तुम शब्दों में इज़ाफ़ा भी तो न लिख गए...
एक वैराग से होते जा रहे हो
जैसे ख़ुद में ही एक बड़ा सा शून्य
कहते तो हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता
मग़र जो दिख रहा वो क्या है?
अपने दाल चावल में थोड़ा सलाद क्या बढ़ा
तुम उँगलियाँ चाटने लगे थे
और अब....
एंटासिड तकिए के नीचे रख कर सोना
ये जो तुम्हारा सर दर्द है न
ये ज़्यादा सोचने का नतीजा है बस
उठते ही खा लेना एक गोली
हम जी रहे हैं न अपने हिस्से का माइग्रेन
बुरे जो ठहरे...
तुम...तुम तो प्यार हो बस
धड़कन से पढ़ा गया
आँखों में सहेजा गया,
रोज़ तुम्हारी कविता की ख़ुराक लेकर
ऐसे सोते हैं
मानो ज़मींदोज़ भी हो जाएं
तो जन्नत मिले
तुम्हारे शब्दों के अमृत वाली...
हमें पता है इसे पढ़कर तुम
सूखे होठों पर अपनी जीभ फिराओगे
काश के हम आज तुम्हें पिला सकते
एक चाय...सुबह की पहली वाली
हम साथ नहीं दे पाएँगे मग़र तुम्हारा
जबसे मायका छूटा
चाय का स्वाद हमसे रूठा
...एक दिन आएँगे न ससुराल से वापस
और तुम्हारे गले लगकर पूछेंगे,
"क्या तुमने अब तक...?"
चलो छोड़ो अभी
बहुत रुलाते हो तुम हमको!
4 टिप्पणियां:
व्यथा की अनगढी सी एक कथा!!!! मन भर आया।।।।।
बहुत आभार मान्यवर!
बहुत बहुत सुन्दर रचना
बहुत आभार मान्यवर!
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