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अबूझी कहानी

वो यायावर था
वो स्वयं के खोल में भी
एक कोना ढूँढने वाली निर्मोही

जाने कैसे प्रेम हो गया

अब वो अपने आप में
ग़ुम सा शांतिदूत
और वो
उसके मन के ब्रह्मांड को खोजती
अनथक घुमक्कड़.

प्रेम में राजयोग

सुनो ना!
ये जो प्रेम है
मेरी दसों उँगलियों के पोरों पर
चक्र बना गया है
अब तो मानोगे ना
प्रेम में मेरा राजयोग चल रहा.
अगर दाएं पाँव का अँगूठा छोड़ दूँ
तो उन नन्हीं उँगलियों में भी
सारे के सारे चक्र हैं
अब तो ले चलोगे ना
अपने साथ किसी दूसरे ग्रह पर
तब तक मैं
ये अंतिम चक्र भी बनाती हूँ.

प्रेम का महाकाव्य

मैं वो शहर हूँ
जिसके किनारे दर्द की झील बहती है
अक़्सर प्रेमी युगल
एक-दूसरे को सांत्वना देते दिख जाते हैं.
मैं वो पेड़ नहीं बनना चाहता
जिनकी शाखों में उनके प्रेम को अमरत्व मिले
इससे बेहतर है, मैं वो कागज़ बनूँ
जिस पर प्रेम न पा सकने की
वो अपनी रोशनाई उड़ेल दें...
अमर होना चाहूँगा मैं
प्रेम में डूबा दर्द का महाकाव्य बनकर.

कोई राधा तुम्हारे मन में भी बसती तो होगी

तुमसे मिलते ही
मैंने पहला शब्द ब्रह्मांड बोला था
और तुमने असुर
तुम अविश्वास के अनुच्छेद में टहलते रहे
और मैं विश्वास की सूची में
तुमने पलाशों का झड़ना देखा
और मैंने गुलमोहर का खिलना
मेरे लिए बहुत आसान है कहना
कि तुम सही नहीं हो
फ़िर भी पूरे यक़ीन से कहती हूँ मैं
कि तुम ही सही हो...
सहरा में दोआब की कोशिश मेरी थी
ग़लत थी मैं
मैंने चाहा था उस आब से बरसती बूंदे
तुम पर गुलाबी पड़ें
इसका आकलन तुम्हारा मन
मेरी काली सोच कर गया;
मेरी आँखों ने विश्वास को
तुम्हारा सहोदर देखा था
तुम्हें लगा मैं तुमसे रिश्ते की आस में हूँ
स्वप्न में भी तुमसे कोई प्रणय नहीं किया मैंने
कोई राधा बसती होगी तुम्हारे भी मन में
पूछना उससे क्या प्रेम बस इतना ही होता?
कोई एक नाम तो और भी होगा प्रेम का
इस ब्रह्मांड में
मैं चल कर जाना चाहती हूँ उस तक
मृत्यु से पहले ब्लैक होल में समाना भी गवारा होगा
मुझे मंजूर होंगी वो यातनाएँ
जो जीवित अवस्था में भी सलीब पर टाँग दे मुझे
अगर तुम कहते हो सूरजमुखी तुम्हें देखकर नहीं खिलता!

मेरे प्रेम का प्रस्ताव

मेरी प्रेम कविताएँ
बीथोवन के जवाबी ख़त नहीं
जो तुम पुष्टि कर सकोगे
मेरे तुमसे प्रेम में होने की

न ही मैं
ब्राउनिंग की वो पोरफीरिया हूँ
जिसे उसके प्रेमी में
उसी के बालों से फंदा बनाकर
प्रेम में अमरत्व दिया

मेरा अमर प्रेम
दिन में सूरज और रात में चाँद सा है
कैसे इनकार करोगे कि
रात दिनकर का स्वागत न करे
कैसे रोकोगे मुझे कि
तुम्हारी चुपकी की पवित्र नाद से
मन भर की दूरी पर रहूँ?
चाहो तो मेरे प्रस्ताव पर ग़ौर करना
जितनी दूरी पर मैं हूँ तुमसे
इतने दायरे में मुझे हरदम मिलना.

सभ्य प्रेम

तुम्हारी चुप्पियों को भेजे गए
मेरे बेहिसाब चुम्बन
हमारे हृदयों को जोड़कर रखेंगे,
तुम सहलाते रहना अपने दर्द को
मेरे नर्म हाथों की मानिंद.
तुम तक नहीं आ सकती मैं
समय ने चूस ली है घुटने की चिकनाई
मेरी आँखों पर रख दिया शिष्टता का रक्त
तुमसे ज़्यादा तो मेरा
ईश्वर का भी होने का मन नहीं करता
तुम मुझे देते रहना
अपने सभ्य प्रेम की ख़ुराक
जीना चाहती हूँ मैं.

प्रेम तो प्रेम है


उस रोज़
जब पतझड़ धुल चुका होगा
अपनी टहनियों को,
पक्षी शीत के प्रकोप से
बंद कर चुके होंगे अपनी रागिनी,
देव कर चुके होंगे पृथ्वी का परिक्रमण,
रवि इतना अलसा चुका होगा
कि सोंख ले देह का विटामिन,
सड़कों पर चल रहा होगा प्रेतों का नृत्य,
लोग दुबके होंगे मोम के खोल में
सरकंडे की आँच पर,
इच्छा उतार कर रख दी गई होगी
घर के आले में,
मोह सूने आंगन को बुहार रहा होगा,
दया क़ैद हुई होगी आँखों के काले कटोरे में,
और प्रेम...हमारे पहरे पर होगा;
उस रोज़ तुम अपनी नैसर्गिक चुप्पी तोड़ोगे
और खिला रहे होगे मिलन की कोपलें
अपने मन के सूने जालों में
...उस रोज़ भी मैं भागी चली आऊँगी
तुम्हारी एक आहट पर
बिना किसी सकुचाहट के,
टाँग कर आऊँगी अपनी हया
बूढ़े पीपल की किसी कोटर में
उसी रोज़...

मैं दोषी हूँ


मैं दोषी हूँ
उन तमाम गुनाहों की
जो मैंने प्रेम करते हुए किए.
मैं दोषी हूँ
उस प्रेम की भी
जो तुमने महसूस किया.
मैं दोषी हूँ
उन तमाम रातों की
जो तुम्हारे इंतज़ार में गुजारीं.
मैं दोषी हूँ
उस पल की
जब मैंने तुम्हें अच्छा कहा.
मैं दोषी हूँ
उस कल की
जिसमें तुम्हें साथ चाहा था.
मैं दोषी हूँ
उन शब्दों को पढ़ने की
जो तुमने लिखने चाहे.
मैं दोषी हूँ
कि तुम्हारा दर्द
तुमसे बड़ा मुझे दिखा.
मैं दोषी हूँ
सबसे ज़्यादा इस बात की
कि अपना ही दोष दिखा नहीं.

PC: Pinterest

प्रेम है प्रेम सा


बहुत गर्माहट देती हैं
शीत ऋतु में तुम्हारी चुप्पियां
जैसे किसी नवजात को माँ ने
अपनी छाती में भींच रखा हो.
एक अरसे के बाद तुम्हारा आना
ऐसे भरता है
हमारी सर्द रातों में गर्मी
जैसे किसी दुधमुँहे के तलवों पर
अभी-अभी की गई हो
गुनगुने सरसों के तेल की मालिश.
छज्जे पर तुम्हारी राह तकते हुए
पहुँचने से पहले ही
किवाड़ खोलने की छटपटाहट
याद दिला ही जाती है
लड़खड़ाते कदमों से बच्चे के आते ही
माँ के अंक में भर लेने की कला.
प्रेम में पगा होता है मेरा हर पल
जब तुम्हें सोचूँ प्रेम उमड़ता है
जब तुम्हें देखूँ प्रेम मचलता है
और जब तुम्हें प्रेम करूँ
प्रेम को भी प्रेम पर गुमान हो उठता है.

Picture Credit: Pexel

आज सुबह चाय पीते हुए

तुम्हारा होना
रोज़ रोज़ होना
कोई आदत नहीं
न ही लत है मेरी, क्योंकि
तुम तो सुबह हो,
मेज पर रखे चाय के दो कप
तुम्हारे साथ घूंट घूंट पीना
और बूंद बूंद स्वाद लेना
बालकनी पर छितरे बेल की
खिड़की से झांकती पत्तियां
मेरी आंखों से पढ़ी
तुम्हारी कविताओं का
स्पर्श चाहती थीं,
ये खिल सी उठती हैं
जब मेरे होंठों पर
तुम्हारे शब्दों के इन्द्रधनुष रचते हैं
गोया इनके भी कान हों
इतने संवेदी
जैसे मेरे कान तुम्हारी कविता को,
आज वो बेल मुरझा गई
पढ़ी तो थीं आज भी
तुम्हारी कविताएं
पर आंखों से कही नहीं
न ही होंठों से बाची गईं
...फ़िर कभी हो सकेगी क्या
वो चाय तुम्हारे लिए
और वो कविता हमारे लिए.
....
आज सुबह चाय पीते हुए
पी गई थी जाने कितनी उलझनें
बस एक चाय ही तो नहीं पी थी
आज सुबह...

अवसान तक प्रेम!

मैं बचाए रखना चाहती हूं प्रेम
ख़त्म होने तक भी
यहां तक कि प्रेम के अवशेष
जब कुछ भी न बचे दुनिया में
तब तुम्हें वो पोषित करता रहे
चिरकाल तक
और फ़िर तुमसे ही प्रारम्भ हो
एक नए युग का
जिसकी रगों में बहता हो
मेरा पोषित किया हुआ प्रेम.

तुम्हें ज़िंदगी कह तो दिया

उस रोज़ पूछा था किसी ने हमसे
तुम्हारा नाम क्या है
हमने ये कहकर उन्हें
मुस्कराने की वजह दे दी
कि एक दूसरे का नाम न लेना ही तो
हमारा प्रेम है...
कितने बावले हैं लोग
कि वो तुम्हें कहीं भी ढूंढ़ते हैं
मेंडलीफ की आवर्त सारणी में,
न्यूटन के नियम में,
पाइथागोरस की प्रमेय में,
डार्विन के सिद्धांत में,
अंग्रेजी के आर्टिकल में,
हिंदी के संवाद में,
विषुवत रेखा से कितने अक्षांश की
दूरी पर बसते हो,
जानना चाहते हैं अक्सर लोग
बातों ही बातों में.
पर हम तो तुम्हें बस
ज़िन्दगी के नाम से जानते हैं.
कैसे कहें लोगों से
हम तुम्हें याद तक नहीं करते
तुमसे निकलने वाली चमक को
आइरिश अवशोषित कर
उर तक प्रेषित कर देता है,
और जब तुम हृदय में हो
तो निकट दृष्टि दोष होना स्वाभाविक है.
तुम हर कदम इस तरह साथ हो
कि तुम्हारी छाया में
अपना अस्तित्व खोना
हमें अप्रतिम होने का भान कराता है,
अनुभव करते हैं हर रात जब तुम्हें
अपने बिस्तर की सिलवटों में
गर्व होता है...
जीवन में तुम्हारे होने पर,
कि कितने ही और जन्म मांग ले
ईश्वर से
जीवन की समानांतर पटरी पर चलने को
तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए
नाम के नहीं...जन्म-जन्मांतर के साथी.

'तुम'...

'तुम'
क्या हो तुम
ठहरी हुई झील
गिरता हुआ झरना
बहती हुई नदी
अथाह समंदर
या फिर
उसको भी समाहित करता
महासागर;
नहीं
इनमें से कुछ भी नहीं हो तुम
तुम तो एक बूंद हो
......
हाँ वहीं
जिसमें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन
का संयोजन हैं हम
तुम अगर सूत्र हो
तो समीकरण हैं हम.

जब हम...तब तुम


जब हम घर का आख़िरी दिया बुझा दें,
जब हम भीतर आकर
किवाड़ की सांकल चढ़ा दें,
जब हम इन पाँवों पर
होंठों की लकीर सजा दें,
जब हम बदन से लिबास की
दूरी बढ़ा दें,
जब हम गुरुत्व हम-दोनों का
कुल जमा कर दें,
जब हम घनत्व साँसों की हवा का
गुना कर दें,
जब हम हृदय पर हाथ रखकर
संदेश उत्तेजना का रवां कर दें,
जब हम नमी उन होंठों की
जवां कर दें,
........
क्या तुम आँखों में देखोगे
हमसे ये पूछोगे
'मिज़ाज कैसा है जनाब का'
तब तो हमें दुल्हन बना लोगे न,
अपनी बाहों के घूँघट में हमको
छुपा लोगे न,
इस संगमरमर की नक्काशी को
तराशोगे न,
चक्षुओं से दो क्षीर मटकों को
ताकोगे न,
हाथों में भरकर अपनापन
जताओगे न,
उस नमी से रात शबनमी
बनाओगे न,
अपनी चोटों से रात भर
जगाओगे न,
हर वार पर आह, सिसकी दिलाओगे न,
जब क्रिया होगी तभी न
प्रतिक्रिया का बिगुल बजेगा!

हममें हमको बस...'तुम' दे दो



कुछ उलझा-उलझा सा रहने दो
कुछ मन की हमको कहने दो
आँखों से बोल सको बोलो
कुछ सहमा-सहमा सा चलने दो
हर बात गुलाबी रातों की
हया के पहरे बैठी है
है रात अजब शर्मीली ये
हमको-तुमको यूँ निहार उठी
अब हाथ कलेजे पर रखकर
कुछ हल्का-हल्का सहने दो;
तुम हो, हम हैं सारा आलम
मदमाता यौवन, भीगे हम-तुम
आ जाओ छुपा लो हमको
मन सावन है, तन वृंदावन
मत रोको हम प्रेमाकुल हैं
बस मद्धम-मद्धम सा झरने दो;
एक ऐसी हिलोर उठी हिय में
आह की हूक जगी औ बढ़ी
तोड़ो भी हर सकुचाहट को
देखें तो जरा मसली सी कली
हममें हमको बस 'तुम' दे दो
उफ़्फ़ बिखरा-बिखरा सा रहने दो.

आओ न प्रेम को अमर कर दो

Google Image

तुम्हारे लिए कोई कसम न हो
फिर भी पूरा जनम है
सात फेरे न सही
हम तेरे तो हैं,
सुहाग का चूड़ा, बिछुआ, महावर
आरती का थाल
सब कुछ सजाया है
अब मान भी जाओ हमारी मनुहार
आज चंदा को अपनी नथ बनाना है
चाँदनी की पालकी में
प्रेम डगरिया जाना है,
पीपल की ओट से
स्नेह का दिया मत दिखाना
छत पर चाँद उतरने का भ्रम मत बनाना,
हमें तो दूर आसमानों में फैली
वो लाली चाहिए,
पूरा चाँद तो तुम ही हो मेरे;
कभी मन में पसर जाती है
उम्मीदों की अमावस
तब तुम्हीं तो हो न जब आँखें झुकाकर
स्वीकारोक्ति देते हो
अपने होने की, हमारे साथ हर पल,
हम नेह के सूत पर
आँखें मूँदकर चल पड़ते हैं,
तुम्हारा होना हमारे मन का उजाला जो है,
तुम हो तो हम हैं
अब आओ भी
मन कितना प्रेम-पिपासु हो रहा,
शब्दों के छज्जे पर
इसकी वय न ढ़लाओ,
श्री-गणेश कर दो कि
मन से मन का एकाकार तो हो गया
देह को हमारे नाम से मुक्त कर दो
हमें पतिता बना दो,
समा लो हमें खुद में
समर्पण का गठबंधन करा दो,
सोंख लो बून्द-बून्द हमारे कौमार्य की
हमें ईश की ब्याहता बना दो
बहुत हो गया बातों का परिणय
अब तो हमें अमरपान करा दो!

...यक़ीनन हम इंतज़ार में हैं


कभी तो थोड़ा हंस दिया करो
जब हम खुश होते हैं,
कभी तो दिल बहला दिया करो
जब ये आंसू रोते हैं,
उस छोटी सी तिपाई पर
याद है न,
नुक्कड़ वाली दुकान में
जब वो 'चाय' ठुकराई थी हमने
और वो खूबसूरत सा इतवार
जब 'कॉफ़ी' का ऑफर था तुम्हारा
हमने बस इतना ही तो कहा था
...हम इंतज़ार करेंगे 
वक़्त अच्छा होने तक...
कितने खूबसूरत अहसास
दे जाते हो कभी,
बेख़ौफ़ घूमना
बेवजह हँसना
जैसे समय और नज़ारे
तुमने हमारी चुन्नी में टांक दिए थे,
आज वक़्त तुम्हारा है
मगर तुमने रिश्ते की
एक-चौथाई जमीन से भी
हमें बाहर कर दिया,
हम यादों की मखमली घुटन में हैं
वक़्त-बेवक्त, ख़याल दर ख़याल
तड़प है कि
रिसती जा रही है,
आज हमें वो 'चाय'
वो नुक्कड़
वो दुकान
और तुम्हारा आग्रह
बहुत याद आ रहे हैं,
आओ न!
फिर एक बार
फिर एक शाम
'चाय' के नाम,
हम भी जी लें थोड़ा
भले ही किश्तों में।

पाकीज़गी इश्क़ की



पुरकशिश, दिलकश सी है तुम्हारी छुअन
कैसे रहते भला इश्क़ में नापाक हम
वो इरादतन था तुम्हारा
हमें बाहों में समा लेना
हम ज़र्रा-ज़र्रा तुम्हारे
हर इरादे पे मर गए
जब भी देखी तुम्हारी नज़र हमपे
हम खुद में ही सिहर गए,
कैसे छोड़ोगे इस रात में
इस आँचल की सरगोशी,
फेंक दो न ये हया का क़तरा
चूमने दो अपनी पेशानी,
फैला दो अपनी आँखों का पहरा
हो जाने दो हमें खुद से दर-ब-दर
आओ न कि वक़्त की टहनी से लिपटकर
दो बातें कर लें
खून तो बहता है हर रोज रगों में
आज ये साँसें भर लें
बड़ी किस्मत से मिले हैं ये लम्हे
इन्हें जाया न करो
पास बुलाने की कभी हमको
वजह तो बताया न करो,
दिल में उठ रही तुमको हर भँवर की कसम
इश्क़ के मौसम की हर लहर की कसम
सीने की धड़कनों पे अपने कान तो रख
मचल रहे अपने भीतर के इशारे को समझ
आज ले लेने दो हमको वो सोंधी सी महक
आज की रात करने दो सिसकियों में गुजर
यूँ ही आँखों-आँखों में हो जाने दो सहर
तुमको हमारे भीतर की कस्तूरी की कसम
हर आहट पर इश्क़ की मंजूरी है सनम
ज़र्द हुआ चेहरा, सर्द पाँवों पे करम कर दो
इन आँखों पे इक नज़र की रहम कर दो
बन जाने दो हमें इश्क़ के मजमून का
गुलाबी वो सफर,
जहाँ मोहब्बत को लग जाती है
महबूब की नज़र!

सज़ायाफ़्ता स्त्री

स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...

साइनाइड

तोहमत के गीले तौलिए से
दर्द में तपता बदन पोछते हुए
तुम्हारे शब्दों से उभरा
हर फफोला रिस रहा है,
उन मुस्कराहटों की सीरिंज में
अम्ल भरकर बौछार करते हुए
ताजा हो रहा है वो पल एक बार फिर
कि जो मन से कभी उतरा ही नहीं,
आज फिर ज़िन्दगी
हस्ताक्षर चाहती है
मौत के दस्तावेज पर,
काश प्रेम सायनाइड होता
तो स्वाद न बताना पड़ता!

मेरी पहली पुस्तक

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