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जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले

सारांश बहुत भारी मन से ड्राइव कर रहा था अचानक उसे गाड़ी में कुछ प्रॉब्लम लगी। उतरकर देखा इंजन गरम हो गया था। उसे भी कहीं जाने की जल्दी नहीं थी सो बोझिल कदमों से आगे बढ़ने लगा कि शायद कहीं पानी दिख जाए। कुछ दूरी पर चहल-पहल का आभास हुआ, कदम उसे आगे बढ़ाते रहे। उसकी मंजिल कोई नहीं थी जहाँ नियति पहुंचा दे। वो अब तक अनजान था कि नियति इतनी भी क्रूर हो सकती है। पहुंचने पर पता चला कि आज पहली बार वो सही वक्त पर सही जगह पहुंचा है। वो शमशान घाट के नीरव वातावरण में था जहाँ बस दर्द चीखता है। न चाहते हुए भी उसकी नज़र दूर मुखाग्नि को तैयार एक चिता पर पड़ी....लाल रंग के कफ़न पर लिखे स्वर्णिम अक्षर जिन्हें पढ़ते ही उसके बदन में अजीब सी सनसनाहट फैल गयी। बिजली सी फुर्ती के साथ पहुँच गया। वो शब्द आँखों में तेज़ाब की तरह चुभ रहे थे।
"मेरे जीवन का सार
सार.... मेरा जीवन"
सार...इस नाम से तो मुझे मेरी इति बुलाती है। एक अजीब से दर्द ने उसकी साँसों को चोक कर दिया था। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि आगे से जाकर चेहरा देखे तभी इति का भाई शिशिर सामने आ गया।
"बहुत देर कर दी भाई आपने आने में....दी आपसे मिलना चाहती थी। बहुत बार कहा सारांश को बुला दो। मम्मी ने भी ढूंढा आपको, कई बार नंबर लगाया। हर बार इंगेज टोन... हम सब आपसे ये जानना चाहते थे कि दी आखिरी वक्त तक किसका वेट करती रही। वो आपके बहुत करीब थी न। मम्मी कहती थी कि आपको जरूर पता होगा। हम उसकी ये आखिरी इच्छा नहीं पूरी कर पाए। वो बेहोशी की हालत में बस किसी को आवाज़ देती रहती थी.." कहते-कहते शिशिर फफक पड़ा।
मुखाग्नि देने के लिए कुछ लोग शिशिर को ले गए।
सारांश मूर्तिवत खड़ा रह गया....मेरी इति मुझसे दूर नहीं जा सकती..बहुत प्यार करती थी तुम मुझसे...एक-एक कर सब मुझसे दूर हो गए...माँ-पापा, दोस्त सारे रिश्ते तो छूट गए..तुम तो मेरी हर गलती पर हँस कर टाल जाती थी...यहाँ तक कि कभी ऊँची आवाज में बात तक नहीं की... आज इतनी बड़ी सजा देकर चली गयीं... तुम्हें आना होगा, मेरी खातिर..तुम तो मेरी अपनी हो इति..
...किस मुँह से कह रहा हूँ तुम्हें अपना, तुम भी तो बहुत रोती थी मेरे लिए, कितना मनाती थीं जब मैं बात नहीं करता था...मैं कभी पलटकर नहीं देखता.... 'इति एक बार बस एक बार देखो न मुझे, अब मैं तुझे कभी नहीं रुलाऊँगा।'
इति उठने वाली नहीं थी। अब कभी नहीं उठेगी। कभी नहीं कहेगी, सार मेरी भी सुन लिया करो कभी। सारांश जानता था इति सारे जहाँ से रूठ सकती है पर अपने सार की एक आवाज पर दौड़ी चली आती। यही अति विश्वास उसे ले डूबा था। वो यह भूल गया था कि इंसान परिस्थितियों का दास होता है।
उसके सफर ने सच का आईना दिखाया था पर उस वक़्त जब उसकी कोई कीमत नहीं थी। अपने प्रायिश्चित के लिए वो शांति-पाठ में इति के घर गया। इति की माँ ने उसे वो कमरा दिखाया जहां की दीवारें इति के साथ सार के होने की गवाही दे रही थी। हर निर्जीव पड़ी चीज चीख-चीख कर कह रही थी....सार तुम्हारा होना इति का न होना बन गया...। सार भाग-भागकर हर वो चीज देख रहा था जो इति की ज़िंदगी में उसकी अहमियत को दिखा रही थीं..ये पहला गिफ़्ट.. ये झगड़ा करते हुए पेन का तोड़ना...मेरी घड़ी का कवर..मेरा पहला टूटा हुआ सेल फोन... उफ़्फ़ मेरे होंठों से लगा हुआ स्ट्रा... ओह गॉड मेरी नोटबुक का लास्ट पेज...अरे ये तो वही चाभी है अगर तब मिल गयी होती तो शायद सब कुछ ठीक होता! ओह शिट जब ये चाभी गुम हुई थी इति बार-बार मुझे बुला रही थी शायद यही देने के लिए, कुछ दूर मेरे पीछे भी आई थी वो, कॉल भी किया पर मैं अपनी उलझन में सुनता ही कब था...बस वही तो आखिरी मुलाक़ात थी मैं जेल जाने से बचने के जुगाड़ लगाता रहा और वो मुझे बचाने के...फिर भी मैंने मुड़कर नहीं देखा...।
'इति मैंने तुम्हें खो दिया है। मैं अकेला हो गया हूँ। इति आज मुझे तुम्हारे कंधे की जरूरत है। क्यों देती थी मुझे बात-बात पर सहारा, अब क्या करूँगा मैं... तुम बहुत दुखी होकर कहती थी सार, मुझे क्यों दूर करते हो इतना अगर गयी तो तुम्हारे अंदर भी नहीं रह जाऊंगी...कहाँ चली गयी...तुम तो ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिससे मुझे तकलीफ होती फिर अब ऐसा कैसे कर सकती हो??
सारांश घुटनों पर बैठा रो रहा था। इति की माँ ने उसे चुप कराया। वो बार-बार सारांश से यही पूछने की कोशिश करती रहीं कि इति के जीवन में ऐसा कौन था जिसे वो सब लोग नहीं जान पाए। सारांश ये सच कैसे बताता कि उनकी बेटी का गुनहगार वो ही है।
"इति को हुआ क्या था आंटी?"
"मल्टी ऑर्गन फेलियर।"
"इतनी जल्दी कैसे?"
"निमोनिया हुआ था, एक बार बिस्तर पर गयी फिर उठ न पायी।"
सभी के गले रुंध चुके थे। सारांश बाहर निकल आया। उसके पास ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिससे कि इति की आत्मा को शांति मिलती। उसे नफरत हो रही थी हर चीज से यहां तक कि अपने आप से भी।

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