प्यारा बचपन

 माथे पर थी

स्वेद की धार

मन, तृष्णा की

मीन बयार

दर्द की हर

लज्जत से प्यार

इमली, कैरी, कैथा बेर

गुम गयी सहेलियाँ चार

बैर, द्वेष से भरा है मन

खोया स्मित का संसार

फेंक दो सारी

खुली किताबें

प्यारा बचपन

लौटा दो यार


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चिरैया सी लड़कियाँ

मुझे लड़कियाँ बेहद पसंद है

मूंज की लड़कियाँ

कांस की लड़कियाँ

होती हैं कहीं कहीं ताश की लड़कियाँ

मिट्टी की लड़कियाँ

गिप्पल की लड़कियाँ

बिन सूरमे, लाली के सिम्पल सी लड़कियाँ

देर तक इन लड़कियों को देखते रहना

मुझे पसंद है,

ठहर कर देखना

टिक कर देखना

उनकी हर अदाओं को आँखों में क़ैद करना

कैसे जीती है लड़कियाँ

यह सोचना पसंद है

किस बात पर कैसे प्रतिक्रिया करती है लड़कियाँ

मुझे समझना पसंद है

लड़की होकर उन्हें

लड़की होने का अहसास होता है क्या

यह सवाल मुझे झकझोरता है

उनके बारे में और सोचने को मजबूर करता है

फिर सोचती भी हूँ कि

मैंने बस मालीवाल, ईरानी या रनौत को ही नहीं देखा

मैंने तो दौड़ते देखा है

कोटेश्वर मंदिर से चिरबटिया तक सरोजनी को

अल्ट्रा मैराथन में मेडल के लिए, और

बेरेगाड़ से नारायणबगड़ तक

पुलवामा में शहीद हुए जवानों को

श्रद्धांजलि देने के लिए

मैंने देखा है

बछेंद्री और किरन को, इंदिरा नूयी को

ये वो लड़कियाँ हैं जो ढ़क लेती हैं

सूरज को अपने हाथों से

कोई फर्क नहीं पड़ता उनको

सूरज डूब रहा है या उग चुका



क्या बुद्ध बन गया है वो?

 परित्यक्ता के माथ पर

प्रश्न है बड़ा जड़ा


"मुझे छोड़कर गया है जो

क्या बुद्ध बन गया है वो?"


जो जाते स्त्री को रास्ते

अज्ञान ही क्या बाँटते?


स्त्री यदि पथ शूल है

तो शूरवीर पुरुष कहाँ?

हाथ छोड़ भार्या का

भागता है मुँह छुपा?


क्या निर्णय था उचित

छोड़ना पथ में अनुचित?


अभिलाषा




तुम एक प्रयोज्य हो स्त्री


 नहीं है मुझे तुमसे रत्ती भर भी सहानुभूति

तुम एक प्रयोज्य हो स्त्री

खोखली वायु के आकाश में विचरने वाली

क्या उदाहरण बनोगी किसी के समक्ष?

नहीं निकाल पायी थी तलवार

अपने म्यान से औचक

तो नोंच लेती उसकी खाल

दाँत और नाखून भी तो हथियार ही हैं

कुछ नहीं तो घृणा से थूक ही देती

उस भेड़िये की आँखों में

तुम्हारे रुदन की पीड़ा कुछ तो कम होती

अपमान का घूँट तो न गटकना पड़ता

छाती और पेट पर मार तो न लगती

तुम्हें पता है तुम्हारे बहाने से

यह पुरुष समाज एक बार फिर करेगा अट्टहास

और मनायेगा स्त्री की कमजोरी

इन्हीं में से कुछ पुरुष आयेंगे आगे

और जबरन रख लेंगे तुम्हारा सिर

अपने कंधे पर

उनकी सहानुभूति में मिश्रित रहेगा

पुरुष के वर्चस्व का महिमामंडन

‘स्त्री दुर्बल है और दुर्बल ही रहेगी’

तुम्हारे दरवाजे पर पसरी भीड़ का स्लोगन

भले ही उच्च स्वर में न हो

पर परिस्थितियों में प्रमाणबद्ध रहेगा

मार खाकर डंके की चोट पर दण्ड दो

अथवा क्षमा

स्त्री ही रहोगी

संभवतः इसीलिए नियति ने तुम्हारे वास्ते

बस एक दिवस बनाया है


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मजूर

अन्न उगाया

सूत बनाया

बाग लगाये

घर बनाये

जीने से मगर मरने तक

मेरे हिस्से कुछ न आये

श्रमिक जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी

सूखे आँसू, मिले न रोटी, नून और पानी

तुम साधारण हो वह जेनुइन

 


वह मेकअप नहीं लगाती

बाल सँवारती भी है

तो कामचलाऊ

उसे देखना है

तो तुम्हें अपनी आँखों को

करना होगा एडजस्ट

उसके लेवल तक

क्योंकि वो एडिट नहीं करती.

तुम सब भी तो नहीं

ला पाये ख़ुद को टाॅप पर

तुम ब्यूटीफुल हो

और वह ‘जेनुइन’

तुम सब एक जैसे हो

और वह ‘यूनीक’


नाॅट फार यूज

 हर प्लीज का, मतलब रिस्पेक्ट नहीं होता

कुछ प्लीज किसी को मजबूर करने के लिए भी

'यूज़ किए जाते हैं

'नो' कहना सुरक्षित रखो मतलबी बातों के लिए.

आधी रात को 'सिगरेट पीने की इच्छा'

करने वाले दोस्त का 'प्लीज’

अगर तुम्हें मन न होने पर भी

दस नब्बे चौराहे के एकाँत पर खड़ा कर सकता है

तो मत भूलो कि एक दिन

बलात्कारी की तरह कटघरे में भी ला सकता है

माँ हमारी आधी गल्तियों पर पर्दा डालती हैं,

पिता या तो अति भावुक होते हैं या फिर अति क्रोधी

दोस्त आधे इधर होते हैं आधे उधर

सिब्लिंग, वो तो ख़ुद ही उसी में डूबे हैं

सोच रहे हो हेल्प किससे लें?

तुम्हारा अपना विवेक कहाँ है?

आधी रात को सिगरेट फूँकने से लेकर

वोट के अधिकार तक अपने निर्णय स्वयं करो


सोचो इलेक्टोरल बॉड्स को जानने का

हमारा अधिकार है या नही

सोचो यदि केजरीवाल, गुनहगार है

तो कितनी देर में पहुँचा सलाखों के पीछे

सोचो शिक्षित प्रत्याशियों के नाम पर

आम सहमति क्यों नहीं बनती

सोचो वोट एक पार्टी के नाम पर लेकर

जूते दूसरी पार्टी के चाटते हैं

सोचोगे कैसे

तुम्हें तो बस सिगरेट, साँप, लड़की, में उलझना है

तुम्हें तो बस यह सोचकर मरना है

कि अकेले मुझे खप कर क्या ही करना है


एल फाॅर लिसेन

 



तुम एन्ड्रायड पर लिखो

लोग आई फोन पर पढ़ें

गोया झोपड़ी की चीख

महलों में इको करे


यह सोशल एनेस्थीसिया से

बाहर आने का समय है


भागना नहीं है

न तो प्रश्नों से

न ही स्वयं से


तुम्हें पढ़ना

अब रील्स स्क्रॉल करना बंद, सर्वे से कमाना शुरु 


मैं तुम्हें पढ़ती रहूँ

कभी अपने बिस्तर की सिलवटों बीच सिमटकर

कभी सूर्य नमस्कार करते हुए

कभी मंदिर की सीढ़ियों में

कभी दातुन फिराते हुए छज्जे पर

कभी कप में चाय उड़ेलते हुए स्लैब पर

कभी दफ़्तर के रास्तों में

कभी लंच की गप शप पर ठिठककर

कभी छुट्टियों में समय भर पसरकर

कभी मनाली लेह मार्ग के तंगलंगला दर्रे पर

कभी बादलों के घर में उड़ते उड़ते

कभी बुर्ज खलीफा की छाँव में

कभी जीवन के ठहराव में

कभी मृत्यु के पड़ाव में


....

कभी भी कहीं भी

बस इतने ही अनायास तुम आ जाते हो

जैसे बोल रहे हो कानों में

'अभी अभी कुछ लिखा है

बताओ भला कैसा लिखा है'


तुम्हारे शब्दों में जकड़ी हुई मैं

तुम्हारे शब्दों में स्वतंत्र होती हूँ

टार्चर हो सकने की सहनशक्ति

१• कुछ स्त्रियाँ होती हैं

बसंती सी

नाचती रहती हैं कुत्तों के सामने,


२• कुछ पुरुष होते हैं

गब्बर से

चलाते रहते हैं गोली मनोरंजन के लिए


३• कुछ स्त्रियां गब्बर भी होती हैं


४• कुछ पुरुष मगर बसंती नहीं होते


५• कोई भी पुरुष बसंती नहीं होता


आइये करते हैं चुनाव


पहला सही, दूसरा सही,

पहला और तीसरा सही,

चौथा सही पाँचवा सही;



अश्लीलता फूहड़ता और

हिंसा के दौर में

चुनाव अच्छे या बुरे का नहीं रहा

'टार्चर हो सकने की सहनशक्ति' का है.


तुम केसरिया हो


 •तुम प्रिय

तुम प्रियता

सांसारिक निजता

हिय दृष्टा हो


तुम अंतर्दिष्ट सखा हो


तुम अतीत का

नाम जप

तुम स्नेह का

प्रतीक्षित तप


मैं हूँ सूर तुम दृष्टा हो


तुम फाग

तुम ही फाग राग

अनछुआ रंग

कुसुमित पराग


मैं श्याम कमल तुम केसरिया हो


मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php