अनकही से उपजा अनकहा सा कुछ

वो वाचाल था और मैं भी. हमारी भावनाओं के कितने नदी-समन्दर मिल जाते थे आपस में. हर बात पर हम उस शब्द को पकड़ते थे जो कहने से रह गए हों. बातों ही बातों में रुह-अफज़ा होते.


फिर एक दिन उसने मौन को दस्तक दी. मेरा वाचाल अकेला रह गया. मेरे कंधों पर भरम की तितलियाँ फड़फड़ाने लगीं. वाचाल मरने को था. मौन ने वाचाल को गले लगा लिया. मैं अपना स्व भूलती रही. मुझे पता था उसका वाचाल टकराया है किसी सुनामी से. सुन्न पड़ गया कंधों पर तितलियों का फड़फड़ाना.


और उस रोज उसका मौन मेरे कंधे पर आ बैठा. उसने मुझे वो मौन लौटाया जो उसके जीवन में आयी सुनामी का परिणाम था. मैं द्रवित हुई उस अनुभूति से. कैसे छुपा पाया होगा ये बवंडर वो अपने भीतर. सोंख लेना चाहती हूँ अब वो दर्द मैं सारा का सारा. श्री हीन हुई थी अब हीन भी हूँ. मैं और वो साथ-साथ समानांतर चल रहे हैं अब... मौन के अधिकतम पर. मेरी प्रतीक्षा को कोई सावन नहीं बना, कोई नक्षत्र नहीं न ही कोई राशि.

3 टिप्‍पणियां:

Roli Abhilasha ने कहा…

आपका बहुत आभार माननीय रविन्द्र जी! 🙏

Amrita Tanmay ने कहा…

मर्मस्पर्शी ।

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार!

मेरी पहली पुस्तक

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