तुम तो बस...

आँखों की कोर से आँसू छलकता है
इस देह के अंदर एक मन भी है
जो तुमसे बावस्ता होने को मचलता है
कोई कुण्डी नहीं है द्वार पर
बस सांकल हटा देना
नेह तो हिय में हर पल दिए जाते हो
आओ न कि हमें
अपने होने का इल्म करा देना
उन बातों को कसम देकर पूछते हो
बहुत भोले हो तुम भी
कहाँ चुभता है तो कहाँ लगता है
जब पीर दोगे तभी न लगेगी
हाथ रखो न इधर
इन बढ़ती हुई धड़कनों की कसम
हम अनजान हैं अब तक
उस दर्द-ए-सुखन से
आकर हमें भी तसल्ली करा देना।

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मेरी पहली पुस्तक

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