नहीं है मुझे तुमसे रत्ती भर भी सहानुभूति
तुम एक प्रयोज्य हो स्त्री
खोखली वायु के आकाश में विचरने वाली
क्या उदाहरण बनोगी किसी के समक्ष?
नहीं निकाल पायी थी तलवार
अपने म्यान से औचक
तो नोंच लेती उसकी खाल
दाँत और नाखून भी तो हथियार ही हैं
कुछ नहीं तो घृणा से थूक ही देती
उस भेड़िये की आँखों में
तुम्हारे रुदन की पीड़ा कुछ तो कम होती
अपमान का घूँट तो न गटकना पड़ता
छाती और पेट पर मार तो न लगती
तुम्हें पता है तुम्हारे बहाने से
यह पुरुष समाज एक बार फिर करेगा अट्टहास
और मनायेगा स्त्री की कमजोरी
इन्हीं में से कुछ पुरुष आयेंगे आगे
और जबरन रख लेंगे तुम्हारा सिर
अपने कंधे पर
उनकी सहानुभूति में मिश्रित रहेगा
पुरुष के वर्चस्व का महिमामंडन
‘स्त्री दुर्बल है और दुर्बल ही रहेगी’
तुम्हारे दरवाजे पर पसरी भीड़ का स्लोगन
भले ही उच्च स्वर में न हो
पर परिस्थितियों में प्रमाणबद्ध रहेगा
मार खाकर डंके की चोट पर दण्ड दो
अथवा क्षमा
स्त्री ही रहोगी
संभवतः इसीलिए नियति ने तुम्हारे वास्ते
बस एक दिवस बनाया है
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3 टिप्पणियां:
सुन्दर सृजन
स्त्री की व्यथा कहती रचना
बहुत सुन्दर
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