27, 2012
जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले
सारांश बहुत भारी मन से ड्राइव कर रहा था अचानक उसे गाड़ी में कुछ प्रॉब्लम लगी। उतरकर देखा इंजन गरम हो गया था। उसे भी कहीं जाने की जल्दी नहीं थी सो बोझिल कदमों से आगे बढ़ने लगा कि शायद कहीं पानी दिख जाए। कुछ दूरी पर चहल-पहल का आभास हुआ, कदम उसे आगे बढ़ाते रहे। उसकी मंजिल कोई नहीं थी जहाँ नियति पहुंचा दे। वो अब तक अनजान था कि नियति इतनी भी क्रूर हो सकती है। पहुंचने पर पता चला कि आज पहली बार वो सही वक्त पर सही जगह पहुंचा है। वो शमशान घाट के नीरव वातावरण में था जहाँ बस दर्द चीखता है। न चाहते हुए भी उसकी नज़र दूर मुखाग्नि को तैयार एक चिता पर पड़ी....लाल रंग के कफ़न पर लिखे स्वर्णिम अक्षर जिन्हें पढ़ते ही उसके बदन में अजीब सी सनसनाहट फैल गयी। बिजली सी फुर्ती के साथ पहुँच गया। वो शब्द आँखों में तेज़ाब की तरह चुभ रहे थे।
"मेरे जीवन का सार
सार.... मेरा जीवन"
सार...इस नाम से तो मुझे मेरी इति बुलाती है। एक अजीब से दर्द ने उसकी साँसों को चोक कर दिया था। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि आगे से जाकर चेहरा देखे तभी इति का भाई शिशिर सामने आ गया।
"बहुत देर कर दी भाई आपने आने में....दी आपसे मिलना चाहती थी। बहुत बार कहा सारांश को बुला दो। मम्मी ने भी ढूंढा आपको, कई बार नंबर लगाया। हर बार इंगेज टोन... हम सब आपसे ये जानना चाहते थे कि दी आखिरी वक्त तक किसका वेट करती रही। वो आपके बहुत करीब थी न। मम्मी कहती थी कि आपको जरूर पता होगा। हम उसकी ये आखिरी इच्छा नहीं पूरी कर पाए। वो बेहोशी की हालत में बस किसी को आवाज़ देती रहती थी.." कहते-कहते शिशिर फफक पड़ा।
मुखाग्नि देने के लिए कुछ लोग शिशिर को ले गए।
सारांश मूर्तिवत खड़ा रह गया....मेरी इति मुझसे दूर नहीं जा सकती..बहुत प्यार करती थी तुम मुझसे...एक-एक कर सब मुझसे दूर हो गए...माँ-पापा, दोस्त सारे रिश्ते तो छूट गए..तुम तो मेरी हर गलती पर हँस कर टाल जाती थी...यहाँ तक कि कभी ऊँची आवाज में बात तक नहीं की... आज इतनी बड़ी सजा देकर चली गयीं... तुम्हें आना होगा, मेरी खातिर..तुम तो मेरी अपनी हो इति..
...किस मुँह से कह रहा हूँ तुम्हें अपना, तुम भी तो बहुत रोती थी मेरे लिए, कितना मनाती थीं जब मैं बात नहीं करता था...मैं कभी पलटकर नहीं देखता.... 'इति एक बार बस एक बार देखो न मुझे, अब मैं तुझे कभी नहीं रुलाऊँगा।'
इति उठने वाली नहीं थी। अब कभी नहीं उठेगी। कभी नहीं कहेगी, सार मेरी भी सुन लिया करो कभी। सारांश जानता था इति सारे जहाँ से रूठ सकती है पर अपने सार की एक आवाज पर दौड़ी चली आती। यही अति विश्वास उसे ले डूबा था। वो यह भूल गया था कि इंसान परिस्थितियों का दास होता है।
उसके सफर ने सच का आईना दिखाया था पर उस वक़्त जब उसकी कोई कीमत नहीं थी। अपने प्रायिश्चित के लिए वो शांति-पाठ में इति के घर गया। इति की माँ ने उसे वो कमरा दिखाया जहां की दीवारें इति के साथ सार के होने की गवाही दे रही थी। हर निर्जीव पड़ी चीज चीख-चीख कर कह रही थी....सार तुम्हारा होना इति का न होना बन गया...। सार भाग-भागकर हर वो चीज देख रहा था जो इति की ज़िंदगी में उसकी अहमियत को दिखा रही थीं..ये पहला गिफ़्ट.. ये झगड़ा करते हुए पेन का तोड़ना...मेरी घड़ी का कवर..मेरा पहला टूटा हुआ सेल फोन... उफ़्फ़ मेरे होंठों से लगा हुआ स्ट्रा... ओह गॉड मेरी नोटबुक का लास्ट पेज...अरे ये तो वही चाभी है अगर तब मिल गयी होती तो शायद सब कुछ ठीक होता! ओह शिट जब ये चाभी गुम हुई थी इति बार-बार मुझे बुला रही थी शायद यही देने के लिए, कुछ दूर मेरे पीछे भी आई थी वो, कॉल भी किया पर मैं अपनी उलझन में सुनता ही कब था...बस वही तो आखिरी मुलाक़ात थी मैं जेल जाने से बचने के जुगाड़ लगाता रहा और वो मुझे बचाने के...फिर भी मैंने मुड़कर नहीं देखा...।
'इति मैंने तुम्हें खो दिया है। मैं अकेला हो गया हूँ। इति आज मुझे तुम्हारे कंधे की जरूरत है। क्यों देती थी मुझे बात-बात पर सहारा, अब क्या करूँगा मैं... तुम बहुत दुखी होकर कहती थी सार, मुझे क्यों दूर करते हो इतना अगर गयी तो तुम्हारे अंदर भी नहीं रह जाऊंगी...कहाँ चली गयी...तुम तो ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिससे मुझे तकलीफ होती फिर अब ऐसा कैसे कर सकती हो??
सारांश घुटनों पर बैठा रो रहा था। इति की माँ ने उसे चुप कराया। वो बार-बार सारांश से यही पूछने की कोशिश करती रहीं कि इति के जीवन में ऐसा कौन था जिसे वो सब लोग नहीं जान पाए। सारांश ये सच कैसे बताता कि उनकी बेटी का गुनहगार वो ही है।
"इति को हुआ क्या था आंटी?"
"मल्टी ऑर्गन फेलियर।"
"इतनी जल्दी कैसे?"
"निमोनिया हुआ था, एक बार बिस्तर पर गयी फिर उठ न पायी।"
सभी के गले रुंध चुके थे। सारांश बाहर निकल आया। उसके पास ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिससे कि इति की आत्मा को शांति मिलती। उसे नफरत हो रही थी हर चीज से यहां तक कि अपने आप से भी।
जीवित होने का प्रमाण-पत्र
जब हम कुछ नहीं कर रहे होते हैं
तो जीते हैं अपने आप को
एक उस अध्याय को
जिसे कुछ करते हुए
पलट नहीं सकते
जब हम कहीं नहीं होते हैं
तो होते हैं अपने पास
कि औरों के साथ होते हुए
कभी नहीं हो सकते
अपने करीब
जब हम कुछ नहीं बोलते
तो चटते हैं स्वयं को
एक दीमक की मानिंद
खोखला होने तक
जैसे बचेंगे ही नहीं
जाने कैसा मापदण्ड है जीने का
कि कुछ करना
कहीं होना
या फिर बोलते रहना
इतना जरूरी है
जैसे यही हो
जीवित होने का प्रमाणपत्र।
शेर मोहब्बत के नाम
तलाश-ए-जहाँ में होते तो मिल गया होता
ये शब्द मुक़म्मल ही है जो हमें मार गया।
तौफ़ीक़ समझकर मोहब्बत को जी लिया हमने,
बस आंखों के इशारे हैं, कोई कलमा नहीं पढ़ना।
*तौफ़ीक़-इबादत
मेरी पहली पुस्तक
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