मेरा मन तुम्हारा हुआ!

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याद है अब भी मुझे
तुम्हारा होना पल-पल यहाँ,
जैसे धूप में छतरी कर रहा था
तुम्हारा स्पर्श,
बातों की स्नेहिल बयार में
बही जा रही थी मैं,
तुम्हारा खुलकर हँसना,
जी भरकर बोलना,
अनवरत क्षितिज की तरफ
मेरे होने की गवाही ढूंढना,
गोया मेरा कोई बिम्ब वहां उभर रहा हो,
मेरा होना तो उस शून्य की तरह था
जो तुममें डूबा हुआ था,
एकटक जमीन को भेदती मेरी नज़र
तुम्हें सिर्फ तुम्हें देख रही थी।
स्पर्श को मचलती मेरी मादकता
उस रोज़ तुम्हारे उन्माद से टकरा रही थी;
जैसे यौवन नाच उठेगा
तुम्हारी पाकीज़गी से गले लगने को,
प्रेम भी था हममें, आकर्षण भी था,
मेरा होना भी था उस पल में,
तुम्हारी मौजूदगी भी थी;
जाने क्यों शाम की आंख लग गयी,
वो दिन भी ढल गया,
तुम ख़्वाबों वाली रात का आसरा देकर
मेरी मुस्कान समेटे चले गए:
सुनो,
वो रोज जो तुमने दिया था मुझे
उस रोज की तरह
आओ न आज फिर
उम्मीदों की दहलीज़ पर एक दिया जलाने।
ऐसा लगता है मेरा मन
तुम्हे खो रहा है;
सुन रहे हो आओगे न!

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मेरी पहली पुस्तक

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