योद्धा होता है विचारों का
उसके रगों में दौड़ती है विद्युत
इतनी ही चपलता से
जैसे कोई अश्व दौड़ रहा हो युद्ध भूमि में
विरोधी सेना को परास्त करने के उद्देश्य से
रण क्षेत्र में विरोधी सेना होती है
एक समूचा, संगठित विपक्ष
जबकि लेखक के युद्ध में
उसे पार पाना होता है अपने ही उन विचारों से
जिन्हें वो स्वयं हाशिये पर रखना चाहता है
एक लेखक नहीं लिख पाता मन की यथावत
क्योंकि वो एक विचारक भी है
और लोगों की अपेक्षा में दृष्टा भी
वो परिष्कृत करता है भावनाओं को
उन्हें विचारो का मूर्त रूप देने के लिए
छिद्रों से बने एक घड़े सा मस्तिष्क
तरल-तरल बहता बहता है समाज में
और ठोस वो स्वयं में रखता जाता है
कभी-कभी इतना भर जाता है लेखक
कि इस नियम को धता बता देता है
'लेखक को अवसाद नहीं होता
लेखक आत्महत्या नहीं करता'
योद्धा भी तो मारा जाता है.
1 टिप्पणी:
वाह
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